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राखी

कई बार घृणा के माहौल में भी स्नेह के रिश्ते पनप जाते हैं। बंटवारे से उपजी हिंसा, खून-खराबे और नफरत के बीच जन्मा ऐसा ही अनूठा रिश्ता, जिसने भाई-बहन के प्यार को नई परिभाषा दी, साथ ही राखी के महत्व को भी अमर कर दिया।

By Edited By: Published: Fri, 02 Aug 2013 12:24 AM (IST)Updated: Fri, 02 Aug 2013 12:24 AM (IST)
राखी

कई बार घृणा के माहौल में भी स्नेह के रिश्ते पनप जाते हैं। बंटवारे से उपजी हिंसा, खून-खराबे और नफरत के बीच जन्मा ऐसा ही अनूठा रिश्ता, जिसने भाई-बहन के प्यार को नई परिभाषा दी, साथ ही राखी के महत्व को भी अमर कर दिया। उर्दू साहित्यकार सादि कुरैशी की मार्मिक कहानी, हिंदी अनुवाद किया है सुरजीत ने।

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कमला का पत्र मुद्दत बाद मिला है। लिखती है, दो महीने तक बीमार थी, इसलिए खत लिखने में भी देरी हो गई.., काश मैं उसका इलाज कर पाता। उसका घर मेरे घर के सामने गली के पार था। मैं नि:संकोच उसके यहां जाता, हाल पूछता, दवा देता और उसे निरोगी बनाता।

जिस घर में कमला रहती थी, वहां अब पीलीभीत के सैयद लोग रहते हैं। दस-बारह वर्ष से वे मेरे पडोस में आबाद हैं, पर मुझे उनका नाम भी ठीक से मालूम नहीं। उनके छोटे-छोटे बच्चे अब जवान हो गए हैं। पहले वे खालिस उर्दू बोला करते थे, अब धीरे-धीरे पंजाबी में बात करने लगे हैं।

एक दिन उनका एक बच्चा बीमार था तो उन्होंने मुझे बुलाया। ड्योढी में दाखिल  होते ही दायीं ओर बैठक है। कई दशक पहले मैं कमला के साथ यहीं खेला करता था। इस सफेद छत, लाल फर्श और पीली दीवार से मैं परिचित था। हालांकि मुद्दत से ये चीजें मेरे लिए अजनबी बन चुकी हैं। लेकिन बच्चे को देखते हुए मैं अपने बचपन की कल्पना करने लगा था। मैं इस दरवाजे के पीछे छुप जाता था। कमला ढूंढने आती तो अलमारी के पीछे झांकती। मैं दबे पांव बाहर निकलता। वह बैठक का कोना-कोना छान मारती। मैं न मिलता तो वह हार मान लेती और मैं कहकहा लगाकर अंदर दाखिल  हो जाता..।

मन अनमना सा हो आया। मैंने जल्दी-जल्दी नुस्खा लिखा और फिर क्लिनिक जाने के बजाय घर आकर लेट गया। मस्तिष्क के पर्दे पर यादों की फिल्म चल रही थी। अब एक रंगीन फिल्म सामने थी- कमला ने नए शोख  रंग के कपडे पहने थे। उसके घर में अन्य बच्चे भी जमा थे। सभी तितलियों की तरह रंग-बिरंगे कपडे पहने थे। यह रक्षा-बंधन का त्योहार था। कमला अपने भाई राज को राखी बांध रही थी। मैं भी वहीं खडा था। भोलेपन से मैंने भी हाथ आगे किया, मेरे भी राखी बांधो न! ऐसी ही सुर्ख  और चमकदार राखी। मैं भी तो तुम्हारा भाई हूं।

मगर.. मगर.. कमला से कोई उत्तर न बन पडा तो उसकी एक सहेली बोल पडी, मगर तुम तो मुसलिम हो, तुम्हें कैसे राखी बांधें?

..इस बात पर मैं सारे दिन कमला से नाराज रहा। फिर मान भी गया। बचपन का रूठना-मान जाना बडा दिलचस्प होता है। अब रूठते हैं तो सामने वाले से अपेक्षा रखते हैं कि वह हमसे माफी मांगे। इसमें लंबा वक्त लग जाता है, लेकिन उस समय रूठते तो तुरंत मान भी जाते थे।

..घटना के अगले ही दिन हम सब भूल कर फिर से खेल रहे थे। कुछ साल और बीते। मैं लाहौर के मेडिकल कॉलेज  में पढने चला गया। छुट्टी के दिन लाहौर से शेखपुरे  आता। समय मिलता तो कमला के घर भी जाता। उसके पिता की परचून की दुकान शहर में मशहूर थी। कमला भी अब युवा हो चुकी थी। उसका सुर्ख-सफेद चेहरा अब भी मेरी आंखों के सामने फिरता था। बडी-बडी आंखें, लंबी-सी नाक, होठों पर हर समय मुस्कराहट..। राज ने लाहौर में दुकान खोल ली थी। मैं उसे कहता था, राज भैया, दवा की दुकान खोलो। मैं डॉक्टर बनूंगा, सारे रोगियों को तुम्हारी दुकान पर भेज दिया करूंगा। खैर,  ऐसा नहीं हो सका। राज ने कंघी, शीशे, रूमाल,  जुराब  की दुकान खोली। कॉलेज  में फैशनेबल लडकों की भरमार थी। मैं भी तरह-तरह की चीजें वहां से खरीदता रहता था।

एक रविवार मैं लाला चेतराम की दुकान पर बैठा था तो वे बताने लगे, यार शैदे,  अब तो सुना है कि लाहौर में भी फसाद का खतरा  है। आज का मिलाप पढा तुमने?

वे मुझे बचपन से ही शैदे पुकारते, हालांकि मैं अब ए.आर. बट था अब्दुल रशीद बट। थर्ड ईयर एम.बी.बी.एस.। मैंने टाई की गांठ ठीक करते हुए कहा, जी, खतरा तो है, मगर अखबार वाले बढा-चढा कर खबरें  देते हैं।

फिर कॉलेज  बंद हो गया। शहर की फिज्ा मलिन होने लगी और दुकानों-मकानों को आग लगाने और बेकसूरों को छुरे घोंपे जाने की घटनाएं आम होने लगीं।

मैं लाला चेतराम की दुकान पर बैठा अखबार पढ रहा था। जून 1947 का तीसरा सप्ताह था और मैं बोल रहा था, लाहौर में तो अब आठ-दस मकानों को आग लगाई जाए और पांच-छह आदमियों को छुरे घोंपे जाएं तो अखबार  लिखते हैं कि आज कोई खास  घटना नहीं हुई। फसादों के शिकार आमतौर पर अजनबी और बेगुनाह लोग होते हैं। अजीब जमाना आ गया है..। मगर शैदे, यह कलियुग है। देश का बंटवारा शांति से नहीं होगा। समझ नहीं आता कि फसाद किसलिए है?

दो दिन बाद मैं लाहौर गया हॉस्टल से अपना सामान लेने। मुझे अच्छी तरह याद है, जून की 23 तारीख थी। शाह आलमी की ओर से गुजर रहा था, तो अलामान हफीज पुकार उठा। आकाश-भेदी इमारतें राख में मिल रही थीं और आग भडक रही थी। यह लाहौर का सबसे बडा व्यापारिक केंद्र था, यहां रोजाना लाखों का क्रय-विक्रय होता था। यहां मंडी राख और मलबे के ढेर में दबी जा रही थी।

लाला चेतराम ने शाह आलमी की तबाही का हाल मेरे मुंह से सुना तो उनकी आंखों में आंसू छलकने लगे। शाम को कमला के घर भी गया। वह और उसकी मां उदास सी बैठी थीं। मैंने उन्हें सांत्वना दी कि फसाद सुलझेंगे और शांति कायम होगी। बादशाही बदलते समय ऐसा हुआ करता है, मगर ये सब कुछ समय के लिए होता है। भगवान ने चाहा तो जल्दी ही हिंदू-मुसलिम फसाद खत्म  होगा और एक बार फिर से दोनों भाईचारे के साथ रहने लगेंगे।

कमला ने मेरी ओर देखा। वह चुप थी, किंतु उसका मौन हृदय मानो कह रहा था क्या सचमुच ऐसा होगा? आखिर  वही हुआ, जिसकी लाला चेतराम को आशंका थी। देश की राजनीतिक स्वाधीनता के साथ ही हर व्यक्ति ानून और नैतिकता के बंधन से भी मुक्त हो गया। अफरातफरी के समय लाहौर से सूचना मिली कि मेडिकल कॉलेज के छात्रों को कैंपों में काम करने के लिए बुलाया गया है। मैं लाहौर पहुंचा और सीमा पर शरणार्थियों के लुटे-पुटे काफिलों को मेडिकल सहायता देने में व्यस्त हो गया।

शरणार्थियों के असंख्य काफिले जा रहे थे। सबके होठों पर एक ही फरियाद थी। सब अत्याचार और लूटमार का शिकार बनकर आ रहे थे। किसी का भाई तो किसी की बहन नहीं। जख्मी लोग दर्द से कराह रहे थे।

एक दिन शाम को एक बडे मियां की जख्मी  बांह पर पट्टी बांध रहा था। वह कह रहा था, बाबूजी, मैं लुट गया। वे मुझे जान से मारने लगे थे.., वह रुक-रुक कर मुश्किल से बात कर रहा था, बाबू जी मेरी तालजा  जालिमों ने छीन ली। जवान बेटी थी..।

उसकी बीवी बेटी का नाम सुनते ही चीख मार कर रोने लगी। ऐसे किस्से मैं पहले भी सुन चुका था, लेकिन उस बूढे-बुढिया का विलाप सुन कर मैं न जाने क्यों असाधारण रूप से परेशान हो उठा। मेरी आंखों के आगे कमला की तसवीर उभर गई। शेखपुरे से आते समय मैं उससे मिल कर आया था। न जाने उनका क्या हाल हुआ?

मैंने रात बडी परेशानी से गुजारी। रात के अंतिम पहर जरा-सी आंख लगी तो महसूस हुआ जैसे कमला की मां चीख रही है। हडबडा कर उठा तो देखा तालज्ा की मां चीख रही थी। शायद वह अपना मानसिक संतुलन गवां बैठी थी। मैं उसी समय उठा और बिना छुट्टी लिए वहां से भाग कर शेखपुरे के निकट पहुंचा। वहां हिंदुओं का काफिला आ रहा था। वे भी फरियाद कर रहे थे। जरा आगे बढा तो फरियाद करने वालों में लाला चेतराम भी मिल गए। लाल चेतराम, राज, राज की मां..सभी.., मगर कमला?

कमला कहां है? मैंने व्याकुलता से पूछा। वे फूट-फूटकर रोने लगे, कमला को गुंडों ने उठा लिया।

मैंने आंसुओं को रूमाल  से छुपा कर मुश्किल से अपना रुंधा हुआ गला साफ किया और उनसे कहा, आप लोग रोएं नहीं। ईश्वर पर भरोसा रखें, मैं कमला की तलाश करूंगा।

बशर्ते वह कहीं जिंदा हो, चेतराम ने क्षीण-से स्वर में कहा।

गंडाराम की लडकी को भी गुंडों ने उठा लिया था। सुना है उसका कत्ल हो गया.., कमला की मां दहाड मार कर रोने लगीं। मुझे अब कुछ नहीं सूझता था। खाना खाने बैठा तो कमला की मां के शब्द हाय, मेरी कमला., मेरे मुंह और कौर के बीच दीवार बन कर खडे हो गए। अगर ज्िांदा हुई तो भी इतनी सहम चुकी होगी कि निर्जीव ही हो चुकी होगी। ..सचमुच कमला जिंदा थी। मैंने उसी शाम उसका सुराग लगा लिया। मोहल्ले के एक लडके नूरा के साथ शहर में घूमता रहा। आखिर में उस ठिकाने का पता चला, जहां कमला को रखा गया था। सुबह होने से पहले-पहले मैं वहां से चलकर कैंप जा पहुंचा। वहां मेरे साथ एक थानेदार ड्यूटी पर था। वह मेरा दोस्त बन गया था। उसने मुझे देखते ही कहा, क्या बात है डॉक्टर, बहुत परेशान नजर आ रहे हो? खैरियत  तो है?

मैंने उसे सारी कहानी सुनाई और निवेदन किया कि किसी तरह कमला को गुंडों के कब्जे  से छुडाएं।

अब हम दोनों शेखपुरे  पहुंचे। मैं रास्ते में उससे प्रश्न करता जा रहा था, क्या करोगे? किस तरह उन पर हाथ डालोगे? वह तुम्हारा इलाका तो नहीं है? पहले थाने जाओगे? तुमने तो एक ही दिन की छुट्टी ली है। ऐसे कामों के लिए तो ज्यादा  वक्त चाहिए..

वह जवाब देने के बजाय कहीं खोया हुआ था। कभी-कभी चौंककर कहता, बस कुछ न कुछ जरूर  करूंगा। खुदा  ने चाहा तो एक ही दिन में काम पूरा हो जाएगा।

हम सीधे सिराज के पास पहुंचे। थानेदार ने बात शुरू की, मैं बॉर्डर  से आ रहा हूं। हमें मुखबिर से सूचना मिली है कि तुम लोगों के पास कुछ गैर-मुसलिम  लडकियां हैं। मैं तुम्हारे भले के लिए आया हूं। रात में यहां मिलिट्री का छापा पडेगा। मुसलमान और हिंदू दोनों किस्म की मिलिट्री होगी। लडकियों के साथ उनके अगवा करने वालों को पकड कर हिंदुस्तान पहुंचा दिया जाएगा। कल हमारे कैंप में पचास-साठ मुसलमान लडकियां और इतने ही गैर-मुसलिम गुंडे लाए गए। ये लोग यहां नजरबंद रहेंगे और उस समय तक बंद रहेंगे जब तक वहां से सारी अपहृत औरतें न आ जाएं?

थानेदार बहुत राजदारी में यह बात कह रहा था। उसका दांव चल गया। सिराज ने कुछ हील-हुज्ज्ात के बाद लडकी को थानेदार के सुपुर्द करने का निश्चय कर लिया।

कमला आई तो मैं उसे पहचान भी न सका। उसकी आंखें बुरी तरह सूजी थीं और चेहरा पीला हो चुका था। वह मुझे देखते ही हिचकियां  ले-लेकर रोने लगी। मैंने उसे सांत्वना देते हुए कहा, बस, अब तुम्हारी मुसीबत खत्म  हो गई कमला बहन। अब मैं तुम्हारी हिफाजत के लिए आ गया हूं।

रात थानेदार कमला को हमारे घर छोड कर अपने किसी रिश्तेदार के पास चला गया। प्रोग्राम यह था कि सुबह-सुबह वह आएगा और फिर हम तीनों बॉर्डर को चल देंगे।

सिराज और उसके साथी टोह में थे। देर रात गए, बहुत-से गुंडे हमारे घर आ धमके। पहले तो मैं घबरा गया, लेकिन जल्दी ही खुद  को संभाल कर हालात का मुकाबला करने के लिए तैयार हो गया।

थानेदार के जरिये इसे निकाल कर अब अपने घर में रख रहे हो। हमें तुम्हारे संबंध का पहले से पता है और तुम्हारी यह चाल कामयाब न होगी। निकालो उसे बाहर.. कहां है वह? सिराज चीखा।

वह मेरी बहन है। मैं उसकी हिफाजत का जिम्मा ले चुका हूं। उसे तुम्हारे हवाले नहीं कर सकता। जो जी चाहे, कर लो।

क्यों खामख्वाह  अपनी जान के दुश्मन बन रहे हो डॉक्टर। खून  हो जाएगा और तुम जानते हो, आजकल खून पानी से सस्ता है.., सिराज ने आंखें निकालते हुए कहा।

मुझे जान की परवाह नहीं..

हमें तुम्हारी जान नहीं चाहिए, यह लडकी चाहिए। जल्दी करो, वरना हम दरवाजा तोडकर अंदर दाखिल हो जाएंगे, एक गुंडे ने लाठी जमीन पर मारते हुए कहा।

हालात बेहद खतरनाक थे। दो-तीन गुंडों ने मुझ पर हमला कर दिया। वे मुझे खींच कर गली में ले आए। मैंने किसी तरह खुद को छुडाया, लेकिन इस खींचातानी में मेरे सिर पर काफी चोट आई। मैं तिलमिला कर नीचे गिर गया। मैंने देखा कि गुंडों में एक स्थानीय पुलिस इंस्पेक्टर का भाई और मेरा पडोसी नियाज्ा भी था। उसने मुझे पहचान लिया तो झट से पुलिस को बुलाया। किसी तरह यह हंगामा थम सका। रात भर एक सिपाही ने मेरे दरवाजे पर पहरा दिया।

आधी रात मैं अंदर गया तो कमला सहमी हुई बेचैनी से मेरी राह देख रही थी।

कमला, तुम अब भी सहमी हुई हो?

उन लोगों की बातें मैंने सुनी हैं। सिराज मेरा पीछा नहीं छोडेगा।

तो मेरी बातें भी तुमने सुनी होंगी?

सब कुछ सुना है। ये गुंडे उस दिन भी यही बातें कर रहे थे, जब उन्होंने हमारे घर पर हमला किया था। सिराज ने मुझे घसीट लिया। मेरा भाई राज रोने के सिवा कुछ न कर सका। मुझे पता है, ये गुंडे फिर आएंगे। मुझे ले चलो, अभी ले चलो, सुनो बाहर फिर से शोर हो रहा है..।

..कमला बहुत डर चुकी थी। फिर पूरी रात हमने जाग कर बिताई। सुबह-सुबह थानेदार आया तो हम जल्दी तैयार होकर दिन चढने से पहले बॉर्डर पर पहुंच गए। जब हमने कमला को बॉर्डर पर हिंदू सैनिकों के हवाले किया तो मुझे यों महसूस हुआ, जैसे मैं एक भारी दायित्व से मुक्त हुआ हूं।

इसके बाद कमला अपने परिवार से कैसे मिली, वह भी एक लंबी कहानी है.., ये पूरी कहानी उसने बाद में मुझे खत लिखकर सुनाई थी। ...फिर कुछ दिनों बाद ही अगस्त महीने में राखी का त्योहार आ गया। इस दिन मुझे कमला का एक पार्सल मिला। खोल कर देखा तो उसमें सुर्ख रंग की एक राखी थी। उसके साथ एक पत्र भी था, माफ करें, मैं यह राखी खुद आपको नहीं बांध सकी। मगर आप मेरी ओर से खुद इसे अपने हाथ में बांध लीजिएगा। रक्षा-बंधन में तो बंधन पहले होता है और रक्षा बाद में। मगर मेरे लिए तो रक्षा पहले आई और बंधन बाद में। अब तो यह नन्हा-सा पार्सल हर साल मेरे लिए हिंदुस्तान से आता है और पूरे साल मुझे इसका इंतज्ार रहता है..।

सादिक ़कुरैशी


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