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मैं जो हूं बस वही हूं...

कोई अच्छा वक्ता होता है तो कोई अच्छा श्रोता। कोई सामाजिकता निभाना जानता है तो किसी को एकांत पसंद होता है। कोई बहिर्मुखी होता है तो कोई अंतर्मुखी। मुश्किल यह है कि अंतर्मुखी स्वभाव के लोगों को कई बार लोग समझ नहीं पाते और उनका ग़्ालत आकलन कर बैठते हैं।

By Edited By: Published: Wed, 25 Mar 2015 02:55 PM (IST)Updated: Wed, 25 Mar 2015 02:55 PM (IST)
मैं जो हूं बस वही हूं...

कोई अच्छा वक्ता होता है तो कोई अच्छा श्रोता। कोई सामाजिकता निभाना जानता है तो किसी को एकांत पसंद होता है। कोई बहिर्मुखी होता है तो कोई अंतर्मुखी। मुश्किल यह है कि अंतर्मुखी स्वभाव के लोगों को कई बार लोग समझ नहीं पाते और उनका ग्ालत आकलन कर बैठते हैं। इंट्रोवर्ट रहने वाला व्यक्ति खुद अपने बारे में क्या सोचता हैं, इसे शेयर कर रहा है वह अपनी डायरी से।

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डियर डायरी

दुनिया दो तरह के लोगों से भरी है। एक वो जो बोलते हैं और दूसरे वो जो सुनते हैं। मैं शायद उनसे अलग हूं। ऐसा नहीं है कि मुझे बोलना अच्छा नहीं लगता, मगर बहुत जरूरी हो, तभी यह ठीक लगता है। इस वजह से दोस्तों के बीच मुझे कई बार घमंडी का तमगा मिल जाता है। सच यह है कि मुझे वही बातें सुननी अच्छी लगती हैं, जो उपयोगी हैं या कम से कम मुझे ऐसा लगता है। हां, मैं अपने प्रति ईमानदार हूं, पर पता नहीं क्यों लोग मुझसे कई बार खफा हो जाते हैं। मेरे भी दोस्त हैं, लेकिन उनकी संख्या कम है। सोशल साइट्स पर भी स्ट्रेंजर्स को फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भेजने या उनकी मित्रता स्वीकार करने में मुझे थोडी परेशानी होती है, जबकि मेरे दोस्त हैं कि व्हॉट््सएप पर चुटकुलों का पूरा ग्रंथ भेज देते हैं। सच कहूं तो कई बार ये चुटकुले फूहड लगते हैं, कुछ ही होते हैं जो सचमुच हंसाएं और भद्दे भी न हों। दोस्त मजाक में कहते हैं, बुढापा आ गया है तेरा...।

हां, यह सच है कि मेरे दोस्त जीवन को भरपूर जीते हैं, सबसे घुलते-मिलते हैं, कैफेटेरिया से लेकर नुक्कड की दुकानों तक एक-दूसरे से मिलने-जुलने का समय निकाल लेते हैं, दोस्ती का दायरा बढाते हैं। कई दोस्तों की तो उंगलियां हर वक्त मोबाइल की टच स्क्रीन पर ऊपर-नीचे होती रहती हैं। मुझे यह सोच कर हैरानी होती है कि आखिर वे दिन भर क्या बात करते हैं? कितने संदेश भेजते रहते हैं? मुझे तो समझ ही नहीं आता कि बात शुरू कहां से करूं।

डियर डायरी, ये बातें सिर्फ तुमसे शेयर की जा सकती हैं। सच कहूं तो दोस्तों की महिफल में भी कई बार लगता है मानो मैं अजनबी हूं, जिसे अपनी बात रखने से पहले दूसरों की अनुमति लेनी होगी, जबकि शब्दों के चतुर खिलाडी आसानी से मुझ पर हावी हो जाते हैं। वे एक-दूसरे की बात का समर्थन करते हैं, हां में हां मिला लेते हैं। मगर मुझे समझ नहीं आता कि वे ऐसा क्यों करते हैं? जबकि कई बार पीठ पीछे वे उन्हीं बातों का विरोध करते हैं, जिनका सामने समर्थन किया था। जब मन किसी बात को मानने के लिए तैयार न हो तो जबरन उसे क्यों मानें! ग्ालत चीजों का तो विरोध होना चाहिए। रीअल दोस्त तो वही हैं, जो ग्ालत को ग्ालत कहने का साहस कर सकेें और दोस्त को सही रास्ते पर ले जा सकें। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होता और जो विरोध करता है या ईमानदारी से अपनी राय रखता है, वह भीड से अलग हो जाता है-छंट जाता है। दोस्त कन्नी काट लेते हैं उससे।

हो सकता है, शायद मैं ग्ालत हूं। ऐसे अनुभव कई बार हुए हैं, जब ज्य़ादा बोलने वालों को बाजी मारते देखा है। जैसे क्लास में वो बच्चा, जो मैडम के हर सवाल पर हाथ उठा लेता है, भले ही उसे जवाब न आता हो। जाहिर है, मैडम उससे बार-बार तो सवाल पूछेंगी नहीं। करियर में तो बोलना, घुलना-मिलना एक सॉफ्ट स्किल है। जो चुप रह गया-समझो मर गया। 'चुप्पी सबसे बडा खतरा है जिंदा आदमी के लिए' यह एक कविता की पंक्ति है, लेकिन कोई कितना अनर्गल प्रलाप कर सकता है!

हम्म.....शायद मुझे ही अपनी बात को सही ढंग से रखने की कला नहीं आती या फिर लोग मुझे नहीं समझ पाते। ज्य़ादातर हमउम्र लोगों से मेरी सोच फर्क है। तो क्या मैं सामान्य नहीं हूं? कहीं मैं किसी डिसॉर्डर से तो ग्रस्त नहीं? वैसे सामान्य होना क्या होता है? कई सवाल हैं जो रह-रह कर मुझे परेशान करते हैं।

पहले मुझे भी खुद पर संदेह होता था। एक दौर ऐसा आया कि मेरे भीतर हीन-भावना पनपने लगी। लेकिन फिर इससे उबरने के लिए किताबों, इंटरनेट, जीवन के अनुभवों और विज्ञान की मदद ली। इससे मुझे खुद को समझने में मदद मिली भी (एक हद तक)। कभी स्कूल में काउंसलर ने कहा था, 'अग्रेसिव बनो, अपनी बात को मजबूती से कहना सीखो...तभी लोग सुनेंगे। ग्ाुस्सा आता है तो दबाओ नहीं, उसे अपनी ताकत में बदलो। लिखो, ड्रॉइंग बनाओ, संगीत में ढालो...।' उन्होंने सही कहा था, लिखने के नाम पर डायरी-लेखन तो होने ही लगा उसके बाद।

मशहूर मार्शल आर्टिस्ट ब्रूस ली की कुछ लाइनें पढीं, 'मैं हमेशा कुछ सीखता हूं और वह यह कि पहले खुद के बनें, अपने प्रति ईमानदार होना सीखें। खुद को सही ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए स्वयं पर विश्वास जरूरी है। इस वाक्य ने खुद पर मेरा विश्वास पुख्ता किया।

हां, मुझे भी सामाजिकता भाती है, मगर छोटे दायरे में। संवाद अच्छा लगता है, मगर अंतहीन हो या लंबा खिंचे तो उबाऊ हो जाता है। रिश्तों में पहलकदमी भले ही न ले सकूं, मगर निभाने की कला आती है, बशर्ते रिश्ते अर्थपूर्ण हों। दोस्ती की शुरुआत भले न कर सकूं मगर दूसरा शुरुआत करे तो उसका स्वागत होता है। दूसरों की भावनाओं का सम्मान करना मुझे आता है। हां, अपने एहसास हर किसी से बांटना मेरे लिए थोडा मुश्किल है। लोगों की बातें ध्यान से सुनना, उन पर मनन करना अच्छा लगता है।

अकेले रहना ठीक नहीं होता, दुनिया को देखो, सामाजिकता सीखो, एकांत में रहने से कुंठा, अवसाद, तनाव पनपता है....ये कुछ सलाहें हैं बडों की, जो बचपन से मिलती रही हैं। मुझे अपने साथ रहना पसंद है, मगर इसका अर्थ यह नहीं कि मुझे दूसरों के साथ रहना नापसंद है। एकांत-प्रिय होने का अर्थ एकाकी होना नहीं होता। इसका अर्थ यह भी है कि मुझे थोडा पर्सनल स्पेस चाहिए। हां, मुझे पार्टीज, नाइट क्लब्स, डिस्कोथेक, धूम-धडाके और भीड-भाड की जगहों में समस्या होती है। बाजार मुझे अशांत करता है और शोरगुल से सिर में दर्द होने लगता है। मुझे शांत माहौल में रहना, धीमा संगीत सुनना, प्रकृति के साथ कुछ समय बिताना भाता है। कई लोग अकेले नहीं रह पाते, उन्हें एकांत में घबराहट होती है। लेकिन मेरे लिए एकांत एक वरदान है। यह मुझे मौका देता है खुद को, लोगों को और स्थितियों को समझने का। रिश्ते को पल में जोड लेना या तोड लेना....ये दोनों ही काम मुझसे नहीं हो पाते। लोगों को खास चश्मे से देखना भी नहीं भाता। मुझे लगता है कि तुरंत राय बना लेने या प्रतिक्रिया देने से कई बार ग्ालत निर्णय ले लिए जाते हैं। हालांकि अत्यधिक देरी से भी महत्वपूर्ण अवसर खो जाते हैं। लेकिन हर समस्या के दो पहलू होते हैं। फैसले लेने में देरी या दुविधा में रहने में फर्क होता है। निर्णय लेने से पहले सोचने-विचारने से ग्ालत फैसले लेने से बच जाता है इंसान।

वैसे सच कहूं तो बोलने वाले लोग मुझे आकर्षित और प्रभावित भी करते हैं। जैसे रेडियो स्टेशंस के आरजे या वीजे। वे कैसे स्टूडियो में अकेले बैठ कर घंटों श्रोताओं से बात कर लेते हैं, मानो सब आमने-सामने बैठे हों। काश कि यह कला मेरे भीतर होती। कस्टमर केयर में बैठे लोग, जो घंटों फोन पर दूसरों की प्रॉब्लम्स सुलझाते हैं या सामान बेचते लोग, जिन्हें पता है कि आधे से ज्य़ादा लोगों को कुछ खरीदना नहीं है, वे महज फिरकी ले रहे हैं। मगर बेचने वाले की ड्यूटी है और उसकी महारत भी इसी में है कि गंजे को कंघी बेच कर दिखा सके। मुझे लगता है कि कुछ खरीदना न हो तो सिर्फ वक्त गुजारने के लिए मॉल्स क्यों जाएं? विंडो शॉपिंग क्यों करें जब जेब में पैसा न हो। ओह नो! बोरियत नहीं होती तुम्हें इस तरह अकेले? दोस्त पूछते हैं मुझसे। बोरियत की भी सबकी अपनी-अपनी परिभाषा होती है। ऐसे में हमारे जैसे इंट्रोवर्ट क्या करें!

डियर डायरी, तुमसे अपने मन की बातें शेयर करके बहुत सुकून मिल रहा है। खुद पर एक बोझ था, जो धीरे-धीरे हलका हो रहा है। तुम्हें बताऊं कि अंतर्मुखी होने का मतलब असामाजिक होना नहीं है, दोस्त-विहीन होना भी नहीं है। हर व्यक्ति को सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह करना होता है, मुझे भी करना होगा, मैं भी समाज का हिस्सा हूं। लेकिन मुझे अपने एकांत में खलल पसंद नहीं। मैंने सुना है कि कंप्यूटर्स की दुनिया में क्रांति लाने वाले बिल गेट्स भी कभी घोर किताबी कीडा रहे हैं, वे चुपचाप अपना काम करते थे बिन बोले। शर्मीला होने और अंतर्मुखी होने में फर्क है।

डियर डायरी, तुम मेरा आईना हो। सफेद पन्ने फडफ़डाते हैं तो मेरी सोच को पंख मिलने लगते हैं। ये पन्ने मुझे सुविधा देते हैं कि जो चाहूं लिखूं। तुम चुपचाप मुझे सुनती हो बिना जजमेंटल हुए। शायद मुझे खुद को अपनी वास्तविकता में स्वीकार करना चाहिए। एक गीत की पंक्ति है- मैं जो हूं, बस वही हूं। अभी बस इतना ही...। अभी दुनिया के कई कर्तव्य मुझे पुकार रहे हैं, अपनी कही, अब उनकी भी सुनूं।

प्रस्तुति : इंदिरा राठौर


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