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नहीं भूलता वो घर

रिहाइशें भले ही बदलती रहें पर कुछ जगहों से हमें विशेष लगाव होता है और ऐसी यादें हमारे ज़ेहन में बसी रहती हैं।बॉलीवुड की मशहूर शख्सीयतें कुछ ऐसी ही यादें बांट रही हैं सखी के साथ।

By Edited By: Published: Sun, 04 Sep 2016 12:15 PM (IST)Updated: Sun, 04 Sep 2016 12:15 PM (IST)
नहीं भूलता वो घर
घर दो अक्षरों से बने इस छोटे से शब्द में समाहित है, अपनत्व, सुरक्षा, सपने और ढेर सारी खुशियां। घर केवल ईंट-सीमेंट की चारदीवारी से नहीं बनता, बल्कि इसमें रची-बसी होती है प्यार की खुशबू, दादी-नानी की कहानियां, बचपन की शरारतें, पास-पडोस से जुडे ढेर सारे किस्से और बतकहियां। तभी तो चाहे हम कहीं भी रहें पर हमारा पुराना घर हमें बार-बार पुकार रहा होता है और हम भी अकसर उसे याद करने के बहाने ढूंढते रहते हैं। उसकी खट्टी-मीठी यादों का लुत्फ कई बार हमारी बेमजा होती जिंदगी का जायका बदल देता है। आइए रूबरू हों कुछ ऐसी ही दिलचस्प यादों से.... बनारस की यादें वैसे तो अपने जीवन में मैं कई बार फ्लैट और मकान बदल चुकी हूं लेकिन मेरी जन्मभूमि बनारस है और वहां के जिस पुश्तैनी मकान में मेरा बचपन बीता था, वह आज भी मुझे बहुत याद आता है। हमारा संयुक्त परिवार था। घर में माता-पिता और भाई-बहनों के अलावा हमारे कई कजंस भी साथ रहते थे। मेरे दादा-दादी दोनों स्वतंत्रता सेनानी थे। मैंने हमेशा उन्हें देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत देखा। उसी परिवेश में मेरा बचपन बीता। फिर वर्षों बाद जब मैंने '1942 ए लव स्टोरी' फिल्म में अभिनय किया तो मुझे ऐसा लगा कि यह माहौल तो मेरे बचपन के घर जैसा ही है। हमारे घर में लगभग 15-20 कमरे थे। वहां हमेशा कुछ न कुछ वैचारिक-साहित्यिक बातें हुआ करती थीं। हमारे परिवार में कोई डॉक्टर, कोई पॉलिटिकल लीडर तो कोई लेखक बना। सिर्फ मैं ही अलग फील्ड में आ गई। चूंकि मेरे दादाजी नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके थे, इसलिए हमारे घर पर हमेशा कम से कम 10-12 सिक्योरिटी गाड्र्स रहते थे। मैंने बनारस के बसंत कन्या विद्यालय से अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त की है। मेरे स्कूल जाने के लिए अलग से एक रिक्शे का प्रबंध किया गया था। मुझे अपने दादा-दादी के माध्यम से जाने-माने हिंदी साहित्यकारों जैसे प्रेमचंद, शिवानी, अमृता प्रीतम का साहित्य पढऩे को मिलता रहा। मैं इन लेखकों की किताबें हमेशा टेरेस पर बैठकर पढा करती थी। मुझे कथक सिखाने के लिए घर पर ही गुरु जी आते थे। बडे ही सुहाने दिन थे वो। सच कहूं तो मेरे बनारस वाले घर ने ही समृद्ध भारतीय संस्कृति से मेरा परिचय करवाया और मुझे वैचारिक परिपक्वता दी। मैं अपने उस घर के प्रति आजीवन कृतज्ञ रहूंगी। मनीषा कोइराला, अभिनेत्री मिल गया ड्रीम हाउस मैं नॉस्टैल्जिक होने के बजाय वर्तमान में जीना पसंद करती हूं। जब से मैंने काम करना शुरू किया था, मेरा यही सपना था कि मैं अपना घर बनाकर, उसे अपनी रुचि के हिसाब से संवारूं। आखिर मेरा यह सपना सच हो गया। हाल ही मैं मैंने मुंबई में एक नया फ्लैट खरीदा है। उसे सजाने के लिए मैंने कुछ दिनों के लिए अपने करियर से ब्रेक लिया है। इससे पहले मैं किराए के घर में रहती थी। इसी वजह से मैं उसे मनचाहे ढंग से संवार नहीं पाती थी। अब मैंने उसका इंटीरियर अपनी जरूरतों और पसंद के मुताबिक करवाया है। सही मायने में यही मेरा ड्रीम हाउस है। परिणीति चोपडा, अभिनेत्री अब वो बात कहां मुंबई आने के वर्षों बाद भी मैं अपने पुश्तैनी घर को नहीं भूल पाया हूं। यहां मैं अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त फ्लैट में रहता हूं। बनारस में मेरा गांव है, जिसका नाम है ओदार। वहीं पर है मेरा प्रिय घर। तब वहां के सारे रास्ते कच्चे थे। मेरे घर के आसपास आम के बगीचे थे। गांव में चौपाल, पनघट, नदियां और खेत-खलिहान थे। आंगन में नीम का पेड था। गर्मियों में उसकी ठंडी छांव तले बैठकर बातें करना बडा अच्छा लगता था। हमारे घर के पास ही गन्ने का खेत था। फसल तैयार होने के बादआंगन में गन्ने की मशीन लग जाती थी। रात भर गुड बनाने का काम चलता रहता। तब घर में बडी चहल-पहल होती और वहां बकायदा उत्सव जैसा माहौल हो जाता था। हम बच्चे सुबह-शाम गन्ने चूसते। हर मौसम में आम, इमली और बेर न जाने कितने फल आते और हम खाते रहते। परिवार में कितने सदस्य थे, यह तो याद ही नहीं आता। जो भी थे, सारे अपने ही तो थे। मेरे माता-पिता, दादा-दादी, भाई-बहन, चाचा-चाची, बुआ सब साथ में रहते थे। आज की तरह अपने-पराये का कोई भेदभाव नहीं था। घर के बगल में एक छोटा सा तालाब था, जिसे हम पोखरा कहते थे। वहां जाकर हम मछलियां और मेढक पकडते। शायद इतनी खुशियां आज की पीढी पैसों से भी नहीं खऱीद सकती। आज भी मैं वहां अपने बडे भाई से मिलने जाता हूं। घर तो हमारा वही है पर गांव का शहरीकरण हो चुका है। इसलिए अब वो बात कहां...! समीर, गीतकार किराये का छोटा सा घर उज्जैन मेरा होमटाउन है। वहां मेरे पापा ने जो मकान बनवाया था, उसमें मैं मुश्किल से तीन-चार महीने ही रह पाया। उसके बाद बीस साल की उम्र में मैं आगे की पढाई के लिए इंदौर चला गया और कुछ ही दिनों बाद अभिनय की दुनिया में अपनी पहचान बनाने के लिए मुंबई चला आया। जहां तक पुराने घर से जुडी यादों का सवाल है तो उज्जैन की राजस्व कॉलोनी में हम किराये के मकान में रहते थे। उस घर के साथ मेरे जीवन की बेहद खुशनुमा यादें जुडी हैं। तब मेरी उम्र तकरीबन सात-आठ साल रही होगी। मुझे याद है, हमारी कॉलोनी में गणेश चतुर्थी का त्योहार बडे धूमधाम से मनाया जाता था। बचपन में मैं बेहद मासूम सा दिखता था। इसलिए बडे लडके जब भी चंदा मांगने जाते तो मुझे अपने साथ ले जाते थे ताकि छोटे बच्चे को देखकर कॉलोनी की आंटियों का दिल पसीज जाए। मुझे याद है कि मैं तांगे पर बैठ कर स्कूल जाता था। तब कोचवान के साथ अगली सीट पर बैठने के लिए हम बच्चों के बीच अकसर लडाई हो जाती थी तो वह हमें बारी-बारी से अपने साथ आगे बिठाता था। हमारा घर बडा नहीं था, फिर भी वहां बहुत मेहमान आते थे। ऐसे हम ड्रॉइंगरूम में जमीन पर गद्दे बिछाकर सोते और अगले दिन सुबह हडबडा कर जल्दी से उठ जाते ताकि ड्रॉइंग रूम को जल्दी से वापस ठीक किया जा सके। पास-पडोस से अकसर हमारे घर कटोरियों में भर कर सब्जियां, मिठाई और कई तरह की स्वादिष्ट चीजें आती थीं। फिर बाद में मम्मी उन्हीं कटोरियों में अपने घर से नई चीजें भर कर हमें वापस पहुंचाने को कहतीं। छोटे शहरों की बात ही कुछ और होती है। मुंबई में तो लोग अपने नेक्स्ट डोर नेबर को भी नहीं पहचानते। मुझे याद है, जब मैं थोडा बडा हो गया तो अकसर घर से बाहर निकलकर घूमने के बहाने ढूंढता रहता। मम्मी से पूछता कि बाजार से कोई सामान तो नहीं लाना? दरअसल इसी बहाने मुझे साइकिल चलाने का मौका मिल जाता। वहां ढेर सारे दोस्त थे और मैं उनके साथ खूब शरारतें करता था। सच, अपने मैं अपने उस घर को आज तक नहीं भूल पाया हूं। यहां तक कि सपने में भी मुझे वही घर दिखाई देता है। शंशाक व्यास, टीवी कलाकार मां से जुडी यादें मेरा बचपन जमशेदपुर में बीता है। हाल ही में मैंने मुंबई में नया फ्लैट खरीदा है, जहां मेरे माता-पिता, भाई-बहन सब साथ रहते हैं। व्यस्तता की वजह से अब जमशेदपुर जाना कम हो गया है। फिर भी मुझे अपना वह घर बहुत याद आता है। खासतौर पर वहां मुझे अपनी मां का कमरा सबसे ज्य़ादा पसंद था। मुझे शुरू से ही चहल-पहल के बीच रहना पसंद है लेकिन मेरे कमरे की खिडकी एक वीरान मैदान की तरफ खुलती थी। वहां से बाहर देखने पर हमेशा सूनेपन का एहसास होता था। इसलिए अकसर मैं मां के कमरे में जाकर वहां खिडकी के पास बैठ जाती। उनकी खिडकी से मुझे लोगों को आते-जाते देखना बहुत अच्छा लगता था। अपनी मां का वह कमरा आज भी बहुत याद आता है। इशिता दत्ता, अभिनेत्री इंटरव्यू : मुंबई ब्यूरो

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