स्लो पॉइजन
कहानी के बारे में : ऐसी कई स्त्रियों को जानती हूं, जो प्रताडि़त रहीं मगर पारिवारिक प्रतिष्ठा के भय से चुप्पी साधे रहीं। उम्र के 50-60 पड़ाव पार करने के बाद वे अपने प्रति अन्याय के बारे में बोलीं। लेखिका के बारे में : वृंदावन में जन्मी, कोटा से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग और मुंबई से सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग की, रुचि लेखन में रही। पत्र-पत्रिकाओं व वेब मैगजींस में कविताएं, कहानियां, लेख और बाल कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। संप्रति : डायरेक्टर, सुपर गन ट्रेडर अकेडमी प्रा.लि. चेन्नई
By Edited By: Published: Fri, 18 Nov 2016 11:13 AM (IST)Updated: Fri, 18 Nov 2016 11:13 AM (IST)
इतने वर्ष पुलिस की नौकरी करते हुए मैं खुद को बहुत कामयाब समझती रही। ऊंचा ओहदा, वर्दी का रुतबा, एक खास पहचान थी मेरी लेकिन आज मैं खुद को बेहद असहाय पा रही थी। समझ नहीं पा रही थी कि मुझे क्या करना चाहिए। हुआ यूं कि आज एक 60 वर्षीय महिला की खुदकुशी का केस मेरे सामने आया। फोन पर खबर मिलते ही मैं अपनी पुलिस जीप और कॉन्स्टेबल के साथ वहां पहुंची। अपार्टमेंट के बाहर बडी हलचल थी। लोग सफेद या हलके रंग के कपडों में नजर आ रहे थे। फ्लैट नंबर 103 में पहुंचते ही भयानक दृश्य देखने को मिला। बुजुर्ग स्त्री पंखे से झूल रही थी। पास से मुआयना किया। पूरा शरीर नीला पड चुका था, जीभ बाहर को निकली हुई एवं आंखें इतनी बडी-बडी बाहर को निकली हुई थीं, मानो कह रही हों, बडी पुलिस अफसर बनती हो, लो कर लो तहकीकात। वह थीं मिसेज वालिया। मौके पर कोई लिखा हुआ नोट नहीं मिला, न ही खुदकुशी का कोई और कारण पता चला। उनके पति से पूछा तो बोले, 'पूरी जिंदगी तो बडे अच्छे से रहीं, अब न जाने क्या हो गया जो ऐसा कदम उठा लिया।' दूसरे शहर में रहने वाला उनका एक बेटा और बहू आ चुके थे। बेटी भी बस आने ही वाली थी। सो मैंने भी वहीं रुकने का फैसला किया ताकि मैं उनके बच्चों का बयान ले सकूं। कॉन्स्टेबल को मैंने घर की तलाशी लेने को कहा। एक घंटे बाद उनकी बेटी भी वहां पति के साथ पहुंच गई। उससे पूछने पर पता चला कि मां से दो दिन पहले ही बात हुई थी, सब ठीक-ठाक ही बता रही थीं, फिर न जाने क्यों... इतना कह कर अपने पिता से लिपट कर रोने लगी। उसे रोते छोड मैं मिसेज वालिया के कमरे की तलाशी स्वयं लेने लगी, कहीं कुछ न मिला। उनकी अलमारी खोली तो देखा अत्यंत ही खूबसूरत साडिय़ां, मैचिंग पर्स, आर्टिफिशियल ज्यूलरी! इन सब को देखते हुए लगता था, बहुत ही शौकीन थीं वह। अलमारी के एक कोने में कुछ पुस्तकें थीं, उन्हें टटोला तो मालूम हुआ, कविताएं एवं शायरी पढऩे का भी शौक रखती थीं। पास ही में एक सुनहरे रंग की डायरी रखी थी बडी ही सुंदर, जिस पर एक मोरपंख एक लेखनी के रूप में चिपका हुआ था। उस पर लाल स्केच पेन से लिखा हुआ था, 'मेरी पहचान'। मैंने वह डायरी अपने कबजे में ली, तभी कॉन्स्टेबल एक पर्चा लेकर आया। हूं...तो सुसाइड नोट भी लिख कर गई हैं। पर्चे पर लिखा था, 'मैं खुदकुशी कर रही हूं और इसके लिए किसी को दोषी न ठहराया जाए'। लिखावट मिसेज वालिया की ही थी। वह पर्चा मिस्टर वालिया को दिखा कर मैंने अपने पास रख लिया और शव को उतरवा कर उसके कुछ फोटो लेकर जीप में बैठ गई। मिस्टर वालिया को अंतिम क्रिया की इजाजत देकर मैं पुलिस स्टेशन पहुंची। दफ्तर के दूसरे काम निबटा कर वह डायरी पढऩे बैठ गई, जिसमें मिसेज वालिया ने अपनी शादी के पहले महीने से लेकर अब तक की सभी खास घटनाओं का जिक्र किया था, जिसे पढकर मालूम होता था कि बहुत ही जिंदादिल इंसान रही होंगी वह। शादी के पहले नौकरी करने वाली मिसेज वालिया बहुत ही संजीदा, खुशमिजाज एवं जिम्मेदार लडकी हुआ करती थीं। बडे शहर में नौकरी का सपना लिए दिल्ली के इंजीनियर से शादी की जो कि एक मध्यम-वर्गीय परिवार से थे। मिस्टर वालिया मेहनती थे। पैसा कमाने की लगन थी उन्हें, काम के अलावा उनका कोई शौक नहीं था। हर वक्त सिर्फ पुस्तकों से ही घिरे रहते। संयुक्त परिवार था। नई बहू के आते ही सास ने पूरे परिवार की जिम्मेदारी उस पर डाल दी। खाना, सफाई....पूरा दिन घर के कामों में बीतता। रात में पति के पास बैठतीं तो वह टीवी या पुस्तकों में डूबे नजर आते। कुछ कहतीं तो मुस्कुरा देते। हालांकि रात में वह जरूर समय निकालते थे। वैसे भी नई-नई शादी थी। वह भी खुशी से समर्पण करतीं और कभी-कभी तो दिन में भी मिस्टर वालिया उनका संसर्ग चाहते। मिसेज वालिया ने डायरी के शुरुआती पन्नों में लिखा है, 'ऐसा मालूम होता है, हर कोई मुझे अपने-अपने ढंग से इस्तेमाल कर रहा है। अगर इन्हें ये सब करवाना था तो नौकरी वाली बहू लाए ही क्यों? घरेलू कामों के लिए काम वाली बाई रख लेते? इस पर भी किसी के चेहरे पर संतुष्टि नहीं दिखती। ननद, देवर सभी अपनी फरमाइशें रख देते हैं। खाने में हजार नुक्स निकालते हैं। इन्हें तो जैसे मुझसे कोई मतलब ही नहीं है, अपनी ही दुनिया में मस्त रहते हैं। सास, देवर और ननद के ताने सुनते-सुनते छह महीने बीत चुके हैं। सास ने रिश्तेदारी में बदनामी करने में कोई कसर नहीं छोडी है। मेरे संस्कार मुझे मुंह खोलने से रोकते हैं। कई बार जवाब देने का मन करता है लेकिन फिर यह सोच कर चुप रह जाती हूं कि पहले से घर में इतने झगडे हैं, कहीं बढ गए तो!' ...डायरी में और भी कई बातें लिखी हुई थीं। ससुराल वाले उन्हें ही नहीं, उनके माता-पिता को भी उलाहना देते हैं। माता-पिता बेटी के पक्ष में बोलने की कोशिश करते तो उन्हें कहा जाता कि इतना ही प्यार है तो बेटी को ले जाओ। इस पर माता-पिता भी उन्हीं को कहते कि एडजस्ट करो। इसी बीच वह गर्भवती हो गईं। सास दुनिया के लिए बेहद अच्छी थीं मगर गर्भवती बहू की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहती थीं। पति को बाहर की दुनिया ही भाती थी। उन्होंने परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाना सीख लिया था। फिर जब उनके बेटे ने जन्म लिया, घर में किचकिच और बढ गई। जब भी मुंह खोलने की कोशिश करतीं, मिस्टर वालिया उन्हें ताने देने लगते। उन्होंने बच्चे के साथ अपने दर्द को भुलाना शुरू कर दिया मगर सास थीं कि झगडे के बहाने खोजती रहतीं। बहू से प्रत्युत्तर न मिलता तो बेटे के कान भरने लगीं। एक दिन तंग आकर मिस्टर वालिया ने उन्हें साफ कह दिया कि वह चाहें तो तलाक लेकर अलग रह सकती हैं। इस एक झगडे के बाद उन्होंने सोच लिया कि आयंदा कभी मुंह नहीं खोलेंगी। दो साल बीतते-बीतते सास-ससुर दुनिया से कूच कर गए। मिसेज वालिया ने नौकरी छोडऩे का फैसला किया क्योंकि मेड के भरोसे वह बच्चे को नहीं छोडऩा चाहती थीं। वक्त धीरे-धीरे बीत रहा था। बेटा छह साल का हुआ तो मिसेज वालिया ने दोबारा नौकरी करने के बारे में सोचा लेकिन पति ने झट से दूसरे बच्चे की इच्छा जाहिर कर दी। कुछ समय बाद उनके घर में एक प्यारी सी बच्ची ने जन्म लिया। बेटी पाकर मिसेज वालिया की दुनिया ही जैसे बदल गई। फिर मिस्टर वालिया का ध्यान बेटे पर गया, जो हूबहू उनके जैसा था। न किसी से बात करता, न मिलता-जुलता। मिस्टर वालिया को लगने लगा कि यह दुनिया में कैसे निभाएगा। वह तो अपने बेटे को स्मार्ट बनाना चाहते थे। यह सारा इल्म एक बार फिर से मिसेज वालिया पर आ गया। वह कहते, 'तुमने बेटे को बुद्धू बना दिया है।' ....मैं डायरी के पन्ने पलटती जा रही थी और एक स्त्री की बरसों की पीडा को महसूस कर रही थी। आगे लिखा हुआ था, धीरे-धीरे परवरिश के मामले में मिसेज वालिया का हस्तक्षेप घटा और मिस्टर वालिया का शुरू हो गया। वे क्या करें, क्या पढेंगे, कहां जाएंगे, क्या खाएंगे और क्या सीखेंगे....सब कुछ मिस्टर वालिया तय करने लगे। हालांकि वह थोडा खुश हुईं कि इसी बहाने सही, बच्चों के बारे में सोचने तो लगे लेकिन घर में झगडे बढऩे लगे। बच्चों की परवरिश को लेकर आए दिन उन्हें बातें सुननी पडतीं। नौकरी के बारे में सोचना उन्होंने अब छोड दिया था। यूं तो मिस्टर वालिया थे नेकदिल इंसान लेकिन वह जिद्दी थे। अपनी मां की तरह ही हर काम में मीनमेख निकालना उनका प्रिय काम था। झगडों की खबर धीरे-धीरे रिश्तेदारी में भी पहुंचने लगी। मिसेज वालिया का आत्मसम्मान टूटने लगा था। मिस्टर इतने ऊंचे स्वर में बात करते कि लोगों को पता चल जाता कि घर में झगडा हो रहा है। मिसेज वालिया ने कई जगह लिखा, 'कई बार जी में आता है कि जान दे दूं लेकिन बच्चों के बारे में सोचकर रह जाती हूं। मैं चली गई तो मेरी बेटी का क्या होगा? बेटा तो फिर भी आत्मनिर्भर है मगर लडकी की जिंदगी तो मां के बिना खत्म ही हो जाती है...।' अब मिसेज वालिया ने पति की हर बात माननी शुरू कर दी। हर बात में सिर्फ हां बोल देतीं। आपसी बातचीत-संवाद कम होते-होते सिर्फ हां या ना में रह गया। इसी सबके बीच बच्चे भी बडे हो गए। बेटे को बेहतर नौकरी मिल गई। बेटी भी पढ-लिख कर ससुराल चली गई। फिर दो-एक साल बाद उनके भी बच्चे हो गए। बेटी के बच्चे बडे हुए तो बेटी ने अपना बिजनेस शुरू कर दिया। मिसेज वालिया ने इसमें बेटी की बहुत मदद की। वह नहीं चाहती थीं कि उनकी बेटी उनकी जैसी जिंदगी जिए। उन्हें लगता था कि अब उनकी जिम्मेदारियां खत्म हो चुकी हैं। 60 की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते वह मन और शरीर, दोनों से टूट चुकी थीं। मिस्टर वालिया बाहर की दुनिया में व्यस्त रहते थे। बेटा-बेटी अपनी नौकरी और घर-गृहस्थी में व्यस्त हो गए। अपना अस्तित्व खोकर जिंदगी दूसरों के लिए जीने वाली मिसेज वालिया खुद को ही बोझ समझने लगीं। पति से दिल का रिश्ता कभी बना ही नहीं, बच्चों की खातिर जी रही थीं लेकिन एकाएक बच्चे भी पराये से हो चले। उन्हें भी अब मां के बारे में सोचने की फुर्सत कम ही मिलती थी। मिसेज वालिया बार-बार अपनी जिंदगी का मकसद तलाशने की कोशिश करतीं। परिस्थितियां ऐसी बनती चली गई थीं कि खुशमिजाज लडकी से कब वह कभी न मुस्कुराने वाली बूढी औरत में तब्दील हो गर्ईं, यह स्वयं भी नहीं जान सकीं। डायरी के आखिरी कुछ पन्ने डरा देने वाले थे, 'अब मेरा सब कुछ खत्म हो चुका है। अपना आत्मसम्मान खत्म किया, नौकरी छोडी, बच्चों को पाला-पोसा, गालियां खाईं, ताने-उलाहने झेले....मेरा आत्मविश्वास डांवाडोल होते-होते अब खत्म हो गया है। सब कुछ त्याग चुकी हूं, बस यही एक शरीर बचा है, आत्मा तो कब की मार दी गई है। कई सालों से धीरे-धीरे मर रही थी मैं। सोचा कि रोज-रोज की मौत से एक दिन की मौत अच्छी...।' मिसेज वालिया की डायरी पढ कर मेरी आंखें नम हो गईं। जो कुछ उनकी जिंदगी में हुआ, कहीं न कहीं मेरी अपनी जिंदगी भी उसी ढर्रे पर चल रही थी। मैं उनकी डायरी में अपना ही अक्स ढूंढ रही थी। कहने को मैं एक पुलिस अधिकारी हूं लेकिन अपने घर में महज एक बीवी और स्त्री ही हूं। रिश्तों की मर्यादा रखने के लिए हमेशा चुप्पी मुझे ही ओढऩी पडती है, फिर गलती चाहे पति की ही क्यों न हो। मुझे भी उतना ही बुरा लगता है, जितना मिसेज वालिया को। मेरी जैसी स्थिति में न जाने कितनी स्त्रियां होंगी, जिन्हें हर रोज यह जताया जाता है कि वे अपनी हद में रहें, स्त्री हैं तो स्त्री बन कर रहें। इस राह में न जाने कितनी संभ्रांत परिवारों की स्त्रियां शामिल हैं। हम सभी ने मुस्कुराहट का एक मुखौटा अपने चेहरों पर लगा रखा है लेकिन भीतर ही भीतर हम सब धीरे-धीरे मर रही हैं। सच कहूं तो इसे मैं मिसेज वालिया की आत्महत्या नहीं, हत्या मानती हूं। कई वर्षों से उनकी आत्मा को लहूलुहान किया जा रहा था। वह शरीर को महज इसलिए ढोती रहीं ताकि परिवार की मर्यादा बनी रहे। यह हत्या उनके अस्तित्व की थी, उनकी शख्सीयत, इच्छाओं और उनके सपनों की। इतने बरस वह इस स्लो पॉइजन को पीती रहीं....। मेरे हाथ कानून ने बांध रखे हैं। जानती हूं कि हत्यारा कोई एक नहीं है। इसमें सभी शामिल हैं। उनके पति, ससुराल वाले, मायके वाले, रिश्तेदार, बच्चे और यह पूरा समाज। कानूनन मैं कुछ नहीं कर सकती क्योंकि कानून को पुख्ता सबूत चाहिए, जो मेरे पास नहीं हैं। मैं मजबूर हूं क्योंकि पुरुष प्रधान सोच को कठघरे में नहीं खडा कर सकती, न समाज के दकियानूसी उसूलों, नियमों और सीमा-रेखाओं पर मुकदमा दर्ज करवा सकती हूं...। मूल रूप से दरभंगा (बिहार) के रहने वाले देवाशीष ने कोलकाता से विजुअल आट्र्स में बैचलर डिग्री ली। अब तक मुंबई, बंगालुरू, कोलकाता, चेन्नई, दिल्ली सहित लंदन, सिंगापुर और हॉन्गकॉन्ग में कई एकल और समूह प्रदर्शनियां आयोजित, भारत सहित, यूके, यूएसए, सिंगापुर, दुबई और जर्मनी में आर्ट कलेक्शन। संप्रति : कोलकाता में निवास
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