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सामने वाली

दूसरों की निजी जिंदगी में ताक-झांक करने और उनके बारे में कहानी गढ़ने की कला में कुछ लोग माहिर होते हैं। मगर ऐसे लोग किसी के दुख-दर्द में शरीक होने का फर्ज नहीं निभा पाते। कम होती जा रही मानवीय संवेदनाओं और अकेले पड़ते जा रहे लोगों की कहानी।

By Edited By: Published: Mon, 03 Nov 2014 11:29 AM (IST)Updated: Mon, 03 Nov 2014 11:29 AM (IST)
सामने वाली

लगातार बजती डोर बेल की आवाज सुनकर मैं झल्ला कर बुदबुदाई, उफ! ये काम वाली भी न..! सौ बार कहा कि संडे को आठ बजे से पहले मत आया करो, मगर नहीं। गुस्से में दरवाजा खोला तो सामने वाली की बेटी छवि रोते हुए खडी थी, आंटी.. मम्मी.. हॉस्पिटल.. उसकी घबराई हालत देखकर भी न जाने क्यों मन में दया-भाव नहीं जागा। हालांकि प्रत्यक्ष में मैंने परेशान होने का नाटक करते हुए कहा, बेटा, मैं बस अभी आई..। छवि उल्टे पांव अपने घर की ओर दौड पडी। उससे तो मैंने कह दिया कि मैं आ रही हूं, मगर आस-पडोस के मामलों में मेरा दिलचस्पी लेना मनु को पसंद नहीं है। इसलिए मैं वहीं सोफे पर बैठ गई। अपनी कठोरता पर मुझे आश्चर्य हो रहा था। टीवी सीरियल्स और फिल्मी पर्दे के भावुक दृश्यों पर रो-रो कर रुमाल भिगोने वाली मैं आज सात-आठ साल की बच्ची के आंसू देखकर भी नहीं पसीज रही हूं। क्या करूं? क्या मनु को जगाकर एक बार उन्हें यह सूचना दूं?

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सोचती हुई मैं बेडरूम में आ गई पति को जगाने, अजी उठिए तो.. सामने वाली को कुछ हो गया है। उसकी बेटी आई थी अभी। खुल कर कुछ नहीं बोली, बस हॉस्पिटल-मम्मी..बोल रही थी। मनु चौंकते हुए उठ गए और पूछने लगे, क्या? क्या हुआ? मैंने कहा, शायद सामने वाली की तबीयत ठीक नहीं है, उसकी बेटी मुझे बुलाने आई थी।

अरे तो गई क्यों नहीं? मनु के चौंक कर पूछने पर मैंने तुरंत कहा, नाइटी में जाती? हालांकि मैं जानती थी कि यह सिर्फ एक बहाना है। सच तो यह है कि मेरे मन में सामने वाली के प्रति सहानुभूति है ही नहीं। मगर कल तक सामने वाली के बारे में बोलने वाले मनु ने झट से कुर्ता पहना और दौड गए मुझे भी जल्दी आने की हिदायत देते हुए। मनु की त्वरित प्रतिक्रिया से मैं आश्चर्यचकित थी। उस औरत की इतनी फिक्र..? पहले तो उसके बारे में बात तक करना इन्हें गवारा नहीं था। अब क्या हो गया? कहीं उसका जादू तो नहीं चल गया! मैं बिस्तर पर पसर गई..।

छह-सात महीने पहले ही मैं यहां आई हूं। शादी के एक महीने बाद तक ससुराल में रही। फिर मनु लेने आए तो यहां आ गई। ट्रेन सुबह पहुंचने वाली थी, मगर लेट हो गई और घर पहुंचते-पहुंचते दोपहर हो गई। मनु का ऑफिस जाना जरूरी था। जाते हुए मुझसे बोले कि शाम को काम वाली बाई आशा से घर की सफाई करा लूं और खाना बनवा लूं। मैंने भी फ्रेश होने के बारे में सोचा और बाथरूम की ओर जाने लगी कि कॉलबेल बजी। दरवाजा खोला तो सामने सलवार-कमीज पहनी एक सांवली मगर सजी-संवरी खूबसूरत सी स्त्री थी। मैं कुछ पूछती, इससे पहले ही वह मुस्करा कर बोली, मैं आपके सामने के फ्लैट में रहती हूं। आशा आपके यहां आई थी क्या? मैंने सोचा, शायद आशा के बहाने वह मुझे देखने आई होगी। ये स्टाफ क्वार्टर्स थे और सभी को मालूम था कि मिस्टर मनस्वी अपनी दुलहन को लेने गए हैं। उसने हमें आते देख कर अंदाजा लगाया होगा कि नई दुलहन आ गई है। इसलिए मुझसे मिलने चली आई होगी। मुझे उसका स्वभाव जरूरत से ज्यादा फ्रेंड्ली लगा। मैंने कहा, आशा तो शायद छह-सात बजे तक आएगी और अभी तो चार ही बजे हैं।

सामने वाली कुछ देर खडी रही, मगर मेरा टालने वाला अंदाज देखकर वह हौले से मुस्कराई और वापस चली गई।

.उससे यह मेरी पहली व आखिरी मुलाकात थी। कहीं आते-जाते मिल जाती तो मुस्करा कर अभिवादन करती, मैं भी औपचारिकता निभा देती, मगर कभी उसे आगे बढने का मौका मैंने नहीं दिया। दरअसल मनु से उसके बारे में कुछ-कुछ बातें सुन ली थीं। कुछ अन्य पडोसियों ने भी जो कुछ बताया था, उससे यही लगा कि वह ठीक नहीं है। लोगों से सुना था कि अकेली रहती है बच्चों के साथ। शायद तलाकशुदा है या फिर कोई और बात होगी जो पति से अलग है। इसके घर कुछ लोग अकसर आते-जाते हैं। एक व्यक्ति तो हफ्ते में दो-तीन बार आता है। एकाध बार किसी व्यक्ति को यहां गाली-गलौज करते भी देखा गया..।

शुरू-शुरू में उसके बारे में कही गई बातों का मैं विरोध करती। कहती कि वह अकेले बच्चों को पाल रही है। कितनी जिम्मेदारियां निभा रही है। लोगों की बात पर मैं सहज विश्वास नहीं कर पाती। सच कहूं तो मैंने कई बार खिडकी या दरवाजे की ओट से उसे छिप-छिप कर भी देखा था, मगर ऐसी कोई बात नजर नहीं आई, जिसके आधार पर उसे गलत ठहरा सकूं। फिर भी न जाने कैसे मेरे मन में यह बात बैठ गई कि सामने वाली अच्छी औरत नहीं है। दिन में तीन-चार बार उसे स्कूटी पर आते-जाते देखती। वह स्मार्ट, खूबसूरत और आत्मविश्वास से भरी स्त्री थी। कहीं ईष्र्या भी होती थी मन में।

..मनु तेजी से घर में घुसे तो सामने वाली की यादों से बाहर निकली मैं। वह घबराए हुए दिख रहे थे। उन्होंने वॉलेट में पैसे चेक किए और एंबुलेंस के लिए फोन किया। फिर मेरी ओर देखकर बोले, अरे यार उसने तेजाब पी लिया है..। मैं तुरंत बोल पडी, ये तो पुलिस केस है, आप मत जाइए वहां।

मनु गुस्से से बोले, कैसी बात करती हो तुम? किसी के जीने-मरने का सवाल है। उसके छोटे बच्चे हैं, कुछ हो गया तो! उसे बचाना ही होगा..।

लोग आपके बारे में भी उलटा-सीधा बोलेंगे, मैंने फिर उन्हें रोकना चाहा।

मनु कुछ पल बैठ गए, ठीक है, तुम नहीं चाहती तो नहीं जाता वहां। मगर जरा सोचो, क्या हमारी आत्मा गवारा करेगी कि किसी को यूं मरते हुए छोड दें? रही बात लोगों की तो सोचो, मैं क्या आज से पहले कभी उस घर में गया हूं? क्या किसी ने मुझे उससे बात करते देखा है? मुझे भी व्यर्थ विवादों में पडना पसंद नहीं है, लेकिन जरूरत पडने पर किसी की मदद करना इंसान का फर्ज है।

मनु की बात सुनकर मुझे संतोष ही मिला। मनु तुरंत चले गए। उनके पीछे-पीछे मैं भी निकली। मेरे वहां पहुंचने तक मनु उसे अस्पताल ले जा चुके थे। बेडरूम में उसकी बेटी जोर-जोर से सिसक रही थी। मैंने प्यार से नन्ही बच्ची के सिर पर हाथ फेरा तो वह और जोर से रो पडी। बेड के सिरहाने सामने वाली की पर्सनल डायरी रखी थी। मैं सोचने लगी, शायद इसी में उसने आत्महत्या वाला नोट लिखा होगा।

मैंने उसकी बेटी छवि को समझाया और उसे मुंह-हाथ धोने भेजा। उसका छोटा भाई भी एक कोने में चुपचाप खडा था। मैंने उसे भी प्यार से पुचकारा। न जाने क्यों मेरा मन किया कि उस डायरी को पढूं। बच्चों को घर से लाया हुआ नाश्ता देकर मैंने सामने वाली की डायरी उठा ली। पन्ने पलटे तो एकाएक एक जगह नजर ठहर गई। लिखा था, ..दीपक ने नौकरी छोडी, मगर मैंने कभी कोई शिकायत नहीं की। छोटे बच्चों के बावजूद नौकरी करने घर से निकली। शुरू में दीपक इस बात के लिए सबके सामने मेरी तारीफ करते थे। मुझ से कहते कि तुम सचमुच काबिल स्त्री हो। मगर फिर न जाने क्या हुआ। लंबी बेरोजगारी ने उन्हें शायद कुंठित कर दिया। लोगों और रिश्तेदारों के सवालों से भी वे परेशान रहने लगे। फिर एक दिन वह नशा करके घर लौटे। मैंने उस दिन उन्हें समझाया, हमदर्दी जताई और आश्वासन दिया। उन्होंने भी वादा किया कि आइंदा कभी ऐसा नहीं होगा। मगर अगले दिन भी फिर यही हुआ..उसके अगले दिन भी..। फिर तो जैसे सिलसिला चल निकला। पैसे नहीं देती तो मारपीट और गाली-गलौज पर उतारू हो जाते। मैंने बहुत कोशिश की कि उन्हें नौकरी मिल जाए, खुद कई जगह बात की, मगर ऐसा नहीं हो सका। उनकी हताशा इतनी बढ गई कि वे हर चीज के लिए मुझे दोषी ठहराने लगे। मेरे लिए उस माहौल में नौकरी करना तक मुश्किल हो गया। आए दिन की कलह का बच्चों पर भी बुरा असर पडने लगा। वे सहम गए थे।

..यातनाएं बढती जा रही थीं। अब कुछ महीने पहले भैया ने यहां फ्लैट दिलवाया है। भैया बहुत चिंतित रहते हैं मेरे लिए। हफ्ते में दो-तीन बार मुझे देखने आ जाते हैं..।

मैंने फिर से पन्ने पलटे तो एक जगह लिखा था, शायद यह मेरा भ्रम था कि मेरे कलीग्स और पडोसी मेरे शुभचिंतक हैं। सामने तो वे मेरे हितैषी बनते हैं, मगर पीठ पीछे मजाक बनाते हैं। पति से अलग रहने वाली स्त्री को न जाने क्यों बुरा समझते हैं लोग। कई लोग हैं यहां भी, बडे शरीफ और बाल-बच्चेदार बनते हैं, मगर जब-तब किसी न किसी बहाने मेरे घर आने और मुझसे दोस्ती करने की फिराक में रहते हैं। अकेली स्त्री सर्वसुलभ होती है क्या? मुझे नफरत होती है ऐसे लोगों से? काश दीपक अपनी जिम्मेदारी संभाल पाते! काश वह नशा-मारपीट न करते तो मैं इस तरह यहां अकेली न रहती! हद तो तब हो गई, जब काम वाली ने बताया कि भैया के लिए भी लोग बातें बनाते हैं। आखिर लोग किसी को चैन से जीने क्यों नहीं देते?

...एक-एक पन्ना पलटते हुए सामने वाली की जिंदगी की पर्र्ते खुल रही थीं। तभी छवि कमरे में आई और मैंने डायरी एक ओर रख दी। न जाने क्यों मैं आज अपनी छोटी सोच पर शर्मिदा हो रही थी। मन में सवाल उठने लगा कि क्या एक अकेली औरत का गरिमा के साथ जिम्मेदारियों का निर्वाह करना आज भी असंभव है? मैं स्त्री होते हुए भी दूसरी स्त्री के प्रति इतनी संवेदनहीन कैसे हो गई?

नाश्ता करने के बाद सामने वाली के बच्चे सुकून में दिख रहे थे। मैंने छवि को अपने पास बुला कर पूछा कि क्या उसकी मम्मी का किसी से झगडा हुआ था? उसने बताया, कल पापा आए थे। मम्मी से बहुत झगडा किया और बुरा-भला कहा। उन्होंने मम्मी को मारा भी। मम्मी रात भर रो रही थीं।

छवि फिर सुबकने लगी। मैंने उसे गले से लगा लिया और बोली, रोओ मत बेटा, तुम्हारी मम्मी साहसी और नेक इंसान है। उसे कुछ नहीं होगा। वह जल्दी ठीक होकर घर वापस आएगी..। यह कहते हुए मेरी आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे।

नीतू सिंह


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