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रहने दो...तुम नहीं समझोगी

जाने दो...इसे समझना तुम्हारे बस की बात नहीं, रहने दो, इसमें अपनी अक्ल न लगाओ, सुनो, तुम किचन में ही अच्छी लगती हो... लड़कियों की दुनिया कितनी भी बदल गई हो, मगर आज भी उन्हें अपने भाई, पति या फ्रेंड से कभी न कभी ऐसी बातें सुननी पड़ती हैं। सोच

By Edited By: Published: Tue, 29 Dec 2015 03:37 PM (IST)Updated: Tue, 29 Dec 2015 03:37 PM (IST)
रहने दो...तुम नहीं समझोगी

ड्राइंगरूम में टीवी पर क्रिकेट मैच चल रहा है, पति अपने दोस्तों के साथ मैच का लुत्फ उठा रहा है। पत्नी बार-बार उनके लिए चाय-पकौडे बना कर ले जा रही है। मैच अपने क्लाइमेक्स पर था, पत्नी वहीं ठिठक गई। उसने चिंतित होकर कहा, 'अब इंडिया का जीतना मुश्किल है। एक ही ओवर बचा है, जीतने के लिए इन्हें हर बॉल पर छह रन बनाने होंगे, जो नामुमकिन है। उसके मुंह से इतना सटीक विश्लेषण सुनकर पति के एक दोस्त ने तुरंत जुमला उछाला, 'अरे! भाभी जी आप तो क्रिकेट भी समझती हैं, मुझे तो ऐसा लगा कि आप विराट कोहली को देखने के लिए रुकी हैं। भाभी जी इस बात पर केवल मुस्करा भर दीं मगर दोस्तों के जाने के बाद इस मुद्दे पर पति से उनकी अच्छी-ख्ाासी बहस हो गई। आख्िार पुरुष पहले से ही क्यों मान लेते हैं कि टेक्नोलॉजी, स्पोट्र्स या फाइनेंस जैसी बातें स्त्रियों की समझ से परे हैं।

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पूर्वधारणा है जिम्मेदार

पुरुषों की इस सोच के बारे में क्रिकेट कमेंट्रेटर मंदिरा बेदी कहती हैं, 'जब मैं देश की पहली महिला कमेंट्रेटर बनी तो लोगों को यह बात हजम नहीं हुई। उनके लिए यह यकीन कर पाना मुश्किल था कि कोई स्त्री एक्सपर्ट के तौर पर क्रिकेट के बारे में बातचीत कैसे कर सकती है? लोगों ने मेरा बहुत मजाक उडाया। कुछ लोगों ने यह भी कहा कि मैच में ग्लैमर एड करने के लिए मुझे कमेंट्री में शामिल किया गया है। ऐसी बातें सुनकर मुझे बहुत दुख होता था, पर मैं हिम्मत जुटा कर अपना काम करती रही।

गहरी हैं समस्या की जडें

दरअसल ऐसी सोच के लिए केवल पुरुष ही जिम्मेदार नहीं हैं। बचपन से ही उनकी परवरिश जिस माहौल में होती है, उसका असर उनकी सोच पर भी पडता है। छोटी उम्र से ही लडकों को एहसास दिलाया जाता है कि तुम काबिल और शक्तिशाली हो, तुम्हारी बहन कमजोर है, इसलिए तुम्हें उसकी हिफाजत करनी चाहिए। यहां तक कि लडकों और लडकियों के खेल-खिलौने भी अलग-अलग होते हैं। परिवारों में यह तय होता है कि लडकियां डॉल और किचन सेट से खेलेंगी। लडकों को कार, गन और विडियो गेम्स जैसी चीजें दी जाती हैं। ऐसी स्टीरियोटाइप्ड सोच के बीच पले-बढे लडके शुरू से ही ख्ाुद को सुपीरियर मानने लगते हैं। उनके मन में अहंकार पलने लगता है। उन्हें लगता है कि कार, एरोप्लेन और रोबोट जैसी चीजें लडकियों के लिए नहीं, उनके लिए ही बनी हैं। ऐसे माहौल में पलने वाले लडकों के मन में बडे होने के बाद भी स्त्रियों की ऐसी ही नकारात्मक छवि बसी रहती है, जिसे दूर करना मुश्किल होता है।

नहीं बदला है नजरिया

यह सच है कि स्त्रियां बदलते वक्त के साथ हर क्षेत्र में तेजी से आगे बढ रही हैं। वे जीवन के हर क्षेत्र में आने वाले बदलाव के साथ ख्ाुद को एडजस्ट करने की पूरी कोशिश भी कर रही हैं। मगर यह भी सच है कि पुरुष इस बदलाव को सहज ढंग से स्वीकार करने में अभी हिचकिचा रहे हैं। वे बदल तो रहे हैं, मगर इसकी रफ्तार धीमी है और जब-तब उनका पुरुष अहं इसमें आडे आने लगता है। दरअसल उनके दिलोदिमाग में आज भी स्त्री की वही पुरानी छवि बसी हुई है। इस संबंध में 65 वर्षीय अवकाश प्राप्त शिक्षिका कुसुम सिन्हा कहती हैं, 'एक बार मेरा बेटा राहुल अपना मोबाइल घर पर भूल गया था। उधर से उसका दोस्त फोन कर रहा था। वह बहुत परेशान लग रहा था और मेरे बेटे को बेसब्री से ढूंढ रहा था। मैंने उसे बताया कि हमारे एक रिश्तेदार अस्पताल में भर्ती हैं, वह उन्हीं के पास गया है। लौटने में शाम हो जाएगी। तुम मुझे बताओ, शायद मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकूं? यह सुनकर वह कहने लगा, नहीं आंटी आप रहने दीजिए। यह काम वही कर सकता है। जब मैंने उससे दोबारा बहुत जोर देकर पूछा तो उसने मुझे बताया कि कल उसके होम लोन की िकस्त जाने वाली है, लेकिन अकाउंट में कुछ पैसे कम पड रहे हैं। अगर राहुल होता तो उसके अकाउंट में कुछ पैसे ट्रांस्फर करवा लेता। यह सुनकर मैंने उससे कहा कि तुम अपने बैंक अकाउंट डिटेल्स मुझे मेसेज कर दो। मैं अभी दस मिनट में तुम्हें पैसे भेज देती हूं। यह सुनकर वह चौंक कर मुझसे पूछने लगा, अरे आंटी आप नेट बैंकिंग करती हैं? मैंने उसे बडी मुश्किल से भरोसा दिलाया कि कोई गडबडी नहीं होगी। तब जाकर उसने मुझे अपने अकाउंट की डिटेल्स मेसेज कीं। यहां गलती उस लडके की नहीं, बल्कि उस माहौल की है, जिसमें उसकी परवरिश हुई है। बचपन से आज तक उसने अपने घर-परिवार में किसी स्त्री को यह सब करते नहीं देखा होगा, इसलिए वह मुझ पर भरोसा नहीं कर पा रहा था।

क्या कहता है मनोविज्ञान

लडकियां आज हर फील्ड में हैं और उनकी कार्यक्षमता पुरुषों से कम भी नहीं है। कहीं-कहीं तो उनकी परफॉर्मेंस लडकों से बेहतर है। फिर भी ज्य़ादातर लडकों की सोच यही है कि जानकारी के मामले में लडकियां उनसे बहुत पीछे हैं। यूनीक साइकोलॉजिकल सर्विसेज की क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट गगनदीप कौर कहती हैं, 'लडकों की ऐसी मानसिकता के लिए उनके परिवार और समाज का माहौल जिम्मेदार है। पिछले 15-20 वर्षों में स्त्रियों की जीवनशैली और सोच में बहुत बदलाव आया है, पर पुरुषों को अब भी यही लगता है कि स्त्री सिर्फ घर और बच्चे संभालने के लायक है। इसकी प्रमुख वजह यही है कि आज 25-30 वर्ष की आयु वर्ग वाले लडकों ने बचपन से अपने पिता को मां से ऐसे ही बात करते देखा है, जैसे पिता परम ज्ञानी हों और मां को बाहर की दुनिया के बारे में कोई जानकारी नहीं है। इसलिए युवावस्था में पहुंचने के बाद भी लडकों की इस सोच में कोई बदलाव नहीं आता। उन्हें लगता है कि उनके सपोर्ट के बिना लडकियां तरक्की नहीं कर सकतीं। यह सच है कि परिवार और पति के सहयोग के बिना स्त्रियों की प्रोफेशनल कामयाबी आसानी से संभव नहीं हो पाती, पर लोगों को यह भी सोचना चाहिए कि आख्िार उस स्त्री में कुछ तो बात रही होगी, तभी तो अपने करियर में आगे बढ पाई। यहां तक कि स्त्रियां भी अपनी सफलता का सारा श्रेय पति को देती हैं क्योंकि आज भी वे ख्ाुद को कहीं न कहीं कमजोर समझती हैं। सहयोग देने वालों के प्रति कृतज्ञ होना अच्छी बात है, पर स्त्रियों में आत्मसम्मान की भावना भी होनी चाहिए, क्योंकि जब तक वे अपनी इज्जत नहीं करेंगी, तब तक समाज भी उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं देगा। हमारा समाज परिवर्तन के बहुत बडे दौर से गुज्ार रहा है। जब स्त्री अपनी पारंपरिक छवि को तोड कर उससे बाहर निकलने की कोशिश करेगी तो पुरुषों की ओर से कुछ नकारात्मक प्रतिक्रियाएं आना स्वाभाविक है, लेकिन ऐसी चुनौतियों से घबराना नहीं चाहिए, बल्कि आत्मविश्वास के साथ उन्हें ऐसी स्थितियों का सामना करना चाहिए।

क्या है मैन्सप्लेन

स्त्रियों के प्रति पुरुषों की ऐसी संकीर्ण सोच को लेकर आजकल सोशल साइट्स पर मैन्सप्लेन टर्म का काफी इस्तेमाल किया जा रहा है। इसे अंग्रेजी के दो शब्दों 'मैन और 'एक्सप्लेन को जोडकर बनाया गया है। यानी पुरुष किसी भी विषय पर बातचीत करने से पहले यदि यह मान ले कि इस बारे में स्त्री को कोई जानकारी नहीं होगी। इसलिए वह स्त्री को समझाने की कोशिश करने लगे। उदाहरण के लिए कार के एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि ड्राइविंग सीट पर बैठा पति अपनी पत्नी को कार की ख्ाूबियों के बारे में बता रहा है। तभी पत्नी उसे चेतावनी देती है कि वह गियर ढंग से बदले। यहां यह बताने की कोशिश की गई है कि ड्राइविंग पर पुरुषों का ही एकाधिकार नहीं है, स्त्रियां भी स्टेयरिंग कुशलता से संभाल सकती हैं। यानी ख्ाुद को सुपीरियर समझने और स्त्री को कमअक्ल समझने की यह ख्ाुशफहमी ही 'मैन्सप्लेन है।

बुशरा ख्ाान


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