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जिद

कभी-कभी एक व्यक्ति की निरर्थक ज़्िाद परिवार की ख़्ाुशियों पर ग्रहण लगा देती है। मां बनना हर स्त्री का सपना होता है, मगर कोई स्त्री मां न बन सके तो क्या उसे यह अधिकार भी नहीं है कि किसी अनाथ बच्चे को अपना बना सके ! ऐसी ही स्थिति से गु•ारने वाले दंपती नेहा-प्रभात ने जीवन भर बड़ों की राय का सम्मान किया लेकिन अंत में अपनी ज़्िांदगी को एक नए म़कसद से भी जोड़ दिया।

By Edited By: Published: Thu, 01 Nov 2012 02:49 PM (IST)Updated: Thu, 01 Nov 2012 02:49 PM (IST)
जिद

उद्देश्यहीन भटकाव अंदर-बाहर। कभी पार्क की तरफ देखती हूं तो कभी अंदर आकर टीवी देखती हूं। मन किसी काम में लग ही नहीं रहा, मानो किसी ने सारी शक्ति निचोड ली है। जी में आ रहा है कि चीख-चीख कर रोऊं, चिल्लाऊं कि किसके लिए जी रही हूं? इस बडे से घर का सन्नाटा मुझे भयावह लग रहा है। बच्चे पार्क में खेल रहे हैं। रोज्ा  शाम मैं उन्हीं को देखकर मन बहलाती थी। बच्चों को लेकर उनकी मां आतीं, कभीकभार पिता भी आते हैं। उन्हें देख कर दिल को सुकून मिलता था, लेकिन आज पता नहीं क्यों कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है। दुनिया जैसे एक छलावा है। कभी-कभी किसी एक व्यक्ति की ज्िाद परिवार को कैसे प्रभावित करती है, इसका जवाब देने के लिए आज अम्मा नहीं रहीं। वह चली गई मुझे एक विशाल ख्ामोश  घर के साथ अकेला छोड कर। उनकी ज्िाद  की वजह से मैं आज इस स्थिति में हूं। उन्होंने तो शायद सोचा ही नहीं होगा कि उनके जाने के बाद मेरा क्या होगा। सोचा होता तो इस घर में भी रौनक होती। शादी के पच्चीस साल होने जा रहे हैं, लेकिन मातृत्व सुख से वंचित हूं। मन में एक हूक सी उठती है। काश कोई मेरा भी होता जो मां कहता और मुझसे लिपट जाता। जिसकी एक हंसी में मुझे सारी दुनिया हंसती दिखाई देती और जिसकी आंखें नम होतीं तो मैं रोने लगती।

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..पीछे देखती हूं तो ख्ाुद को ख्ाुशमिज्ाज लडकी के रूप में देखती हूं। ससुराल आते ही मैंने सबका मन मोह लिया था। यहां बस चार लोग थे। जबकि मैं एक बडे परिवार से आई थी। तीन बहनें, एक भाई और ताऊ जी का परिवार। हम बहनों की आपस में ख्ाूब बनती थी। हर छुट्टी पर रिश्तेदारों के बच्चे भी रहने आ जाते। भरे-पूरे परिवार में रहने की आदत थी। ससुराल आई तो मन ही नहीं लगता था। यहां सिर्फ सास, ससुर, पति और मैं। ससुर उच्च अधिकारी थे और प्रभात इकलौती संतान। शायद इसीलिए उन्हें लाड-प्यार से रखा गया। अम्मा कहती थीं, उनकी इच्छा थी कि उन्हें दो-तीन बच्चे हों, लेकिन ऐसा न हुआ।

शादी के एक-दो साल तो हंसी-ख्ाुशी में गुज्ार गए। धीरे-धीरे सहेलियों, रिश्तेदारों की गोद भरने लगी, कुछ सहेलियां तो दूसरे बच्चे की तैयारियां करने लगीं, लेकिन मेरे यहां कोई अच्छी ख्ाबर नहीं थी। तब कहीं जाकर अम्मा का दिमाग्ा ठनका।

फिर जो सिलसिला शुरू हुआ, वह कुछ ही समय पहले थमा है। हम डॉक्टरों के पास दौडने लगे। ज्योतिषियों से लेकर सारे गुरु-महाराज तक के पास अम्मा चली गई। दूसरी ओर मैंने धीरे-धीरे ख्ाुद को समाज से काट लिया। जहां भी जाती, लोगों का सवाल होता, नेहा, ख्ाुशख्ाबरी नहीं सुना रही हो? अंत में मैंने निर्णय लिया कि हम एक बच्चे को गोद लेंगे। मैंने प्रभात को समझाने की कोशिश की कि हम बच्चा नहीं पैदा कर सकते, पर किसी अनाथ बच्चे को गोद तो ले सकते हैं। प्रभात राजी हो गए। तय हुआ कि अगली सुबह अम्मा-पापा को बता कर शहर के अनाथ आश्रमों में चलेंगे। मैं कल्पनालोक में उडान भरने लगी। सोचती थी एक लडकी गोद लूंगी। उसके लिए ढेर सारे सुंदर कपडे ख्ारीदूंगी। लेकिन नियति ने शायद कुछ और सोच रखा था। सुबह मैंने घरेलू काम जल्दी-जल्दी निपटाए और अम्मा की पूजा समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगी। एक-एक क्षण भारी लग रहा था। डर भी रही थी कि कहीं अम्मा ने मना कर दिया तो! घर में उन्हीं की चलती थी। बाबूजी व प्रभात उनकी बात का विरोध नहीं कर पाते थे। अम्मा पूजा घर से बाहर निकलीं। उनके चेहरे पर चिंता की झलक थी। उन्होंने मेरे चेहरे को भांप लिया। मैंने सबको चाय दी और प्रभात की तरफ देखा ताकि वह बात शुरू करें। प्रभात के चेहरे पर असमंजस के भाव थे। शायद सोच रहे हों, कहां से बात शुरू करें। फिर उन्होंने गला खंखारते हुए कहा, अम्मा, हम सोच रहे हैं कि अब देरी करने के बजाय हम बच्चा गोद ले लें। प्रभात के इतना कहते ही मानो घर में सन्नाटा पसर गया। अम्मा ने बिना मुझे बोलने का मौका दिए अपना निर्णय सुना दिया, नेहा, कान खोलकर सुन लो, इस घर में बच्चा आएगा तो वह तुम्हारी कोख से जन्मा होगा। अनाथ आश्रम से इस घर में बच्चा नहीं आएगा। प्रभात, तुम्हारे पिता भी इकलौती संतान थे, तुम भी इकलौते हो। मेरा अटूट विश्वास है कि तुम्हें भी एक बच्चा तो ज्ारूर होगा। बस उस परमपिता परमेश्वर और गुरु जी का विश्वास करो। यह मेरा अंतिम निर्णय है। मैं जीते जी अपना निर्णय को नहीं बदलने वाली.., बिना चाय को हाथ लगाए वह अपने कमरे में चली गई और दिन भर दरवाज्ा नहीं खोला। हम तीनों उन्हें आवाज्ा देते रहे। हर बार कमरे से जवाब आता, मैं ठीक हूं, मुझे अकेला छोड दो।

घर का माहौल दमघोंटू हो गया। उस दिन किसी ने कोई बातचीत नहीं की, न खाना खाया। शाम को अम्मा कमरे से निकलीं। पूजा घर में आरती की और फिर ड्राइंग रूम में आई। हमें बुलाकर बोलीं, प्रभात-नेहा, तुम दोनों मुंबई जाओ और वहां फिर से सारे टेस्ट करा लो। टेस्ट ट्यूब बेबी के लिए भी कोशिश करके देखो। किसी सही हॉस्पिटल  के डॉक्टर से मिलने का समय लेकर तुम लोग अपना ट्रेन रिज्ार्वेशन  करा लो। अम्मा अपने कमरे में चली गई। मैंने पापा की ओर देखा कि शायद वह कुछ बोलें, मगर वह सदा की तरह निरपेक्ष थे। प्रभात की चिंता, झल्लाहट चेहरे पर दिखने लगी थी। मेरी निग्ाहों  से बचने के लिए उन्होंने बाहर का रुख्ा कर लिया। मैं किसी तरह अपने कमरे में पहुंची। मन में आया कि चीख-चीख कर रोऊं, लेकिन संभ्रांत घर की बहू चिल्ला कर रो भी नहीं सकती। रात में प्रभात लौटे। पीठ थपथपाकर बोले, कितना रोओगी नेहा, अब चुप हो जाओ। उन्होंने मुझे अपनी बांहों में समेट लिया, तब जाकर मुझे लगा कि उनके अंदर भी कम हलचल नहीं है। मैं तो रो सकती हूं, वह पुरुष हैं, चाहें भी तो रो नहीं सकते।

अगली सुबह अम्मा जी ने हमारा फैसला पूछा तो प्रभात की चुप्पी टूटी। उन्होंने कहा, अम्मा आप जैसा कहेंगी-वही होगा। कुछ दिन बाद हम मुंबई आ गए। फिर से टेस्ट और दवाओं का दौर शुरू हो गया और अंतत:  वह दिन भी आया जब मुझे बेड रेस्ट दे दिया गया। अम्मा-पापा मेरा ध्यान रखते। मैं आशान्वित थी। दिन गुज्ार  रहे थे, लेकिन नियत समय पर आकर फिर भ्रम टूट गया। कोख ख्ाली रही।

समय हर ज्ाख्म  को भरता है। मैं वक्त से हारने वाली नहीं थी। मैंने ख्ाुद  को व्यस्त कर लिया। किताबें मेरी दोस्त थीं, लाइब्रेरी की मेंबरशिप भी ले ली। बच्चों को पेंटिंग सिखाने लगी। इस बीच एक दिन पापा को हार्ट अटैक पडा और वह दुनिया से कूच कर गए। अम्मा के लिए यह कहर था। घर की ख्ामोशियां और बढ गई। मगर अम्मा का निर्णय न बदला तो न बदला। हर बार कुछ नए टेस्ट होते मगर नतीजा सिफर रहा। उम्र निकलती गई। शानो-शौकत वाला घर खंडहर बनने लगा, मगर अम्मा की ज्िाद कायम रही।

..एक साल पहले अम्मा भी चली गई। कल उनका वार्षिक श्राद्ध हो गया। रिश्तेदारों के जाने के बाद मैं अकेली रह गई। प्रभात भी पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए, हर चीज्ा से निरपेक्ष हो गए हैं। उम्र इतनी हो गई है कि बच्चा गोद लेकर उसकी सही परवरिश के बारे में भी नहीं सोच पाती।

..लेकिन आज का दिन मेरे लिए कुछ ख्ास सौगात लेकर आया। प्रभात ऑफिस से आए तो उनके चेहरे पर अलग सी आभा दिखी मुझे। चाय पीने के बाद बोले, नेहा मैंने सोचा है कि हम ग्ारीब और अनाथ बच्चों के लिए स्कूल खोलेंगे। इन वंचितों को मुफ्त शिक्षा देकर अगर हम आत्मनिर्भरता की ओर बढा सके तो हमारे दिल का बोझ भी कुछ कम हो सकेगा। तुम व्यस्त रहोगी और बच्चों का भविष्य भी सुधर सकेगा..।

आज बरसों बाद प्रभात के चेहरे को अलग रौशनी में देख रही हूं। उनके चेहरे पर दृढ इच्छा और आत्मविश्वास है। मेरे दिल का बोझ उतरने लगा है। मैं नम आंखों के साथ कंप्यूटर की ओर बढ गई। स्कूल खोलना है तो उसकी रूपरेखा भी बनानी होगी न!


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