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अलविदा

बोबो यूं तो एक पालतू कुत्ता था, मगर नंदू के दिल के इतना करीब था कि बोबो से दूर होने की कल्पना भी उसके लिए असह्य थी। इस पीड़ा से बचने के लिए नंदू ने एक फैसला ले लिया, जिससे घर के सारे लोग हतप्रभ रह गए..।

By Edited By: Published: Sat, 01 Feb 2014 02:18 PM (IST)Updated: Sat, 01 Feb 2014 02:18 PM (IST)
अलविदा

सुबह का अखबार, दूध के पैकेट्स सब दरवाजे पर ज्यों के त्यों हैं? मंदाकिनी आजकल सोसाइटी के पार्क में टहलने जाती है। उसे ध्यान रखने की जरूरत नहीं होती थी कि कब नंदू जागे और कब उसके प्यारे से पालतू बोबो को वॉक पर ले जाए। वह हर रोज अलस्सुबह बोबो को सैर करा कर वापस ले आता था। मंदाकिनी के लौटने तक घर सुव्यवस्थित हो जाता था।

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मगर आज तो नंदू का कोई अता-पता ही नहीं था। उसका दिल किसी अज्ञात आशंका से धडक उठा..। उसने नंदू के कमरे में एक बार फिर झांका, सब जस का तस था। नंदू..नंदू..! कोई जवाब नहीं आया। मंदाकिनी हर कमरे में झांक आई, बाहर भी देखा, मगर नंदू न मिला। न वह अपने कमरे में था, न बाथरूम में, न बाहर..। आखिर वह गया कहां? अंत में मंदाकिनी ने झिंझोडते हुए ललित को जगाया, ललित जल्दी उठो, देखो नंदू लापता है..। थोडी ही देर में पडोसी, दरबान, काम वाली बाई और आसपास के कुछ लोग जमा हो गए और अपने-अपने ढंग से नंदू को ढूंढने लगे, मगर वह न मिला। तभी पडोस में काम करने वाली बाई बोली, कल शाम मैंने नंदू को सामने वाले पार्क में देखा था। वह वहां बैठे-बैठे रो रहा था। मैंने उससे बहुत पूछा, मगर उसने कुछ बताया नहीं। उसके हाथ में डॉक्टर का पर्चा था।

सभी लोग अपने-अपने कयास लगा रहे थे कि मंदाकिनी अंदर के कमरे से चीखती हुई आई, ललित, जरा देखो तो बोबो को क्या हो गया है.., जरा डॉक्टर को बुलाओ तो..

ओह गॉड, ये सब क्या हो रहा है घर में? एक के बाद एक घटनाओं से परेशान ललित बौखला उठा। फिलहाल बोबो के डॉक्टर को फोन लगाना ज्यादा जरूरी था। फोन पर डॉक्टर साहब की बात सुन वह सर पकड कर धम्म से सोफे पर बैठ गया।

पिछले कई दिनों से बोबो बीमार था। नंदू ने किसी को बताया नहीं और परिवार वालों में से किसी का ध्यान भी नहीं गया। बोबो सुस्त रहा करता था, लेकिन घर वाले अपने में मस्त थे। मंदाकिनी सुबक पडी, नौ साल! कितना लंबा समय होता है न ललित! नंदू हमारे जीवन की धुरी बन गया था। नौ साल से वह यहां रहता आया है। अब उसके बिना घर कैसे चलाऊंगी मैं..

हूं! . ललित ने मंदाकिनी के आंसू पोंछते हुए गहरा नि:श्वास भरा।

..मंदाकिनी की आंखों के आगे नौ साल पहले की घटनाएं आने लगीं। वह गर्भवती थी, मगर चार महीने में ही उसका गर्भपात हो गया था। बच्चा खोने के बाद वह डिप्रेशन में आ गई। तब उसका पति ललित मर्चेट नेवी में था। कुछ महीने बाद ही उसका शिप जापान रवाना होने वाला था।

ललित परेशान था कि कैसे मंदाकिनी को दुख से उबारे। एक दिन किसी दोस्त ने सलाह दी कि मंदाकिनी के लिए छोटा सा एक पपी ले आए, ताकि उसका ध्यान अपनी पीडा से हट सके। मित्र के सुझाव पर ललित ने अमल किया। उसे भी लगा कि एक नन्हे पपी के साथ वह व्यस्त हो जाएगी और बीती बातें भूलने में उसे मदद मिलेगी। कई नस्लें देखने के बाद मंदाकिनी ने रॉटवॉयलर नस्ल का पपी पसंद किया। बारह हफ्तों का नन्हा-मुन्ना श्वान-शावक, रजिस्टर्ड नाम था-बोबो। निरीह भोली-आंखें..।

बोबो के आते ही उनके परिवार में एक नए सदस्य की इंट्री भी हुई। वह था नंदू। दरअसल सोसाइटी का दरबान नंदू को लाया था। ललित ने घर के कामकाज के लिए किसी लडके की इच्छा जाहिर की थी। उस साल दरबान के गांव में जबर्दस्त भूकंप से तबाही मची थी, लोगों का काम-धंधा चौपट हो गया था। गांव से तीन लडके रोजगार की तलाश में दरबान के पास आए थे। उन्हीं में से एक था- सत्रह-अठारह बरस का नंदू यानी नंदन। शक्ल से बहुत मासूम बच्चे सा, मगर ललित को थोडा संदेह था। दरबान ने भरोसा दिलाया कि नंदू भले परिवार का लडका है। प्राकृतिक आपदा में इसका घर-लोग, खेती-बारी सब नष्ट हो गई, इसलिए जिंदा रहने के लिए उसे शहर आना पड रहा है। सारी औपचारिकताएं पूरी कर ललित ने नंदू को काम पर रख लिया। पहले दिन से ही उसकी और बोबो की दोस्ती जम गई। मंदाकिनी ने राहत की सांस ली। कई बार वह बोबो से टूटी-फूटी जुबान में बतियाता, गोया बोबो उसकी बात समझ रहा हो। उसकी बातें सुन कर ललित और मंदाकिनी खिलखिला पडते। वह घंटों बोबो के साथ रहता, उसे ट्रेनिंग देता। नंदू ने जल्दी ही घर का कामकाज अपने हाथ में ले लिया। उसे आए दो महीने हुए कि मंदाकिनी फिर प्रेग्नेंट हो गई। सास-ससुर और ललित नंदू को लकी चार्म मानने लगे। नंदू घर भर का चहेता था, लेकिन उसकी सांसें तो बोबो में ही बसती थीं। ललित के माता-पिता आए तो नंदू ने उनकी भी खूब सेवा की। फिर वह दिन भी आया, जब घर में नन्ही प्रथा आ गई। मंदाकिनी बेटी के आने से व्यस्त हो गई। वह बोबो से डरती, उसे बेबी के पास भी नहीं फटकने देती। उसे बताया गया था कि रॉटवाइलर नस्ल के ये प्राणी अपने प्यार का बंटवारा सहन नहीं कर पाते।

..गुजरते समय के साथ मंदाकिनी ने खुद को डॉगी से दूर कर लिया। अब बोबो पूरी तरह नंदू की जिम्मेदारी था। ललित भी अपने शिप पर रवाना हो गया था। नंदू और बोबो की दोस्ती का आलम यह था कि बोबो के वेटनरी डॉक्टर भी कायल हो गए थे। एक रॉटवाइलर इतना आज्ञाकारी! नंदू बोबो की बहुत देखभाल करता। बोबो उसके इशारों पर उठता, चलता, बैठता, सो जाता..। अगर नंदू कहे, रुक बोबो, तेरा टॉवेल लाता हूं, अभी खाना मत.., तो बोबो उसकी बात मानता, जबकि रॉटीज अपने भुक्खडपन के लिए बदनाम हैं।

दिन, महीने, साल गुजरते गए। नंदू न कभी छुट्टियों में घर गया और न बाहर। मंदाकिनी और ललित खुद को भाग्यशाली मानते थे कि उन्हें इतना अच्छा और ईमानदार सेवक मिला है। प्रथा तीन साल की हुई तो प्ले स्कूल में उसका एडमिशन कराया गया। सुबह-सुबह मंदाकिनी प्रथा को लेकर स्कूल चली जाती, नंदू घर की सफाई करता। घर से मुक्त मंदाकिनी बेटी की परवरिश बहुत अच्छी तरह कर पा रही थी। अकेले में जब नंदू कुर्सी पर बैठा टी.वी. स्क्रीन पर ताकता, बोबो भी अपनी आंखें नचाता रहता। नंदू हंसता तो वह भी उछल-कूदकर उसका साथ देता। नंदू थक कर बिस्तर पर जाता तो बोबो भी आराम से अपने क्रेट में सो जाता। अकेले में नंदू को भी कभी-कभी गांव की याद आती तो वह बोबो को बचपन के किस्से सुनाने लगता, बोबो भी गंभीरता से हर बात सुनता और मुस्कराता। नंदू को याद आता, बोबो के शुरुआती दिनों में मंदाकिनी ने उसे बताया था, इसे द डॉग विद अ स्माइल कहते हैं। समझे नंदू! ये हमेशा मुस्कराता-सा लगता है।

नंदू की उम्र काफी हो गई, मगर उसने न घर-गृहस्थी बसाने के बारे में सोचा, न घर जाने के बारे में। भूकंप में उसका पूरा परिवार खत्म हो चुका था, किसकी खातिर जाता गांव। सुबह नंदू बोबो को सैर पर ले जाता तो लोगों को देख कर सोचता कि वे क्या बात करते हैं, उनकी दुनिया कैसी है..। उसकी दुनिया तो बोबो के इर्द-गिर्द थी। अपनी ड्यूटी समझ कर हर जिम्मेदारी बखूबी पूरी करता नंदू!

..नंदू को घर से निकले छह-सात घंटे हो चुके थे। वह चुपचाप सिर झुकाए अनजान दिशा में चला जा रहा था। उसके मन में डॉक्टर साहब के शब्द गूंज रहे थे, बोबो ने उम्र पूरी कर ली है। इसकी बीमारी का कोई इलाज नहीं। अब इसके जाने के दिन हैं..।

जाने के दिन..? नंदू सोचता रहा, बोबो को यूं जाते हुए मैं कैसे देख सकता हूं? कल सारी रात वह बोबो को तडपते देखता रहा। दवाएं बेअसर हो चुकी थीं। साहब-मैडम देर रात किसी पार्टी से लौटे और आकर तुरंत सो गए। वह उन्हें बोबो की बीमारी के बारे में बता कर परेशान नहीं करना चाहता था। पूरी रात वह बोबो के साथ जागता रहा और उसकी पीडा महसूस करता रहा। भोर होने तक बोबो पस्त हो चुका था। नंदू ने अच्छी तरह उसका क्रेट साफ कर बोबो को स्पंज किया। फिर उसे सहलाया और प्यार से बोला, बोबो, मैंने तुम्हें बचपन से पाला है। तुम्हें जाते नहीं देख सकता दोस्त! मैं जा रहा हूं। तुम जहां जाओ, ईश्वर तुम्हें खुश रखे! मैं तुम्हें अलविदा नहीं कह पाऊंगा..! नंदू रो पडा और बोबो की ओर पीठ घुमा कर तेजी से बाहर निकल गया। अंतिम सांसें लेते बोबो की आंखों से आंसू टपक पडे, जिन्हें नंदू न देख सका।

उसकी आंखों के कोरों पर नमी बाकी थी, जब वह लोकल ट्रेन से उतर कर टी स्टॉल की बेंच पर जा बैठा था। गुमसुम सा वह काफी देर उसी बेंच पर बैठा रहा। अचानक उसे अपने पैरों पर मुलायम सा स्पर्श महसूस हुआ। चौंक पडा नंदू। उसने देखा कि एक नन्हा सा पिल्ला उसके पैरों से लिपट कर कुछ मांग रहा था। उसने लपक कर उसे गोद में उठा लिया। उसके होंठ बुदबुदाए, बोबो..!

अर्चना गौतम


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