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भक्ति के रंगों से रंगी ब्रज की होली

होली शब्द की उत्पत्ति 'होला' से हुई है, जिसका अर्थ है-अच्छी फसल की प्राप्ति के लिए भगवान की पूजा।

By Edited By: Published: Tue, 14 Mar 2017 03:49 PM (IST)Updated: Tue, 14 Mar 2017 03:49 PM (IST)
भक्ति के रंगों से रंगी ब्रज की होली

होलाष्टक आरंभ 5 मार्च रंग भरी एकादशी 8 मार्च होलिका दहन 12 मार्च होली 13 मार्च फुलेरा दूज 14 मार्च शीतलाष्टमी (बसौडा) 20 मार्च वासंतिक नवरात्र प्रारंभ, नवसंवत्सर 29 मार्च गणगौर 30 मार्च विनायकी चतुर्थ 31 मार्च

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हर ओर इंद्रधनुषी रंगों की छटा बिखर जाती है। इसी महीने में भगवान सूर्य उत्तरायन में होते हैं, उनकी यह दशा अध्यात्म की दृष्टि से अति पुण्य फलदायी मानी जाती है। इस महीने में ऋतुराज वसंत की सुंदरता भी अपने चरमोत्कर्ष पर होती है। परंपरागत रूप से होली का त्योहार भगवान के भक्त प्रह्लाद की असीम आस्था के विजय पर्व के रूप में मनाया जाता है। होली शब्द की उत्पत्ति 'होला' से हुई है, जिसका अर्थ है-अच्छी फसल की प्राप्ति के लिए भगवान की पूजा।

होलाष्टक का महत्व होलिका दहन के आठ दिन पहले से ही इस त्योहार का पर्वकाल होलाष्टक प्रारंभ हो जाता है। ये आठ दिन सभी मांगलिक कार्यों के लिए निषिद्ध माने गए हैं। होलाष्टक की शुरुआत फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी से होती है। इसी दिन बरसाने के श्रीजी मंदिर में बडे उत्साह से लड्डूमार होली खेली जाती है, जिसमें लोग एक-दूसरे पर लड्डुओं की बौछार करते हैं। इस दिन राधा रानी के मायके बरसाने की रंगीली गली में लट्ठमार होली खेली जाती है। वहां नंदगांव के हुरियारे होली खेलने आते हैं। राधिका जी की सखियां उन पर लाठियों से वार करती हैं और वे मजबूत ढालों से अपनी रक्षा करते हैं। अगले दिन फाल्गुन शुक्ल दशमी की शाम को नंदगांव में भी ऐसी ही लट्ठमार होली मनाई जाती है। फर्क सिर्फ इतना है कि इसमें नंदगांव की स्त्रियां बरसाने के पुरुषों पर लाठियों की बौछार करती हैं। रीति-रिवाजों और परंपराओं के अनुसार उत्तर प्रदेश में यह त्योहार लट्ठमार होली के रूप में, असम में फगवाह या देयोल, बंगाल में ढोल जात्रा और नेपाल में फागु पुन्हि के नाम से लोकप्रिय है।

अनूठी है ब्रज की होली ब्रज की होली तो सबसे भव्य और अनूठी होती है। वहां की कहावत है, सब जग होरी, जा ब्रज में होरा। होली की मस्ती की शुरुआत ब्रज की इसी पावन धरती से हुई थी क्योंकि यहां का कण-कण राधा-कृष्ण के प्रेम रस से सिंचित है। फाल्गुन की शुरुआत से ही पूरे ब्रज में होली के रसियों का गायन गूंजने लगता है और पूरा ब्रज-मंडल होली की मस्ती में डूब जाता है। भारत की सांस्कृतिक राजधानी काशी में भी लोग इस दिन भांग और ठंडाई की मस्ती में सराबोर रहते हैं। होलिका दहन से संबंधित भक्त प्रह्लाद की कथा तो सभी जानते हैं लेकिन पौराणिक ग्रंथों में इससे संबंधित एक और कथा का उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार हिमालय की पुत्री पार्वती चाहती थीं कि उनका विवाह भगवान शिव से हो जाए पर शिवजी का ध्यान भंग करना आवश्यक था। केवल कामदेव के पुष्पबाण से ही यह कार्य संभव था।

पार्वती जी की सहायता के लिए कामदेव ने अपना बाण चलाया, जिससे महादेव की तपस्या भंग हो गई। क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया और उससे निकलने वाली अग्नि की लपटों में कामदेव भस्म हो गए। इस तरह शिव-पार्वती जी का मिलन सफल हुआ लेकिन कामदेव की पत्नी रति का विलाप देखकर शिवजी के मन में करुणा जागी और उन्होंने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया। इसीलिए कई प्रदेशों में जलती होलिका को कामदेव की चिता का प्रतीक मान कर उसमें चंदन की लकडिय़ां चढाई जाती हैं। लोकगीतों में भी रति के विरह की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। इसके अगले दिन कामदेव के पुनर्जीवित होने की खुशी में लोग रंगों से होली खेलते हैं। अयोध्या में यह त्योहार फाग-महोत्सव के रूप में मनाया जाता है।

आध्यात्मिक दृष्टि से इस पर्व में सत्यम-शिवम् और सुंदरम का स्वरूप दिखाई देता है। इन तीन शब्दों में भगवान श्रीराम और शिव की शक्ति के साथ श्रीराधा-कृष्ण का सौंदर्य समाहित है। इसलिए काशी, वृंदावन और अयोध्या की होली विश्वविख्यात है।


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