आज ही खुश रहो
बड़े सुखों के लिए छोटी-छोटी खुशियों को क्यों स्थगित किया जाए! हर लड़की के मन में चाह होती है कि शादी के बाद कुछ दिन पति का साथ मिले, नई जिंदगी की शुरुआत बिना हिचकिचाहट के हो। दोनों एक-दूसरे को समझें-जानें, ऐसा नहीं हो पाता तो ता-उम्र एक खलिश सी रह जाती है।
स्मिता! ये मैं क्या सुन रही हूं, तनु भी जा रही है विवेक के साथ? बडी दिद्दा पूछ रही थीं मुझसे। मैं अपने बेटे विवेक के जाने की तैयारियों में व्यस्त थी। घर अभी अस्त-व्यस्त ही था! दोनों ननदें, जिठानियां, चचिया, ममिया, मौसिया सासें, देवर का परिवार सभी थे, पर विवेक को छुट्टी कहां! उसे तो कल शाम निकलना था। अकेले जाता तो कोई बात नहीं थी, मगर तनु भी जा रही थी, इसलिए मुझे उस हिसाब से तैयारी करवानी थी! सच, लडके जब तक बैचलर रहते हैं, उनकी जिंदगी कितनी कम चीजों में चल जाती है, पर औरत के आते ही हर चीज की कमी खटकने लगती है।
मेरी चुप्पी ने दिद्दा को अधीर कर दिया। उन्होंने कयास लगाया कि यह योजना विवेक की बनाई हुई है और मैं आहत हूं।
ये आजकल के लडके भी न! अरे अभी साथ ले जाने की क्या जरूरत थी। कुछ दिन तो रह लेती यहां। फिर तो साथ ही रहना है..। मैंने प्रतिवाद किया, दीदी नेहा भी तो दूसरे ही दिन चली गई थी बंटी के साथ।
अरे, वो तो बंटी के साथ उसी कंपनी में जॉब भी करती है। दोनों को छुट्टी नहीं मिली थी। लेकिन तनु कौन सा नौकरी करती है? मुझे पता था दिद्दा को अपने इंजीनियर बेटे-बहू पर बडा अभिमान था। विवेक के लिए भी कई इंजीनियर, डॉक्टर, प्रोफेसर लडकियों के रिश्ते आए थे, मगर विवेक की जॉब देखते हुए हमने सबको मना कर दिया था। विवेक प्रशासनिक सेवा में था। बार-बार स्थानांतरण होता, कैसे मैनेज होता? मुझे कई बार लगता है, भागदौड की जिंदगी जीती आज की युवा पीढी वीकेंड पर भले ही मॉल और कैफे में जाकर अपनी जेबें खाली कर संतुष्टि तलाशती हो, पर सुकून का ग्राफ उनके जीवन से निरंतर घटता जा रहा है। कहीं न कहीं इसके मूल में वही सदियों पुरानी सामंतवादी सोच रही है कि जो कमाता है वही श्रेष्ठ है। मैंने अपने जीवन में इस सोच की त्रासदी भुगती थी, लिहाजा अपने बच्चों को बडी सावधानी से पाला था। बेटा-बेटी में फर्क नहीं किया। एक-दूसरे का सम्मान करना सिखाया था। मुझे नहीं लगता था कि तनु के नौकरी न करने से उसके आत्मसम्मान को कोई खतरा हो सकता था। तनु शिक्षित व काबिल थी, अच्छी कलाकार थी। मुझे पूरा विश्वास था कि कलाकार बनने के उसके सपने को पूरा करने में मेरा बेटा सहायक ही बनेगा, राह का रोडा नहीं। फिलहाल तो यह तनु का फैसला था कि विवाह के बाद कुछ साल वह पूरा समय इस नए रिश्ते को देगी।
स्मिता, कहां खोई है तू? दीदी ने मेरी चुप्पी का अर्थ शायद यह लगा लिया कि विवेक और तनु के बाहर जाने से मैं आहत हूं।
अरे, तू सास है उसकी, मना कर दे! कह दे अभी एक-दो महीने यहीं रहे तुम्हारे पास? मुझे हंसी आ गई। कमाल है? अभी तक मुझे बहू बनने की सीख मिलती रही थी, आज अचानक सास बनने की सीख मिलने लगी।
दीदी, मैं ही तनु को साथ भेज रही हूं।
तुम? दीदी चौंक कर बोलीं, क्यों भला? अरे कुछ दिन अपने पास रखतीं। थोडा सुख उठाती, सेवा करवातीं..
छोडिए न दीदी! अभी तो मैं ठीक -ठाक हूं, ईश्वर न करे कि कोई ऐसा मौका आए। अचानक मैं उदास हो गई थी। न चाहते हुए भी अपना समय याद आ गया। इन्हीं सब अपेक्षाओं का बोरा तो मेरे ऊपर भी लादा गया था। उम्र की सारी रौनकें जिम्मेदारियों के बोझ तले दब कर रह गई। जब सचमुच सेवा करने का वक्त आया तो न शरीर में शक्ति रह गई और न मन में हौसला। कैसे संभालेगी गृहस्थी भला ..? यहां रहती तो कुछ सीखती, दीदी मुझे कोंच रही थीं।
समय सब सिखा देता है दीदी। सबसे जरूरी है दोनों का एक-दूसरे को समझना। अभी तो दोनों ने एक साथ नए जीवन में कदम रखा है। इससे पहले दोनों की अलग-अलग दुनिया थी। एक-दूसरे की दुनिया को जानने के लिए साथ रहना जरूरी है न।
तुम और तुम्हारी फिलोसॉफी, शादी हुई है तो सारी जिंदगी साथ ही तो रहना है, दीदी के कहने में उनकी चिढ साफ सुनाई दे रही थी।
मैं चुपचाप दिद्दा के पास से उठ आई। कितना-कुछ समेटना बाकी था। तनु की भी पैकिंग करवानी थी। उसने पहले ही कहा था, अपनी अटैची मैं तभी ठीक करूंगी, जब मम्मी पास बैठी होंगी। मेरी चॉइस पर वह फिदा थी। चढावे के सामान की उसके मायके में बडी तारीफ हुई थी, उसने मुझे बताया था। उसके रिश्तेदारों में भी खुसपुस हुई थी, तनु की सास तो बडी नफासत-पंसद लगती है। क्या क्लासी साडियां और जेवर हैं, हालांकि मैं उसे कुछ टिप्स दे आई थी पैकिंग के। सलवार सूट, जींस-कुर्ती ज्यादा रखना, जो हमेशा कैरी करना आसान हो। भारी साडियों की जगह शिफॉन पर रेशम या सीक्वेंस वर्क वाली साडियां रखो, कुछ प्लेन और फ्लोरल शिफॉन साडियां भी रखना, ऑफिस पार्टीज में अच्छी लगेंगी। सीरियल की नायिकाओं जैसी भारी साडियां और लाउड मेकअप मत करना, विवेक सादगी-पसंद है और अफसरों के सर्कल में यह ठीक भी नहीं लगता।
मुझे पता था दिद्दा अपने संशयों के साथ घर के दूसरे सदस्यों से भी जूझ रही होंगी। सबके यही सवाल कि तुरंत तो शादी हुई है, अभी से तनु को विवेक के साथ क्यों भेज रहे हैं?
वही सारे सवाल.., 28 वर्षो में कुछ नहीं बदला। खुद के बेटे-बहू तो रिसेप्शन की रात को ही फ्लाइट पकडने एयरपोर्ट चले गए थे।
खिसियाई दीदी सबको सफाई दे रही थीं, दोनों बडी पोस्ट पर हैं न! एक ही कंपनी में कोई प्रेजेंटेशन देना था। वो तो बाद में बात खुली थी कि दोनों हनीमून के लिए मॉरिशस गए थे। अब मेरी बहू पति की नौकरी पर साथ जा रही है तो बातें बन रही हैं। पति भी कहां राजी थे। अभी क्या जरूरत है साथ जाने की? लोग क्या कहेंगे? लोग कुछ नहीं कहते, मुझे मालूम है अच्छी तरह। वो तो मैं ही अड गई कि तनु अभी जाएगी। मैं नहीं चाहती जो खलिश मेरे दिल को आज भी दुखाती है, उससे मेरी बहू भी गुजरे और पूरी जिंदगी मेरे बेटे को उलाहने सुनने पडें।
न चाहते हुए भी सब-कुछ याद आता चला जाता है। पढा-लिखा परिवार देख कर ही तो पापा ने यहां रिश्ता तय किया था। उन्हें यही लगा था कि पढे-लिखे सभ्य लोग हैं और किताबों से प्यार करने वाली उनकी बेटी यहां मान पाएगी। मैं भीतर से डरी हुई थी। पल भर में नया परिवेश, नया शहर, नया प्रांत। सिर्फ एक पति से अपनापन महसूस होता। कितना अद्भुत है न! पहले से कोई जान-पहचान नहीं, न कोई रिश्ता.., सिर्फ एक रात के रीति-रिवाज, मंत्रोच्चारण, अग्नि के इर्द-गिर्द फेरे और दुनिया के तमाम अनजानों में से कोई एक आपका सबसे अपना बन जाता है, मानो आप जनम-जनम से उसे जानते-पहचानते हों। हफ्ते भर बाद ही पति को नौकरी पर जाना था। सोचा, मुझे भी साथ ले जाएंगे, मगर वे अकेले चले गए, यह कहते हुए कि, यहीं रहो कुछ दिन, बाकी लोगों को समझो। मन खिन्न हो गया। विवाह के बाद नितांत अजनबियों के बीच गुजारे वह पंद्रह दिन अब भी याद आते हैं। कभी कुछ पढ लेती, टीवी देखने को तो तरस ही गई। घरवालों के प्रति भी मन में रोष था। पति हिचकिचा रहे थे तो क्या ये लोग खुद उनके साथ नहीं भेज सकते थे। जिसके साथ जीवन गुजारना है, उसे समझने के बजाय पहले पूरे परिवार के साथ एडजस्ट करो। पति के साथ ही सामंजस्य नहीं बैठा तो परिवार वालों को कैसे अपना बना लेती..!
खैर पंद्रह दिन बाद ही भाई लिवाने आ गए थे। मायके आकर लगा मानो मुद्दतों बाद ताजा हवा का झोंका मिला हो। जल्दी ही दूसरा धक्का भी लगा, जब दो महीने बाद ही पति ने बिना मुझसे सलाह लिए अपना ट्रांस्फर उसी शहर में करवा लिया। कारण यह कि उन्हें मां-बाप के पास ही रहना था। एक पल को तो लगा मानो पति के लिए मेरी अहमियत साथी की नहीं, सिर्फ सहूलियत भरे सामान की है। आहत हुई मैं। ससुराल में जो थोडा सा समय बीता था, उससे यह अंदाजा तो हो ही गया था कि मेरे स्वतंत्र व्यक्तित्व की यहां कोई अहमियत नहीं है। किचन से लेकर बगीचे तक मुझे सिर्फ एक कुशल परिचारिका की भूमिका अदा करनी है। शुरुआती दिनों की दूरी हमेशा पति के साथ रिश्तों में दूरी पैदा करती रही। कहीं भीतर से खीझ होती, उनका माता-पिता के बारे में हद से ज्यादा सोचना मेरे भीतर सास-ससुर के प्रति रोष पैदा करता था। कभी थोडी सी देर आराम करना चाहती तो पति तुरंत खटा देते, अरे देखो तो मां किचन में क्या कर रही हैं? जरा देख लो..। कभी-कभी मैं झल्ला उठती, अरे उन्हीं का घर है, कुछ भी कर रही होंगी। न साथ घूमना, न शॉपिंग, न बच्चों को घुमाना.., जिम्मेदारियों में ऐसी घिरी कि उम्र की सांध्य बेला तक पीछा न छूटा।
...अब भी वे बातें रह-रह कर टीसती हैं। क्या जीवन बार-बार मिलता है? यौवन लौटता है? मुझे तो आज तक यही लगता है कि पति और सास-ससुर ने तनिक भी समझदारी या व्यावहारिकता दिखाई होती तो जिंदगी यूं बोझिल न हुई होती। इसलिए अब मैं नहीं चाहती कि मेरे बेटे-बहू अपनी जिंदगी की शुरुआत किसी भी कडवाहट से करें। मैंने तो अनन्या के साथ मिल कर बेटे-बहू का सरप्राइज हनीमून भी प्लान किया था, पर ऐन मौके पर वह फ्लॉप हो गया। विवेक को ट्रेनिंग के बाद पहली पोस्टिंग पर जाना था, तुरंत चार्ज लेना था। तिलक से विवाह तक सिर्फ पांच दिनों की छुट्टी मैनेज कर पाया था वह। खैर.., जहां पति-पत्नी साथ रहें, वहीं हनीमून सही। मैंने तुरंत तनु को विवेक के साथ भेजने का निश्चय कर लिया था। पति ने आपत्ति दर्ज की, विवेक परेशान हो जाएगा, तनु को साथ क्यों भेज रही हो? अकेला आदमी कैसे भी रह लेता है, बहू भी साथ होगी तो उसकी जिम्मेदारियां बढ जाएंगी.., कैसे मैनेज करेगा?
सब हो जाएगा। कोई परेशानी होगी भी तो दोनों मिल-बांट कर संभाल लेंगे। बहू को साथ रखने में परेशानी है तो फिर इसने शादी ही क्यों की? और हां, विवेक के सामने अपनी ये अनिच्छा जाहिर न करना, बेचारा तनु को ले जाना कैंसिल ही कर देगा।
मम्मा कहां हो? आवाज लगाता विवेक मेरे सामने खडा था।
तुम्हारे जाने की तैयारी कर रही हूं।
मम्मा, तुम चाहो तो तनु को अभी रोक लो, उसे न ले जाऊं..,
बेटे के चेहरे पर दुविधा थी। मैंने काम छोड कर उसकी बांह पकडी और उसके कमरे में आ गई। तनु अपना सामान बेड पर फैलाए उत्साह से पैकिंग में जुटी थी। दबी हुई खुशी के साथ नए जीवन के प्रति उसका भय भी उसकी हडबड में साफ नजर आ रहा था।
चलो बैठो यहां, मैंने विवेक को बिठा दिया, फिर तनु की ओर मुखातिब होते हुए बोली, तनु! तुम्हारे पति महाशय कह रहे हैं कि अभी तुम्हें न ले जाएं तो..? एकाएक तनु का दिपदिपाता चेहरा बुझ सा गया।
सुनो विवेक, मुझे पता है कि तुम तनु को साथ ले जाने में घबरा रहे हो, पर सच-सच बताना, इसे यहां छोडकर तुम खुश रह लोगे? देखो बेटा, अकसर हम बडे सुखों के लिए छोटी-छोटी खुशियों को दरकिनार कर देते हैं। पहले यह हो-तब ऐसा करेंगे, पहले व्यवस्थित हो जाएं, तब घूमने जाएंगे, तब बच्चा पैदा करेंगे, छोटी-छोटी खुशियों के लिए कितनी बडी-बडी प्लानिंग होती हैं हमारी.., लेकिन इन खूबसूरत पलों को कभी कल पर मत टालना बेटा। आज जो सामने है, उससे जूझो और अपने लिए खुशी पैदा कर लो। और हां- पत्नी को परेशानी समझने की भूल मत करना। वह तुम्हारे सुख-दुख की साथी है..। मेरी आवाज गीली होने लगी थी। आंखों का पानी छुपाने के लिए मैं तेजी से उठ कर कमरे से बाहर निकल आई। बाहर आते हुए मेरे कानों में विवेक की अस्फुट सी आवाज पडी, ममा इज ग्रेट तनु, वह हमेशा मेरे मन की बात बिना कहे जान लेती है..।
सिर्फ तुम्हारी नहीं, सबके मन की बात., यह तनु की आवाज थी..।
सपना सिंह