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गजलें

कायमगंज, फर्रूख़्ााबाद (उत्तर प्रदेश) में जन्मे आलोक यादव की शिक्षा लखनऊ और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई। अब तक कई रचनाएं राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। आकाशवाणी-दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण, कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त। एक ग़्ाज़्ाल संकलन प्रकाशनाधीन।

By Edited By: Published: Mon, 01 Feb 2016 03:02 PM (IST)Updated: Mon, 01 Feb 2016 03:02 PM (IST)
गजलें
कायमगंज, फर्रूख्ााबाद (उत्तर प्रदेश) में जन्मे आलोक यादव की शिक्षा लखनऊ और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई। अब तक कई रचनाएं राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। आकाशवाणी-दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण, कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त। एक ग्ाज्ाल संकलन प्रकाशनाधीन।

संप्रति : क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त (कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, श्रम एवं रोजगार मंत्रालय, भारत सरकार), बरेली।

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1. बहाने यूं तो पहले से भी

थे आंसू बहाने के

तरीके तुमने भी ढूंढे

मगर हमको रुलाने के

तुम्हें ऐसी भी क्या बेचैनी थी

दामन छुडाने की

कि पहले ढूंढ तो लेते

बहाने कुछ ठिकाने के

मैं दिल की बात करता था

तुम्हें दुनिया की चाहत थी

तो मुझको छोडकर भी

तुम न हो पाए ज्ामाने के

बडी मुद्दत के बाद

हमें कल रात नींद आई

तेरी तसवीर रखी ही नहीं

नीचे सिरहाने के

मेरे दिल को यकीं है

लौट तो आओगे तुम लेकिन

मगर 'आलोक अब हरगिज्ा

नहीं तुमको बुलाने के।

2.

सुबह सवेरे अपने कमरे में जो देखा चांद

आधा जागा, आधा सोया, आंखें मलता चांद

बांध सितारों का गजरा इतराता रहता चांद

छत आंगन में फिरता रहता बहका-बहका चांद

तेरे रूप की उपमा मैं उसको दे तो देता

होता जो थोडा भी तेरे मुखडे जैसा चांद

कितने प्रेमी हर दिन झूठी शान की भेंट चढे

खापों-पंचों के निर्णय से सहमा-सहमा चांद

चंचल चितवन, मंद हास की किरणें बिखराता

मेरे घर, मेरे आंगन में मेरा अपना चांद

आखिऱकार पुरुष ही ठहरा हरजाई आकाश

अपने चांद की तुलना करता देख के मेरा चांद

सांझ ढली, पंछी लौटे, आ लौट चलें 'आलोक

बैठ झरोखे कब से देखे तेरा रस्ता चांद

3.

फिर आने का वादा करके पतझर में

हाथ छुडा कर चला गया वो पल भर में

सपने जो दिखलाए थे तुमने हमको

आंंखें अब तक ठहरी हैं उस मंज्ार में

छुअन मखमली, स्वप्न सलोने, बातें सब

अब तक लिपटे वहीं पडे हैं चादर में

दूर निगाहों की सीमा से हो फिर भी

आंखें तुमको ढूंढ रही हैं घर भर में

नयन लगे हैं अब तक मेरे राह पर

आ जाओ आ भी जाओ अपने घर में

आदिकाल से सभी मनीषी सोच में हैं

कितने भेद छुपे हैं ढाई आखर में

मन में कुछ-कुछ चुभता रहता है 'आलोक

थोडी सिलवट छूट गई है अंतर में।

4.

उसे जबसे पाया है खोने का डर है

कठिन ये बडी प्यार की रहगुज्ार है

उसे हंसाने की हर कोशिश हुई नाकाम

ख्ाुदा जाने क्यों वो उदास इस कदर है

फना जिसपे दिल हो न ऐसा कोई था

सही लाख तुझसे कहां तू मगर है

अजब मोड हैरत भरा आ गया ये

उधर है ख्ाुदा इस तरफ हमसफर है

कहे हैं मुझे लोग अब न जाने क्या-क्या

ये यार की सोहबत का 'आलोक असर है।


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