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रेशम की डोर

संयुक्त परिवार भले ही कम हो रहे हों, मगर बचपन में कई भाई-बहनों के बीच मस्ती के क्षण ताउम्र नहीं भुलाए जाते। कई बार तो परिवारों के तनाव भी भाई-बहनों के आपसी स्नेह को कम नहीं कर पाते। रेशम की महीन-मुलायम सी एक डोर में ऐसा आखिर क्या होता है कि वह उम्र भर का मजबूत सहारा दे देती है बहनों को? एक बहन के अंत‌र्द्र्वद्व और भाई के स्नेह को व्यक्त करती मार्मिक कहानी।

By Edited By: Published: Sat, 02 Aug 2014 11:35 AM (IST)Updated: Sat, 02 Aug 2014 11:35 AM (IST)
रेशम की डोर

सुमेधा अपने पति गौतम के बार-बार मना करने के बावजूद मयंक भैया के घर जाने का विचार नहीं छोड पा रही थी। एक ही शहर में रहते हुए राखी के दिन भी वे एक-दूसरे से न मिल पाएं, यह कैसे संभव था? यही तो एक त्योहार है, जिसमें भाई-बहन के बीच प्यार की डोर और भी मजबूत हो जाती है।

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चार-पांच दिन पहले ही रेवा दी का फोन आया था कि मयंक भैया रांची केएक कॉरपोरेशन में एमडी बन कर आए हैं। उन्होंने सुमेधा को भैया का पता भी दिया था। तभी से उसका मन कर रहा था कि भैया से मिल आए। वह हैरान थी कि उसे मयंक भैया के इसी शहर में होने की जानकारी है तो क्या मयंक भैया को नहीं मालूम होगा कि वह भी इसी शहर में है! फिर उन्होंने फोन क्यों नहीं किया? यह बात उसे लगातार चुभ रही थी, इसके बावजूद वह मयंक भैया से मिलने का लोभ नहीं छोड पा रही थी। अंतत: गौतम का संयम टूट गया और वह बोल पडे, सुमेधा, तुम्हारे भैया ऊंचे पद पर हैं। अब हमारे बीच बहुत फर्क है। मेरी साम‌र्थ्य और सम्मान के बारे में भी तो सोचो। मैं नहीं चाहता कि वहां जाऊं और कुछ ऐसा हो कि मुझे अपनी उपेक्षा अखरने लगे..।

मन की इसी दुविधा ने उसे खिन्न कर रखा था। पति से बोली, तुम हमेशा अपनी नौकरी के कारण हीन-भावना से ग्रस्त रहते हो। इसी वजह से तुम्हारी सोच नकारात्मक हो चुकी है। तुम पहले से धारणा बना कर चलते हो कि मेरे परिवार के लोग तुम्हारी उपेक्षा करेंगे। अगर मेरे रिश्तेदार ऊंचे पद पर हैं तो इसमें मेरा क्या दोष है? मैं उनसे संबंध कैसे तोड सकती हूं? और एक बात तुम क्यों नहीं समझते कि भौतिक सुख-सुविधा कम हो जाने से रिश्ते कमजोर नहीं पड जाते..। उसकी बात ने गौतम को स्तब्ध कर दिया। तंग आकर वह चुप्पी साध गए। दूसरी ओर सुमेधा के दिल में भी उधेडबुन चल रही थी। गौतम को तो उसने सफाई दे दी, लेकिन उसका अपना मन भी आज उसके खिलाफ हो रहा था। क्या आज भी भैया बीस साल पहले की तरह स्नेह से भरे होंगे? क्या समय के साथ रिश्तों के प्रति उनकी सोच बदली होगी? क्या उन्होंने रिश्तों को भुला दिया होगा?

..सुमेधा सोचने लगी, शादी से पहले उसका जीवन कितना सुंदर और सरल था। खुले आकाश में पक्षियों की तरह स्वच्छंद विचरण करती वह रिश्तों की जटिलताओं से अनभिज्ञ थी। चचेरा शब्द भाई-बहन के रिश्ते में दूरी नहीं पैदा करता था। लडते-झगडते, खेलते-कूदते अटूट बंधन में बंधे थे सारे भाई-बहन। संयुक्त परिवार था, जिसमें दादा-दादी, बडे पापा और उनके दो बच्चे मयंक और सुनंदा, उसके माता-पिता व बडी बहन रमा, चाचा-चाची व उनके तीन बच्चे तनु, मनु व भावना..सब साथ रहते थे। सात भाई-बहन इस तरह घुल-मिल कर रहते कि बाहर वालों को पता न चलता कि वे अलग-अलग माता-पिता की संतानें हैं। बडे पापा बिहार सरकार में उच्च पद पर थे, जबकि उसके पापा व चाचा का अलग-अलग व्यापार था। तीनों भाई मिल-जुल कर परिवार चला रहे थे। मयंक भैया सबसे बडे थे और बाकी छहों भाई-बहनों के गुरु व दोस्त थे। सुबह सबको जगाना और पढने के लिए बिठाना उन्हीं का काम था। वह सातवीं कक्षा में थी, जब भैया का चयन आइआइटी में हो गया। दो साल बाद सुनंदा दी भी मेडिकल कॉलेज में चली गई थीं। हर आने-जाने वाले से माता-पिता मयंक भैया और सुनंदा दीदी की उपलब्धियां गिनाते रहते और गर्व से भर उठते, लेकिन मयंक भैया के चले जाने से उन्हें पढाई में काफी मुश्किलें आने लगी थीं।

..फिर वे दिन भी आए, जब परिवार में कलह शुरू होने लगी। अकसर बडी मां खर्च को लेकर झल्लातीं। कई बार बाहर वालों के सामने भी खर्च का ब्यौरा देने लगतीं। उनका मुख्य मुद्दा होता, बच्चों की पढाई पर होने वाला खर्च और सुनंदा दी की शादी। बडी मां के व्यवहार में आए इस अप्रत्याशित परिवर्तन ने धीरे-धीरे परिवार को बांटना शुरू कर दिया। सात बच्चों का भरा-पूरा वह परिवार धीरे-धीरे तीन छोटे-छोटे परिवारों में बंट गया था। लेकिन भैया और दीदी छुट्टियों में आते तो सारी दूरियां सिमट जातीं और वे फिर पहले जैसी मस्ती करने लगते।

आइआइटी के बाद भैया को आइएएस की परीक्षा देने की सूझी। पहली ही बार में उनका चयन हो गया। मध्यवर्गीय परिवार का बेटा आइएएस हो जाए तो माता-पिता के साथ ही आसपास वाले गर्व से भर उठते हैं। भैया के लिए रिश्ते आने लगे। फिर सुधा भाभी घर की बहू बन गई।

सारे भाई-बहन सुधा भाभी के आसपास मंडराते, मन ही मन सबने उन्हें अपनी टीम में शामिल कर लिया था। एक नई सदस्य के आगमन ने उन्हें प्रफुल्लित कर दिया, लेकिन एक छोटी सी घटना ने आहत भी कर दिया। सुनंदा दीदी का जन्मदिन था। सारे भाई-बहन जन्मदिन की तैयारियों में जुटे थे। भाभी बाजार से ढेर सारा खाने-पीने का सामान और दीदी के लिए सुंदर सी ड्रेस लेकर आई थीं। यह सब देख कर सुनंदा दी शर्माते हुए बोलीं, क्या मैं छोटी बच्ची हूं जो आप इतना सब कर रही हैं। इतना खर्च करने की क्या जरूरत थी?

एक ही तो ननद है मेरी, क्या उसके लिए इतना भी नहीं कर सकती? भाभी ने तो यह बात लापरवाह तरीके से बोली, लेकिन हम सभी बहनें इससे आहत हो गई। हमें लगा कि क्या भाभी हमें अपनी ननद नहीं समझतीं या फिर हमें पराया समझती हैं..। छोटी बहन भावना खुद को रोक नहीं पाई तो पूछ बैठी, भाभी, क्या हम आपकी ननद नहीं हैं? या फिर आप सिर्फ सुनंदा दी को ही ननद मानती हो?

भावना की बात पर सुनंदा दी ने झट से उठ कर उसे गले लगा लिया और बोलीं, अरे नहीं भावना, तुम तो सबसे लाडली ननद हो। वो तो मेरा मन रखने के लिए उन्होंने यह बात बोल दी। है न भाभी..?

..मगर भाभी की बात से सभी का मन ठंडा हो गया था। सोचती है तो लगता है, सब कुछ वैसा कहां होता है, जैसा हम सोचते हैं। रिश्तों का स्वरूप बदलता है। मगर उस समय यह बात समझ में नहीं आती थी।

समय के साथ-साथ बडे पापा और उनके बच्चों के बढते साम‌र्थ्य, रौब और दर्प ने उन्हें पहले की तरह नहीं रहने दिया था। मगर मयंक भैया राखी और भैया दूज पर सबसे मिलने जरूर आते। सुनंदा दी की शादी के बाद यह सिलसिला भी धीरे-धीरे टूट गया। वे सब भी बडे हो गए और प्रकृति के नियमों को समझने लगे। परिवार के बढते ही दूरियां तो आती ही हैं, यही कह कर मन को शांत कर देते।

ग्रेजुएशन करते ही पापा को उसकी शादी की चिंता सताने लगी थी। रेवा दी की शादी तक परिवार में थोडी एकता थी। पापा का बिजनेस भी ठीक था। बडे पापा और चाचा जी ने भी मदद की। लेकिन उसकी शादी तक स्थितियां बदल गई थीं। परिवार में टूटन आई तो इसका असर पापा के व्यापार पर भी पडा। उन्हें लगातार घाटा हो रहा था और बडे पापा ने खुद को बिलकुल अलग कर लिया था।

..वह भी युवा थी। कई जगह शादी की बात चलती, मगर दहेज की लंबी लिस्ट के चलते वहीं अटक जाती। काफी प्रयासों के बाद गौतम का रिश्ता आया। साधारण रंग-रूप और साधारण परिवार के गौतम एक बैंक में क्लर्क थे। लेकिन वह स्वाभिमानी और खुद्दार किस्म के व्यक्ति थे। उस परिवार में सुमेधा को भले ही आर्थिक मुश्किलें झेलनी पडीं, लेकिन प्यार और सम्मान वहां भरपूर मिला।

धीरे-धीरे सारे भाई-बहन अलग-अलग हो गए..। फिर ऐसा दिन भी आ गया कि रक्षा-बंधन पर एक ही शहर में होने के बावजूद भाई-बहन नहीं मिल पा रहे थे। उसके मन में दुविधा थी कि पति की बात काट कर भाई से मिलने जाए या राखी के दिन भी चुपचाप घर में पडी रहे। अंतत: उसने भाई के घर जाने का विचार छोड दिया और चुपचाप रात के खाने की तैयारी करने लगी। लेकिन मन भला कहां मानता है! न जाने क्यों आज रसोई में जाने-अनजाने वह मयंक भैया की पसंद का ही खाना बनाने लगी थी। उसने वे सारी डिशेज बनाई जो भैया को पसंद थीं। खाना बना कर किचन से निकलने वाली थी कि कॉलबेल ने चौंका दिया। इस समय कौन हो सकता है? यही सोचते हुए उसने दरवाजा खोला तो सामने मयंक भैया-भाभी को देख कर चौंक पडी। थोडी देर तो वह जैसे दरवाजे पर ही जड सी हो गई। उसकी खुशी का ठिकाना ही न रहा। इस अप्रत्याशित आगमन के लिए वह तैयार नहीं थी। आज सुबह से मन ने न जाने कितनी बातें सोच लीं, कितनी शिकायतें कीं, कितनी बार जाने के बारे में सोचा और फिर कितनी बार अपने ही विचार को काट दिया। मगर अब भैया सामने थे तो उसकी जुबां मानो सिल चुकी थी। किसी तरह उन्हें अंदर आने को कहा।

भाभी की बातों से उसकी तंद्रा टूटी। वह बोल रही थीं, सुमि, तुमने तो हद ही कर दी। एक ही शहर में होते हुए तुम्हें भाई से मिलने का मन तक नहीं किया? हम तो खैर यहां नए आए हैं। घर शिफ्ट करने में व्यस्त रहे, मगर क्या तुम्हें भी फुर्सत नहीं मिली? किसी तरह तुम्हारा पता लिया, तब यहां तक पहुंचे हैं।

सुमेधा भाभी की बातें भी वह नहीं सुन पा रही थी। उसके पैरों में तो जैसे पंख उग आए थे। तुरंत राखी का थाल सजा कर आ गई। मयंक भैया को इतने सालों बाद राखी बांध कर उसे असीम सुख का अनुभव हो रहा था। तभी भाभी ने उठ कर उसे साडी का एक पैकेट थमा दिया, जिसे वह श्रद्धा से अपने हाथों में थामते हुए सोच रही थी, काश, पुराने दिनों को भी यूं ही किसी गिफ्ट की तरह थामा जा सकता। थोडी देर की दुविधा के बाद वह फिर से मस्ती वाले पुराने दिनों में लौट गई थी। पूरे अधिकार से बोली, भैया आज मुझे आपके इस उपहार से इतनी खुशी मिल रही है कि मैं बता नहीं सकती। मेरी जिंदगी का ये सबसे प्यारा पल है। इस पल ने मेरे बीते हुए कल और आज के बीच बनी दूरी को पाट दिया है। भगवान से यही मांगती हूं कि ये पल आगे भी हमारे बीच प्यार और स्नेह के बंधन को मजबूत बनाए रखें..।

थोडा रुक कर वह फिर बोली, मैं मानती हूं भैया कि जैसे-जैसे हम बडे होते हैं, हमारी जिम्मेदारियां बढती हैं, नए रिश्ते बनते हैं और अपने-अपने परिवारों की जिम्मेदारियां निभाते-निभाते हम कहीं खो जाते हैं। जन्म से जुडे हमारे रिश्ते भी हमसे धीरे-धीरे दूर होने लगते हैं। यही कारण है कि आज हम सारे भाई-बहन अपने-अपने परिवारों के साथ छोटी-छोटी इकाइयों में बंट गए हैं, जिससे प्रेम के धागे कमजोर पडने लगे हैं। भैया आज राखी के दिन आपसे यही मांगती हूं कि परिस्थितियों को अपने मन की लाचारी मत बनने देना, ताकि उम्र भर हमारा प्यार-स्नेह और विश्वास बना रहे, इसे हम कभी न भूलें और न कभी कमजोर पडने दें..।

उसकी बातें सुनकर भैया तो हंस ही पडे थे, अरे.. तू तो सचमुच बडी सयानी हो गई है सुमि, मगर तू यह नहीं समझ सकी कि अगर प्यार की डोर कमजोर होती तो मैं आज के दिन इस तरह भागा-भागा और इतनी रात गए तेरे पास क्यों आता? देखो सुमि, आज जीवन की आपाधापी में हम चाहे कितने भी व्यस्त हो गए हों, मगर विदेशों की तरह हमारी पारिवारिक व्यवस्था इतनी नहीं बदली है और न ही हमारी सोच को समय ने बदला है। हमारे संस्कार इतने भी कमजोर नहीं हैं कि जन्म से जुडे प्यार के धागे छोटी-छोटी बातों पर टूट जाएं।

खाना खाते-खाते अचानक भैया बोल पडे, देख रही हो सुधा..मेरी बहन को नहीं मालूम था कि मैं आऊंगा, इसके बावजूद सारा खाना मेरी पसंद का बना है। यह इस बात का प्रमाण है कि मेरी बहन ने आज मुझे कितना याद किया होगा। सुमेधा जैसी बहन हो तो किसी को कोई दुख-दर्द छू भी नहीं सकता।

भैया की बातें सुन कर उसकी आंखें नम हो आई। उस दिन जाते-जाते जब भैया-भाभी ने सिर पर हाथ रखा तो ऐसा लगा मानो सारे जहां की खुशियां सिमट कर उसके भीतर समा गई हों..।

रीता कुमारी


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