Move to Jagran APP

सुगंध अब फैलेगी

योजनाएं बनाना, फिर भूल जाना, फिर से सपने सजाना..यही है जिंदगी मिडिल क्लास की। परिवार में बढ़ते सदस्यों और सिमटती जगह के बीच स्पेस मैनेजमेंट करती घर की अन्नपूर्णा को जब बहू के लिए जगह बनानी पड़ती है तो एकबारगी बहू उसे प्रतिस्पर्धी प्रतीत होती है। मगर अगले ही पल उसे महसूस होता है कि यह तो बहार है उसके घर की, जिसकी खुशबू से घर-आंगन महकेगा।

By Edited By: Published: Fri, 06 Jun 2014 02:11 PM (IST)Updated: Fri, 06 Jun 2014 02:11 PM (IST)

घर के हर सामान को इधर-उधर करना, इंटीरियर को नित नया रूप प्रदान करना उसका प्रिय शौक था। कुछ-कुछ दिनों पर ऐसा करने से घर को नयापन मिलता था। सीमित और पुराने साधनों से ही कुछ नया करने का प्रयास करती रहती थी, लेकिन कमरे को नया रूप देने के लिए आज उसके घर में जो हो रहा है, वह उसे असह्य है। पच्चीस साल पहले वह ब्याह कर इस घर में आई थी। घर छोटा था, मगर सभी के लिए भरपूर व्यवस्था थी। आंगन के पास वाले सबसे बडे हवादार कमरे में जेठ-जिठानी का साम्राज्य था। बरामदे से लग कर जो कमरा था, वह अपने बाहरी परिवेश और रातरानी की गंध को स्वयं में समेटने की वजह से देवर को प्रिय था। वहां बैठ कर वह खिडकी के सामने की गली में जाने वाले लोगों का सूक्ष्म निरीक्षण कर सकते थे। निरंतर पढाई की एकरसता को विविध रसों से मिटा सकते थे। बैठक के पीछे का वातावरण विहीन कमरा अपने छोटे आकार और हवा की समुचित व्यवस्था न होने की वजह से मात्र भंडार घर के लिए उपयुक्त था। चौथे कमरे यानी बैठक में ससुर जी का आधिपत्य था। बडे से आंगन में एक बरामदा निकाल कर उसके एक भाग में अस्थाई रसोई की व्यवस्था थी। अब जब घर की हर जगह वस्तु विशेष या व्यक्ति विशेष के लिए निश्चित थी तो दूसरी बहू, यानी उसे देने के लिए बीच का भंडार घर ही बचा था।

loksabha election banner

तय हुआ कि सासू मां की गृहस्थी रसोई के बगल में आंगन के बरामदे को थोडा और घेरकर उसमें स्थानांतरित कर दी जाए और उस कमरे की आंगन की तरफ वाली दीवार को तोड कर वहां एक खिडकी बना कर दूसरे नंबर वाले बेटे-बहू को दे दी जाए। बस, तब से लेकर आज तक हजारों रंगीन सपने उसने उसी कमरे की चारदीवारी में देखे। उसी कमरे में पति के साथ मिलकर भविष्य का ताना-बाना बुना था। उसके हर्ष, क्रोध, दुख, क्षोभ, राग-विराग का एकमात्र मूक गवाह वही कमरा था। फिर एक दिन उसके पति को मुंबई में नौकरी मिली, लेकिन नौकरी छोटी थी। कम आमदनी में मुंबई जैसे शहर में पत्नी का खर्च उठा कर मां-बाप के लिए कुछ भेजना संभव न होता, इसलिए उसे सास-ससुर की सेवा में रहना पडा। वियोग के एकाकी पलों में भी वह कमरा ही उसका हमदर्द बनता था।

मकान के बायीं तरफ थोडी-सी जमीन खाली पडी थी। उसमें दो कमरे और बनाने का कार्यक्रम बना। चूंकि जेठजी बेरोजगार थे और ससुर जी रिटायर हो चुके थे, इसलिए कमरे को बनाने में जो खर्च आएगा, वह उसके पति को ही करना पडेगा। ऐसा निर्देश ससुर जी ने दे दिया। घर खर्च के लिए जो पैसे मुंबई से आते थे, उसमें से सौरभ और प्रिया के दूध की व्यवस्था कर दी जाती थी, लेकिन अब उसमें कटौती होने लगी, क्योंकि कमरे बनाना बच्चों के दूध से अधिक जरूरी था। बच्चे बडे हो गए थे, उन्हें दाल-चावल या दूसरी अन्य चीजें खानी चाहिए। सासू मां का बेटा पैसे के लिए परदेस में पडा है और यहां बच्चे ऐश कर रहे हैं, यह सासू मां को कैसे बर्दाश्त होता! आखिर उनके बेटे की भी जान है! अकेला आदमी कितनों को पालेगा, सो दूध में कटौती करके कमरों के लिए पैसा इकट्ठा करना अनिवार्य हो गया। न जाने कैसी किस्मत थी उसकी कि सासू मां की किसी भी योजना-यज्ञ में आहुति उसे और उसके बच्चों को ही बनना पडता। जिठानी रौबदार घर की थीं और साथ में भरपूर दहेज भी लाई थीं, इसलिए सासू मां के अंकुश की सीमा से परे थीं। सासू मां कुछ कहना भी चाहतीं तो नतमस्तक होकर सुन लेना जिठानी के बस की बात नहीं थी। मगर उसकी बात और थी। बचपन से ही मां ने ऐसी शिक्षा दी कि सासू मां के अन्यायपूर्ण व्यवहार का भी विरोध कर पाना उसके लिए असंभव था। न जाने उसे क्या हो जाता था! जबान तालू में चिपक जाती थी। वह जमाना भी कुछ और था। मन इतना विद्रोही नहीं हुआ करता था। आवश्यकताएं सीमित थीं तो दिल में संतोष भी रहता था।

किसी तरह विषम परिस्थितियों में भी धैर्य रखते हुए वह संयुक्त परिवार को टूटने से बचाए हुए थी। देवर की शादी तक दो कमरे बन कर तैयार हो गए थे। जगह की पर्याप्त व्यवस्था हो गई थी। शादी की भीड-भाड में वे दो कमरे बहुत काम आए। देवरानी को रहने के लिए वही कमरा मिला, जिसमें उसके पति पहले से रहते थे। बगल वाली जमीन के दोनों कमरों को किराए पर उठा दिया गया, ताकि घर में अतिरिक्त आमदनी आ सके। देवर भी नौकरी में थे। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। परिवार के इतने सदस्यों के बीच कई बार आपसी मनमुटाव भी होता, लेकिन ससुर जी के धीर-गंभीर व्यक्तित्व व सुलझे विचारों और सासू जी के दबंगपन से सब फिर से सामान्य हो जाता था। वैसे सासूजी जितनी अनुशासन प्रिय थीं उतनी ही ममतामयी भी। सूझ-बूझ ऐसी कि पूछो मत। यही वजह थी कि परिवार मिल-जुलकर चल रहा था।

सास-ससुर के देहांत के बाद तीनों भाइयों में मकान का बंटवारा हुआ। बरामदा, बैठक, आंगन की रसोई और वही बीच वाला कमरा उसके हिस्से में आया था। पीछे के दोनों बडे और हवादार कमरे, आंगन, भंडारघर जेठ के हिस्से में गया था। देवर ने नए बने दोनों कमरों पर अपना अधिकार जमा लिया।

अब बंटवारे में मिले अपने दोनों कमरों को उसने नए ढंग से सजाना शुरू किया। आगे की बैठक तो बैठक ही बनी रही। फर्क सिर्फ इतना आया कि उसमें सौरभ और प्रिया के पढने और किताब-कॉपी रखने की व्यवस्था कर दी गई। बीच वाले कमरे में पलंग के बगल में दीवार से लगकर दो फुट चौडा चार फुट ऊंचा ओटा बनाया गया। ओटे के नीचे तीन-चार रैक निकलवा लिए। अब ओटे के नीचे के खानों और ओटे के ऊपर भी सामान रखा जा सकता था। जरूरत पडने पर ओटे पर बिस्तर बिछा कर एक व्यक्ति के सोने की व्यवस्था हो जाती थी। पति नौकरी के सिलसिले में मुंबई में ही रहते थे। उसके और उसके दो बच्चों के लिए दो कमरों का घर पर्याप्त था। उन्हीं दोनों कमरों में हेर-फेर कर अपनी कल्पनाशीलता व कलाप्रियता का परिचय देती रहती थी।

जब पति रिटायर होकर घर में रहने लगे तो जगह की कमी महसूस हुई। छत के ऊपर एक कमरा बनवाने का प्रस्ताव पारित हो गया था, लेकिन पति का हाथ तंग था और फिर प्रिया की शादी भी करनी थी, सो प्रस्ताव पारित होते ही निरस्त हो गया। सीमित आमदनी वाले लोगों के यहां इसी तरह अनेक योजनाएं बनती-बिगडती रहती हैं। हां, योजना बनाने का सुख और कल्पना में उसे भोग लेने का एहसास साधन-विहीन लोग बखूबी जानते हैं। आखिर सोचने में पैसा नहीं लगता, फिर क्यों न ऊंची उडान भरी जाए। लेकिन सपनों के ध्वस्त होने पर इन्हें दुख नहीं होता। ये इसके अभ्यस्त भी होते हैं।

सौरभ अब बडा हो गया था। पढाई पूरी करके शहर के ही एक स्कूल में टीचर बन गया। पिता ने उसकी शादी भी तय कर दी। बहू को देने के लिए एकमात्र बीच वाला कमरा था। उसने उसे खाली किया, कमरे का पलंग बाहर के बरामदे में डाल दिया गया, छोटे-मोटे सामान रसोई और बैठक की बंद अलमारी में रखे गए। बहू को दहेज में डबलबेड, ड्रेसिंग टेबल, बडे-बडे बक्से मिले थे। जब उसका सामान बीच वाले कमरे में लगाया जाने लगा तो डबलबेड से ही कमरा दो-तिहाई से अधिक भर गया। बॉक्सेज और ड्रेसिंग टेबल को रखने के बाद तो चलने-फिरने की भी जगह न बचती। कमरे को थोडा बडा आकार देने के लिए आज उसका ओटा तोडा जाने लगा, जिसे बनवाने के बाद उसने राहत की सांस ली थी कि चलो सामान रखने और आराम करने की व्यवस्था हो गई। उसे लग रहा था कि उसके साम्राज्य पर अचानक आक्रमण हो गया है और उसे हार मान लेनी पड रही है।

स्वामित्व का सुख वह भोग चुकी थी। सब कुछ उसका अपना था। कहां क्या रखना है, कहां से क्या हटाना है, इसका निर्णय वही लेती थी। अचानक एकाधिकार पर अंकुश लग रहा था। पूरे मनोयोग से बनाई गई उसकी योजना, जो पहले पति और बच्चों द्वारा प्रशंसनीय थी, अब निरर्थक साबित हो रही थी। इसका कारण बनी यह नई बहू, जो अचानक उसे प्रतिस्पर्धी सी लगने लगी। उसके मन में नई बहू के प्रति स्वाभाविक प्रेम और ममत्व का अंकुर सूखता नजर आ रहा था। आते ही ऐसे लक्षण! उसे याद आया वह दिन, जब उसने भंडार घर की सफाई करते-करते गलती से चीनी के कनस्तर को गेहूं की कोठी के पीछे रख दिया था। कितना नाराज हुई सासू मां। किसकी हिम्मत कि सासू मां की व्यवस्था में टांग अडाता। एक बार वह नाराज होतीं तो दिन भर शुरू ही रहती थीं। उसने तो मन ही मन उनका नामकरण भी कर दिया था, विविध भारती। अपनी दबी शरारत को याद कर आज भी उसके होठों पर हंसी आ गई।

बरामदे में वह ओटा तोडने की खट-खट आवाज सुन रही थी। ओटे का विछोह उसे आत्मिक जन के बिछोह से कम नहीं लग रहा था। हथौडे का हर वार उसे अपने सीने पर पडता महसूस हो रहा था। कम से कम पति को तो उसकी भावनाओं को समझना चाहिए था। उसने परिवार के लिए हमेशा त्याग किया है। कोई ख्वाहिश-शिकायत नहीं। हर परिस्थिति में समझौता करना उसकी आदत थी। मगर आज उसकी इच्छा हो रही थी कि उसके पति उसके पक्ष में कुछ बोलें।

क्या सच में कमरा इतना छोटा है कि उसमें बहू का सामान नहीं आ सकता? ड्रेसिंग टेबल को पलंग से सटा कर रखा जा सकता है और टीन के बडे बक्से को ओटे पर रख देते। छोटे-मोटे सामानों के लिए पलंग के नीचे की जगह पर्याप्त है। कमरा थोडा जरूर भर जाएगा, लेकिन ओटा तो टूटने से बचेगा।

क्षोभ, क्रोध और उदासी में डूबी वह बरामदे में बैठी थी, तभी बहू आकर बोली, मां, खाने में क्या बना लूं? उसने चौंक कर बहू की तरफ देखा- कितना निश्छल चेहरा! वाणी में आदर और प्रेम का मिश्रण! आंखें नई दुलहन के लिहाज से कुछ झुकी हुई सी। उसके अस्तित्व को शिरोधार्य करती सिर झुकाए सामने खडी। चंद दिनों में ही काम की जिम्मेदारी अपने सिर पर लेने वाली बहू इतनी आक्रामक तो नहीं हो सकती! यह तो नाजुक कली है, जिसे सास का सहारा चाहिए। इस कली की खुशबू पूरी बगिया में फैले, इसके लिए उसे अपनी बासी सुगंध समेटनी पडेगी। कर्तव्यपरायण बहू के लिए वह खुद ऐसा करेगी। पुराने ओटे का गम कैसा? आखिर यह घर बहू का भी उतना ही है, जितना उसका। फिर यह कली उसके घर में बहार ही तो लाएगी! आने वाली बहार क्या ओटे से कम लुभावनी होगी..!

वह एक झटके से उठी। साडी झाड कर मन की मैल उडा दी और कमरे में जाकर मजदूरों को काम जल्दी खत्म करने और कमरा ठीक से साफ करने की हिदायत देने लगी..।

आशा पांडेय


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.