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सहयोग से बन गई बात

मुश्किल वक्त में आसपास के लोग ही हमारे काम आते हैं और उनके सहयोग से बिगड़ी हुई बात बन जाती है। पाठिकाओं से हमने इसी मुद्दे पर उनके अनुभव आमंत्रित किए थे और हमें ढेरों प्रविष्टिïयां प्राप्त हुईं। आइए रूबरू होते हैं, कुछ ऐसे ही प्रेरक अनुभवों से।

By Edited By: Published: Tue, 01 Mar 2016 03:22 PM (IST)Updated: Tue, 01 Mar 2016 03:22 PM (IST)
सहयोग से बन गई बात

मुश्किल वक्त में आसपास के लोग ही हमारे काम आते हैं और उनके सहयोग से बिगडी हुई बात बन जाती है। पाठिकाओं से हमने इसी मुद्दे पर उनके अनुभव आमंत्रित किए थे और हमें ढेरों प्रविष्टियां प्राप्त हुईं। आइए रूबरू होते हैं, कुछ ऐसे ही प्रेरक अनुभवों से।

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अजनबियों ने बचाई जान

अलका कुलश्रेष्ठ, लखनऊ

लगभग तीन साल पहले की बात है। मेरे घर पर कुछ मेहमान आने वाले थे। मैं किचन में डिनर की तैयारी कर रही थी। उसी वक्त मेरे पति को कोई जरूरी काम याद आया और वह स्कूटी से घर के पास वाले मार्केट तक चले गए। उनके जाने के बाद मैंने देखा कि उनका मोबाइल घर पर ही छूट गया था। थोडी ही देर बाद वह बज उठा और संयोगवश मैंने फोन रिसीव कर लिया। उधर से कोई दूसरा व्यक्ति बात कर रहा था, उसने मुझे जल्दबाजी में बताया कि मेरे पति का एक्सीडेंट हो गया है। यह सुनकर घबराहट के मारे मैं यह भी पूछ नहीं पाई कि इस वक्त वह कहां हैं? फिर मैं दरवाजे पर ताला लगा कर उन्हें ढूंढने निकल पडी। चौराहे पर मैंने लोगों से पूछा कि यहां आसपास कोई एक्सीडेंट तो नहीं हुआ? कई लोगों से पूछने के बाद एक दुकानदार ने मुझे बताया कि कुछ लडके एक व्यक्ति को उठाकर पास वाले हॉस्पिटल ले गए हैं। तब मुझे अंदेशा हुआ कि शायद वे मेरे पति के बारे में ही बात कर रहे हैं। मेरा अंदाजा सही निकला। मैं जब तक वहां पहुंची तो मेरे पति को फस्र्ट एड मिल चुकी थी और उनकी जांच के लिए अस्पताल के इमरजेंसी वॉर्ड में ऑर्थोपेडिक सर्जन आ चुके थे।जांच करने के बाद डॉक्टर ने बताया कि उनके टखने की हड्डी टूट गई है और ऑपरेशन करना होगा, पर उस वक्त मैं जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी। यह सोचकर उन्हें घर ले आई कि कल सुबह किसी अच्छे हॉस्पिटल में उनकी ठीक से जांच करवा लूंगी। पेन किलर का इंजेक्शन लगने की वजह से उन्हें कुछ घंटों के लिए आराम मिल गया, लेकिन आधी रात को उनकी तकलीफ बहुत ज्य़ादा बढ गई। हमारे बच्चे हॉस्टल में रहते हैं। इसलिए घर पर कोई भी मेरे साथ नहीं था। बडी मुश्किल से रात कटी। सुबह जब मैंने अपने ऑफिस में फोन किया तो मेरे सहकर्मियों ने पति को अस्पताल ले जाने के लिए तत्काल एंबुलेंस का प्रबंध किया। वह दस दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहे। उस दौरान हम दोनों के कलीग्स ने मिल-जुलकर मेरे पति का पूरा ध्यान रखा। मेरा मायका भी पास में ही है, लिहाजा मेरे भाई भी रोज अस्पताल आते थे। इतना ही नहीं, घर लौटते ही ऑफिस के लोगों ने मेरे पति की देखभाल के लिए एक मेल अटेंडेंट की भी व्यवस्था करवा दी क्योंकि मेरे लिए अकेले उनकी देखभाल कर पाना बहुत मुश्किल था। उस दौरान सब लोग मेरा मनोबल बढाते रहे। ईश्वर की कृपा से अब मेरे पति पूर्णत: स्वस्थ हैं। मैं उन अजनबी लडकों की तहेदिल से शुक्रगुजार हूं, जिन्होंने मेरे पति को अस्पताल पहुंचाया था। उस मुश्किल वक्त में अगर मुझे उन लोगों का सहयोग न मिलता तो शायद यह संभव न हो पाता।

संवर गया पार्क

निधि अग्रवाल, फिरोजाबाद

हमारे मुहल्ले में एक ही पार्क है, जहां शाम को सारे बच्चे खेलते हैं, पर सही रख-रखाव और सफाई के बिना उसकी हालत बहुत ख्ाराब हो चुकी थी। चारों ओर गंदगी और कूडे का ढेर था। जगह-जगह कंटीली झाडिय़ां बेतरतीब ढंग से फैली हुई थीं। इससे सभी को असुविधा होती थी। हमने कई बार नगर निगम में शिकायत भी की, पर वहां के लोगों ने अनसुना कर दिया। फिर तंग आकर एक रोज हमने ख्ाुद ही उसे साफ और सुुंदर बनाने का बीडा उठाया। सभी के श्रमदान और आर्थिक सहयोग से महीने भर में ही उस पार्क की कायापलट हो गई। अगर हम साथ मिलकर किसी अच्छे काम की शुरुआत करें तो उसका परिणाम हमेशा अच्छा ही होता है।

देवदूत थे वे लोग

जोयीता रॉय, मैसूर

बात उन दिनों की है, जब हम कानपुर से पुणे शिफ्ट हुए थे। उस समय हमारे पास फोन भी नहीं था। एक रोज दोपहर के समय अचानक ससुर जी के कमरे से अजीब सी कराहने जैसी आवाज आई। यह सुनकर मैं दौडती हुई उनके कमरे में पहुंची तो देखा कि वह जमीन पर बेहोश पडे हैं। मैंने उन्हें उठाने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रही। फिर मैंने अपनी बेटी को पति के ऑफिस का फोन नंबर दिया और उससे कहा कि पडोस वाली आंटी के यहां जाकर पापा के ऑफिस में फोन करो। मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था, फिर भी मैं लगातार उनकी छाती की मालिश किए जा रही थी और मैंने मुंह के जरिये उन्हें कृत्रिम सांस देने की भी कोशिश की, इससे दोबारा उनकी सांस चलने लगी। इसी बीच पास-पडोस के लोग हमारे घर आ गए और उन्होंने ही गाडी और पैसों का बंदोबस्त किया। फिर हम ससुर जी को हॉस्पिटल ले गए और वहां तत्काल उनका उपचार शुरू हो गया। तब तक मेरे पति भी वहां पहुंच गए थे। उनके हार्ट में पेसमेकर लगाने की जरूरत थी। इसलिए दूसरे दिन उन्हें बडे हॉस्पिटल में शिफ्ट किया गया। हम तीनों (मैं, पति और सास) अस्पताल में व्यस्त थे। उस दौरान पडोसियों ने मेरी बिटिया का पूरा ख्ायाल रखा। इतना ही नहीं, अस्पताल से घर लौटने के बाद जब भी हमें जरूरत पडी, उन्होंने हरसंभव हमारी सहायता की। तब से मुझे इस बात पर यकीन हो गया कि ऐसे भले लोग सचमुच किसी देवदूत की तरह होते हैं।

पडोसी बने मददगार

रेनू वी. कुमार, चेन्नई

नवंबर 2015 में चेन्नई की भयंकर बारिश और उसके बाद आने वाली बाढ के बारे में तो आप सभी को मालूम ही होगा। दीपावली के कुछ दिनों पहले से ही तेज बारिश शुरू हो गई थी। हालत यह थी कि पटरी पर लगने वाली सारी दुकानें बंद थीं और हम दीपावली की ख्ारीदारी तक नहीं कर पाए। बारिश इतनी थी कि घरों के बाहर दीये जलाना भी मुश्किल था। बारिश का यह सिलसिला नवंबर के पहले सप्ताह से ही शुरू हो गया था, जो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। फिर 26 नवंबर को तो जैसे पूरी चेन्नई पर कहर टूट पडा। बारिश और बाढ की वजह से मेरे पति बीच रास्ते में ही कहीं फंस गए थे। मैं अपनी सास और दोनों बच्चों के साथ घर पर अकेली थी। हमारे अपार्टमेंट का ग्राउंड फ्लोर पानी में डूब चुका था और वहां रहने वाले अपनी जान बचाने के लिए ऊपरी मंजिल की ओर भाग रहे थे। घरों में घुप्प अंधेरा था, कई दिनों से पानी और बिजली नहीं थी, सारी दुकानें बंद थीं। हमारे घर से भी खाने की चीजें ख्ात्म होने लगी थीं। ऐसे में हमारे पास-पडोस के सभी लोग अपनी जरूरतों में से कटौती करके एक-दूसरे को खाने-पीने की जरूरी चीजें दे रहे थे। वह अनुभव मेरे लिए किसी डरावने सपने की तरह था, पर मुझे जल्द ही इस बात का एहसास हो गया कि अगर हम एक-दूसरे के मददगार बनें तो किसी भी मुश्किल का सामना आसानी से किया जा सकता है।

नहीं भूलती वह बात

माया रानी श्रीवास्तव, मिजर्ापुर

आज वर्षों बाद भी मैं अपने पडोस में रहने वाले उन अंकल को नहीं भूल पाई, जो मुश्किल वक्त में मेरे मददगार बने थे। दरअसल मेरे पिता ऑस्टियोपोरोसिस के मरीज हैं। एक रोज आधी रात को उनके पैरों में तेज दर्द शुरू हो गया तो उन्होंने पेनकिलर खा लिया, जिससे उन्हें सीने में दर्द और बेचैनी महसूस होने लगी। उस वक्त मैं घर में अकेली थी। इसलिए मैंने हिम्मत करके पडोस में रहने वाले अंकल का दरवाजा खटखटाया और उन्हें सारी बात बताई। हालांकि, कुछ ही दिनों पहले वह अस्पताल से कोई सर्जरी कराके घर लौटे थे। फिर भी वह ख्ाुद ड्राइव करके मेरे पिताजी को अस्पताल ले गए, जिससे उन्हें सही समय पर ट्रीटमेंट मिल गया और हम सुबह छह बजे घर वापस लौट आए। इलाज के दौरान अंकल के कुछ पैसे ख्ार्च हो गए। बाद में जब हम उन्हें पैसे लौटाने लगे तो उन्होंने यह कहते हुए वापस लेने से इंकार कर दिया कि इंसानियत के नाते यह तो हमारा फजर् था। तुम इन पैसों से किसी और की मदद कर देना। अंकल की वह बात मैं हमेशा याद रखती हूं और जब भी किसी को मुसीबत में देखती हूं तो उसकी ओर मदद का हाथ जरूर बढाती हूं।


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