हाउस नंबर 302
कानों सुनी-आंखों देखी बात भी झूठ हो सकती है। कई बार आंखें कुछ देखती हैं और कुछ व्यक्ति की कल्पना शक्ति काम कर जाती है। ऐसा ही हुआ कहानी के नायक के साथ भी। आंखों ने कुछ देखा और दिमाग ने एक कहानी बुन ली, मगर सच्चाई एक दिन सामने आ गई। नायक को एक बड़ा सबक मिला, बिना सोचे-समझे कभी किसी के बारे में राय न कायम करो...।
कानों सुनी-आंखों देखी बात भी झूठ हो सकती है। कई बार आंखें कुछ देखती हैं और कुछ व्यक्ति की कल्पना शक्ति काम कर जाती है। ऐसा ही हुआ कहानी के नायक के साथ भी। आंखों ने कुछ देखा और दिमाग ने एक कहानी बुन ली, मगर सच्चाई एक दिन सामने आ गई। नायक को एक बडा सबक मिला, बिना सोचे-समझे कभी किसी के बारे में राय न कायम करो...।
हर दिन जब मैं कॉमन गैराज में गाडी पार्क करता हूं, अकसर एक खिडकी पर जाकर मेरी नजर टिक जाती है। वह खिडकी हाउस नंबर 302 की रसोई की लगती है, क्योंकि मुझे गैस का चूल्हा दिखाई पडता है। गैराज की सतह से किचन की सतह लगभग तीन सीढी की ऊंचाई पर होगी, इसलिए मुझे किचन का पूरा दृश्य दिखाई नहीं देता। लेकिन जिस कारण मेरी नजर हर दिन उस खिडकी की तरफ उठती रही है, उसका कारण है रात के साढे दस बजे रोज्ा एक भद्र पुरुष को गैस स्टोव पर सब्जी छौंकते हुए देखना। मैं लगभग रोज्ा इसी समय दफ्तर से घर लौटता हूं। पत्नी मेरे लिए गर्म फुलके बनाती है और मुझे गर्म खाना खिला कर परम सुख और आनंद का अनुभव करती है। यह बात वह मुझे गर्व से अनेक बार बता चुकी है। ऐसे में मुझे वह भद्र पुरुष याद आता और मैं सोचने लगता हूं, बेचारा कितना दु:खी है कि दिन भर मेहनत के बाद कोई उसे गर्म खाना खिलाने वाला भी नहीं है। न जाने क्या मजबूरियां होंगी कि वह एक खाना बनाने वाली भी नहीं रख सकता। जरूर इसकी पत्नी ने इसे छोड दिया होगा या दुनिया से ही चली गई होगी, वरना कौन आधी रात में सब्जी छौंकेगा या रोटी बनाएगा।
....दिन बीतने के साथ-साथ न जाने क्यों मेरी उस भद्र पुरुष में दिलचस्पी बढती जा रही थी। मैं उसके हाव-भाव पढऩे की कोशिश करता, लेकिन मुझे ठीक से कुछ भी दिखाई नहीं देता। अधिक देर तक वहां रुक कर मैं हंसी का पात्र भी नहीं बनना चाहता था, मगर जहन में रह-रह कर सवाल उठते। कहीं उसकी पत्नी अपाहिज तो नहीं या फिर इतनी बीमार रहती हो कि बेचारे को काम से लौटने के बाद खाना बनाना पडता हो। खाना बनाने, खिलाने और समेटने के बाद 12 बजे से पहले तो वह सो नहीं पाता होगा। फिर सुबह-सुबह काम पर जाता होगा। मैं सोचने लगता, मेरी पत्नी भी काम करती है, फिर भी कुछ ख्ार्चों पर हमें अपना मन मारना पडता है। आजकल एक की आमदनी में गुजारा कठिन है।
मन ही मन मैं प्रार्थना करने लगा कि हे भगवान इसकी पत्नी को स्वस्थ कर दो। पुरुष होने के नाते मेरा उससे भावनात्मक रिश्ता जुड गया। सोचता, यह पुरुष नाम का प्राणी किसी न किसी स्त्री पर निर्भर रहता है। स्त्री ही है, जो दैहिक-दैविक सुखों से पुरुष का साक्षात्कार करवाती है। मुझे लगता कि वह व्यक्ति मुझसे अधिक साहसी, धीर-गंभीर और परिपक्व विचारों वाला होगा, क्योंकि मैं शायद ऐसी परिस्थिति में पागल हो जाता।
क्या उस भद्र पुरुष की कोई संतान है? यदि है तो उसे भी स्कूल भेजना, टिफिन तैयार करना, ड्रेस प्रेस करना और होमवर्क भी करवाना होता होगा, यदि नहीं है तो हाय री उसकी किस्मत, गृहस्थाश्रम के महान कर्म, धर्म एवं आनंद से वंचित है बेचारा!
मेरी वैचारिक यात्रा रुकने का नाम नहीं ले रही थी। रोज मैं पिछले दिन की तुलना में अधिक उदास और थका-हारा घर लौटता। पहले तो मैं केवल उसे देखता और विचारों के झंझावात में फंसता था, लेकिन अब तो मुझे ऑफिस में भी उसी का ख्ायाल आता रहता कि वह क्या कर रहा होगा? उसने लंच किया होगा कि नहीं? घर जाते हुए क्या वह सब्ज्ाी भी ख्ारीदता होगा?
मेरी पत्नी ने तो सब्ज्ाी ख्ारीदने की ज्िाम्मेदारी भी अपने ऊपर ले रखी है। ऑफिस के काम के साथ-साथ वह घर के सारे छोटे-बडे काम फुर्ती, लगन, ख्ाुशी और सहजता से निबटाती है। उसने मुझे कभी एहसास नहीं होने दिया कि जैसे पैसा कमाने में वह मेरा साथ देती है, उसी तरह घर चलाने में मुझे उसका साथ देना चाहिए। सहसा मैं ख्ाुद को दुनिया का सबसे भाग्यशाली व्यक्ति समझने लगा। मगर अगले ही पल मेरा मन फिर से उस भद्र पुरुष की ओर मुड गया और मैं दुखी हो गया।
मेरी पत्नी से मेरा दु:ख देखा नहीं जा रहा था। व्यवहार-कुशल, हंसमुख, सबके स्नेह की स्वामिनी मेरी पत्नी ने आख्िार एक दिन हाउस नंबर 302 जाने का मन बना ही लिया। उसने मुझसे कहा कि रविवार को पोलियो ड्रॉप्स बंटने का दिन है। वह रोटरी संस्था की स्वयंसेविका बन कर उनके घर जाएगी और वास्तविकता का पता लगाएगी।
प्रिय पाठकों, आप शायद अंदाज्ाा भी नहीं लगा सकते कि जब मेरी पत्नी उनके घर से लौट कर आई और उसने मुझे विस्तार से वहां की राम-कहानी सुनाई तो क्या हुआ? वह जितने ज्ाोर से हंस रही थी, मैं उतने ही ज्ाोर से शर्म और हीनता-बोध जैसी भावनाओं में धंस रहा था।
कहानी कुछ इस प्रकार थी....।
हाउस नंबर 302 में पांच फुट दस इंच लंबे शालीन, सुसंस्कृत और स्वभाव से गंभीर िकस्म के डॉक्टर चौधरी अपनी सुंदर और आकर्षक डॉक्टर पत्नी शमिता के साथ रहते थे। उनका दो साल का एक प्यारा सा बच्चा भी था, जिसे दिन भर आया के पास छोड कर दोनों पति-पत्नी नर्सिंग होम जाते। बच्चा दिन भर अकेला रहता, इसलिए शाम को घर आने के बाद देर रात तक वे दोनों बच्चे के साथ खेलते रहते। जब बच्चा सो जाता तो किचन में घुसते और साथ मिल कर खाना बनाते। चूंकि पति को सब्ज्ाी काटनी नहीं आती थी, मगर वह सब्ज्ाी पत्नी से ज्य़ादा अच्छा बना सकता था, इसलिए वो सब्ज्ाी छौंकता था। आटा बीवी गूंधती थी और रोटी बेल कर देती, जिसे पति सेंक देता था। उनके किचन में गैस का चूल्हा जिस काउंटर पर था, उसके ठीक पीछे के काउंटर पर सब्ज्ाी काटने-आटा सानने का काम चलता रहता था, जो मुझे कभी दिखाई नहीं दिया....।
वह दिन और आज का दिन, ख्ाुदा ख्ौर करे, मैंने किसी भी मसले की गहराई में जाए बिना अपनी राय कायम करना छोड दिया है।
सुधा गोयल