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चलेंगे साथ मिलकर

किसी कार्य की सफलता में पूरी टीम का हाथ होता है। सामूहिक प्रयासों से मुश्किल लक्ष्य भी हासिल किए जा सकते हैं। परिवार, समाज, कॉलेज, प्रोफेशनल लाइफ... हर जगह आपसी सहयोग से कामयाबी हासिल की जा सकती है। सखी प्रस्तुत कर रही है टीम भावना पर आधारित कुछ खास रचनाएं।

By Edited By: Published: Tue, 01 Mar 2016 02:40 PM (IST)Updated: Tue, 01 Mar 2016 02:40 PM (IST)

किसी कार्य की सफलता में पूरी टीम का हाथ होता है। सामूहिक प्रयासों से मुश्किल लक्ष्य भी हासिल किए जा सकते हैं। परिवार, समाज, कॉलेज, प्रोफेशनल लाइफ... हर जगह आपसी सहयोग से कामयाबी हासिल की जा सकती है। सखी प्रस्तुत कर रही है टीम भावना पर आधारित कुछ खास रचनाएं। पहली कडी में पढें, कैसे टीम की तोकत कामयाबी की ओर ले जाने में सहायक है।

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हर इंसान में अलग-अलग खूबियां होती हैं और किसी भी बडे प्रोजेक्ट को कामयाब बनाने के लिए यह बेहद जरूरी है कि हर तरह के लोग साथ मिलकर कडी मेहनत से काम करें। अलग-अलग फील्ड से जुडे लोगों ने एक नहीं कई बार यह साबित कर दिखाया है कि अगर टीम में शामिल सभी लोग साथ मिलकर मेहनत करें तो कामयाबी जरूर मिलती है। आइए मिलते हैं कुछ ऐसे ही लोगों से, जिन्होंने अपनी टीम के साथ मिलकर कामयाबी की नई इबारत लिखी।

हर सदस्य की होती है अहमियत

डॉ. युगल के. मिश्रा, डायरेक्टर, डिपार्टमेंट ऑफ कार्डियोवैस्कुलर सर्जरी, फोर्टिस एस्कॉट्र्स हार्ट इंस्टीट्यूट एंड रिसर्च सेंटर दिल्ली

अभी हाल ही में हमने एक हार्ट ट्रांस्प्लांट सर्जरी की है। टीम भावना के बिना इतनी बडी सर्जरी असंभव होती। इसमें हॉस्पिटल के स्टाफ के अलावा दिल्ली और हरियाणा की ट्रैफिक पुलिस ने भी हमें पूरा सहयोग दिया था। दरअसल गुडग़ांव के फोर्टिस हॉस्पिटल से ट्रास्प्लांट के लिए एक हार्ट को दिल्ली लाना था। एक घंटे के भीतर उसका पहुंचना बेहद जरूरी था। इसके लिए रात के दो बजे दोनों हॉस्पिटल के बीच में पडऩे वाले सभी ट्रैफिक सिग्नल्स को ग्रीन कर दिया गया था। इससे मात्र 37 मिनट में हमारे पास हार्ट पहुंच गया। ऐसे मामलों में एक-एक मिनट बेहद ेकीमती होता है। हमारी पूरी टीम ने बडी कुशलता के साथ अपनी यह जिम्मेदारी निभाई, जिससे वह सर्जरी कामयाब हो गई। जब कोई टीम साथ मिलकर काम कर रही होती है तो उसमें हर सदस्य का योगदान अहमियत रखता है।

टीम पर टिकी है कामयाबी

आमिर खान, अभिनेता एवं निर्माता

मुझे अपने चाचा नासिर हुसैन की फिल्म मेकिंग से काफी कुछ सीखने का मौेका मिला। आज फिल्म स्टार्स के कई ग्र्रुप्स बन चुके हैं, पर उनके जमाने में ऐसा नहीं था। तब किसी भी फिल्म स्टार में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह शूटिंग के दौरान अपनी वैन में आराम से अलग बैठा रहे और केवल शॉट देने के लिए बाहर आए। तब सभी के लिए अनुशासन के नियम एक समान थे और लोग निर्देशक की बातों को बहुत गंभीरता से लेते थे। फिल्म मेकिंग का सबसे बडा हिस्सा है- उससे जुडी टीम भावना। फिल्म निर्माण के दौरान यदि निर्माता से लेकर स्पॉटबॉय तक में अपनेपन और टीमवर्क की भावना न हो तो अच्छी फिल्म का बनना संभव नहीं होगा। मैैंने अपने पिता और चाचा दोनों को बचपन से फिल्में बनाते देखा है। मैैं उसी माहौल में बडा हुआ हूं। 'तारे जमीं पर की सफलता का सारा श्रेय मुझे कम और मेरी टीम को ज्यादा जाता है, जिसमें लेखक अमोल गुप्ते और मेरी पत्नी किरण से लेकर टेक्नीशियंस, कैमरामैन और शामक डावर की डांस टीम सब शामिल हैं। हम अपने सेट पर हर कलाकार का जन्मदिन मनाते हैं। सभी छोटे-बडे कलाकारों की पसंद-नापसंद के बारे में जानते हैं। एक हजार से भी ज्य़ादा बच्चों को एक साथ महाबलेश्वर ले जाना और उनके साथ शूटिंग करना कोई आसान काम नहीं था, पर हमने यह सब कर लिया क्योंकि हमारे बीच जबर्दस्त टीम भावना थी। लोग मुझे मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहते हैं, क्योंकि मैैं अपनी फिल्म के मामले में समझौते नहीं कर सकता। टीम की बेहतरी के लिए सारी सुविधाएं मुहैया कराता हूं। सबके सुझावों का आदर करता हूं। अपनी टीम के साथ मेरा हमेशा एक कंफर्ट जोन बना रहता है। मेरी टीम के हर सदस्य को अपनी राय पेश करने की खुली छूट होती है। शायद इसीलिए जब मेरे और अमोल के विचार आपस में नहीं मिले तो हमने अलग होना बेहतर समझा। एक इंसान होने के नाते मैैं यह मानकर चलता हूं कि मेरे साथ मेरी टीम भी काम करने में गलतियां करेगी। फिल्म या कोई भी बडा प्रोजेक्ट बनाते समय टीम के लोगों से कई बार नुकसान भी हो जाता है। यह सामान्य सी बात है। इस पर नाराज होना मुनासिब नहीं है। टीम में काम करने के लिए संयम बहुत जरूरी है। मैैं अपने साथियों के साथ घुल-मिल कर काम करता हूं। मेरे विचार से सफलता के श्रेय की असली हेकदार टीम ही होती है।

फिल्म-निर्माण है टीम वर्क

फराह खान, निर्देशक

मेरे विचार से फिल्म निर्माण टीम वर्क ही है। यूनिट व प्रोडक्शन से जुडे सभी लोगों की सहमति से ही सीन, गाने, स्टंट आदि का फैसला होता है। सभी जानते हैं कि बजट के मामले में मैं बेहद ेिकफायती हूं। मैं फालतू पैसे खर्च नहीं करवाती। मेरे पति शिरीष बहुत उदार निर्माता हैं। मैं उनके जिन प्रोजेक्ट्स से जुडी हूं, वे बहुत कम बजट में कंप्लीट हो गए। किसी दूसरे डायरेक्टर से काम लेने पर शिरीष को आटे-दाल का भाव मालूूम पड जाता है। हां, मैं तो घर की डायरेक्टर हूं। ठीक इसी तरह मेरे चीफ असिस्टेंट डायरेक्टर साहिल शूटिंग के दौरान पैदा होने वाली छोटी-छोटी परेशानियों को संभालते हैं। मेरे मैनेजर मेरे पसंदीदा गायकों, गीतकारों के साथ को-ऑर्डिनेट करते हैं। मिसाल के तौर पर गीतकार इरशाद कामिल के पास 'हैप्पी न्यू ईयर के लिए वक्त नहीं था। वह मेरे मैनेजर को फोन पर मना कर रहे थे, लेकिन जब मैंने मोबाइल हाथों में लिया और इरशाद से हेक भरे स्वर में कहा कि आप हमारी फिल्म कर रहे हैं तो वह इतने भले इंसान हैं कि मेरी बात को मना नहीं कर पाए। उन्हें अपनी फिल्म के लिए राजी करने का क्रेडिट मैं खुद को देती हूं, पर इरशाद का फोन नंबर ढूंढ कर उनसे बात करने के लिए समय लेने का श्रेय मेरे असिस्टेंट को जाता है। कुल मिलाकर सभी के सहयोग से ही बात बनती है।

चलता हूं सभी को साथ लेकर

मीर रंजन नेगी, हॉकी कोच एवं पूर्व खिलाडी

केवल खेल के मैदान में ही नहीं, बल्कि निजी जीवन में भी खुशहाली और कामयाबी के लिए हमें अपने आसपास के सभी लोगों को साथ लेकर चलना पडता है। जिस टीम में एकता होती है, हमेशा वही जीतती है। इसी तरह हमारा घर भी टीम की तरह होता है। अगर सभी सदस्यों के बीच सही तालमेल न हो तो परिवार बिखर जाता है। 1998 के एशियन गेम्स के लिए जब भारतीय हॉकी टीम बैंकॉक गई थी तो किसी को भी जीत की आशा नहीं थी। तब टीम के सामने कई तरह की मुश्किलें थीं, पर सदस्यों ने कैप्टन धनराज पिल्लै का पूरा साथ दिया। उसी एकता और मेहनत का नतीजा था कि पूरे 32 वर्षों के बाद भारतीय हॉकी टीम को गोल्ड मेडल मिला। किसी भी टीम को मजबूत बनाने के लिए कोच को भी काफी मेहनत करनी होती है। एक टीम में अलग-अलग प्रदेशों के लोग शामिल होते हैं। उनकी सोच और व्यक्तित्व में बहुत ज्य़ादा अंतर होता है। इसलिए मेरी यही कोशिश होती है कि मैं सभी सदस्यों को एक-दूसरे के साथ घुलने-मिलने का मौेका दूं। जब मैं महिला हॉकी टीम का कोच था, तब मुझे ऐसा महसूस हुआ कि विभिन्न प्रदेशों की लडकियों के अलग-अलग ग्रुप बन गए हैं और वे दूसरी लडकियों से कटी-कटी सी रहती हैं। यह स्थिति टीम के लिए अच्छी नहीं थी। इसे दूर करना बहुत जरूरी था। इसलिए जब भी हमारी टीम कहीं दौरे पर जाती तो मैं उनके ठहरने की ऐसी व्यवस्था करवाता कि सभी को एक-दूसरे के बारे में जानने का अवसर मिले। इसी तरह टीम की कामयाबी के लिए केवल अपनी परफॉर्मेंस पर ध्यान केंद्रित करना काफी नहीं है, बल्कि दूसरे सदस्यों को सहयोग देना भी बहुत जरूरी होता है। मेरे जीवन पर आधारित फिल्म 'चक दे इंडिया की दो कैरेक्टर्स प्रीति सब्बरवाल और कोमल चौटाला के बीच अकसर अहं का टकराव होता था, पर अंत में प्रीति यह समझ जाती है कि अपनी टीम को जीत दिलाने के लिए ईगो का त्याग करना जरूरी है। इसीलिए फिल्म के अंतिम दृश्य में वह खुद पीछे हट कर कोमल चौटाला को गोल मारने मौेका देती है क्योंकि ग्राउंड में कोमल जहां खडी थी, वहां से गोल होने संभावना ज्य़ादा थी। अपनी टीम को जीत दिलवाने के लिए प्रीति ने खुद गोल करने का मौेका छोड दिया। यही होती है सच्ची टीम भावना। इस फिल्म के ज्य़ादातर किरदार और प्रसंग वास्तविक जीवन से ही लिए गए हैं। इस फिल्म में दिखाया गया मैच का दृश्य वास्तव में 2004 के एशियन गेम्स के हॉकी मैच पर आधारित है, जिसमें भारतीय महिला हॉकी टीम को केवल सहयोग भावना की वजह से ही कामयाबी मिली थी और यही होती है टीम की असली तोकत।

तालमेल है जरूरी

मजर्ी पेस्तनजी, कोरियोग्राफर

जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढऩे के लिए हमें एक-दूसरे के सहयोग की जरूरत होती है। जहां तक मेरी फील्ड का सवाल है तो आपसी तालमेल के बिना यहां एक ेकदम भी चल पाना असंभव है। नृत्य-संगीत के क्षेत्र में काम करने वाले सभी लोग एक-दूसरे को पूरा सहयोग देते हैं। जब मैं कोरियोग्राफी करता हूं तो अपनी टीम के हर सदस्य की खूबियों-खामियों को पहचानने की कोशिश करता हूं। यह जरूरी नहीं है कि हर ग्रुप में सारे लोग एक समान क्षमतावान हों, पर हर इंसान में कोई न कोई खूबी जरूर होती है। ऐसे में मैं टीम के कमजोर सदस्यों की खूबियों को पहचानते हुए उन्हें तराश कर और अच्छा बनाने की कोशिश करता हूं। जब कोई सदस्य अच्छा प्रदर्शन करता है तो उसे शाबाशी जरूर देता हूं, ताकि वह उत्साहित होकर और अच्छे ढंग से काम करे। कई बार टीम के कुछ सदस्यों का मनोबल गिर जाता है और वे अच्छी परफॉर्मेंस नहीं दे पाते। ऐसे में मैं उन्हें अपने काम पर ध्यान देने की सलाह देता हूं। सबसे जरूरी बात यह है कि मैं लोगों के साथ बहुत सहज रहते हुए काम के माहौल को खुशनुमा बनाए रखने की कोशिश करता हूं। लोगों की परफॉर्मेंस पर इसका बहुत सकारात्मक असर देखने को मिलता है। वैसे तो मैंने कई ग्रुप्स के लिए कोरियोग्राफी की है, लेकिन 2010 के कॉमन वेल्थ गेम्स के लिए मैंने शामक डावर के साथ मिलकर 1100 स्कूली बच्चों को डांस सिखाया था, जो प्रोफेशनल डांसर्स के साथ डांस कर रहे थे। वह अद्भुत और यादगार अनुभव था। उन बच्चों को 20 दिनों की ट्रेनिंग दी गई थी। उस दौरान मुझे महसूस हुआ कि उनमें भी सीखने की प्रबल इच्छा थी। उन बच्चों के सहयोग के बिना इस डांस को तैयार करना संभव नहीं होता। अच्छी परफॉर्मेंस के लिए मैं डिसिप्लिन को भी बहुत जरूरी मानता हूं। ग्रुप डांस में सही टाइमिंग का होना बेहद जरूरी है। किसी एक डांसर की छोटी सी गलती पूरे शो को खराब कर सकती है। इस बात को वे बखूबी समझते हैं। इसीलिए परफॉर्मेंस के दौरान अपने साथी डांसर्स के साथ बहुत वे आसानी से ताल-मेल बिठा लेते हैं और उन्हें बार-बार समझाने की जरूरत नहीं होती। द्य

इंटरव्यू : विनीता एवं अमितकर्ण


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