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गोल्डन जुबली मना चुके हैं हम: मनोज कुमार-शशि गोस्वामी

भारत कुमार के नाम से मशहूर मनोज कुमार फिल्मी दुनिया में कई दशक पार कर चुके हैं। उनकी पत्नी हैं शशि गोस्वामी। छिप-छिप कर एक-दूसरे को देखने से लेकर साथ फिल्में देखने तक इनकी प्रेम कहानी काफी फिल्मी ढंग से आगे बढ़ी। विवाह की गोल्डन जुबली मना चुके इस दंपती से जानते हैं क्या है इनके साथ का राज।

By Edited By: Published: Tue, 02 Apr 2013 03:46 PM (IST)Updated: Tue, 02 Apr 2013 03:46 PM (IST)
गोल्डन जुबली मना चुके हैं हम: 
मनोज कुमार-शशि गोस्वामी

भारत कुमार के नाम से मशहूर मनोज कुमार और पुरानी दिल्ली की रहने वाली शशि गोस्वामी ने विवाहित जीवन के 51 साल पूरे कर लिए हैं। उनकी शादी की गोल्डन जुबली हो गई है। इनका मानना है कि समझदारी, संयम और त्याग ही दांपत्य को सफल बनाता है।

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शादी का अर्थ क्या है?

मनोज : शादी पवित्र रिश्ता है। हालांकि इस पर अब पश्चिम का प्रभाव पडने लगा है। लगता है मानो डिवोर्स की स्क्रिप्ट पहले लिख लेते हैं, शादी बाद में होती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पश्चिम में सब बुरा है।

शशि : जिंदगी भर साथ रहने का बेहतरीन जरिया है शादी। पति के रूप में एक दोस्त, पथ-प्रदर्शक और साथी मिल जाता है। परिपक्व बनाती है शादी। तभी पता चलता है कि आप कितने अच्छे हैं और कितने बुरे।

मनोज: हमसफर की सीमा सिर्फ बीवी तक नहीं है। मैं अपनी पहली हमसफर मां के गर्भ को मानता हूं। मां मेरे दुनिया में आने से भी पहले से मुझे जानती थी। शायद इसलिए जन्मदिन पर मुझे दुख होता है। मैं उस वर्ग से नहीं जुडा हूं जो जन्मदिन का जश्न शैंपेन, केक और नाच-गाने से मनाते हैं। मैं गुमसुम सा हो जाता हूं। खयाल आता है कि वर्ष 1937 में मेरे जन्म से ठीक पहले मां लेबर पेन से तडप रही होगी। नानी उसे देख रही होगी। नाना परेशान होंगे। परनाना हुक्के पर हुक्का पी रहे होंगे। जन्मदिन पर मुझे मां की पीडा याद आती है। तो मेरी पहली हमसफर मां और उनकी पीडा थी, जो मुझे इस संसार में लाई।

शशि : मैं सहमत हूं। समय के साथ-साथ हमसफर बदलते रहते हैं। लडकी के लिए भी उसकी पहली हमसफर मां ही होती है, फिर बेस्ट फ्रेंड और अंत में पति।

अन्य लडकियां भी आई जिंदगी में?

मनोज : मां के बाद और शशि के आने से पहले मेरी गहरी दोस्त थीं आशा। निराशा मेरी डिक्शनरी में नहीं है। मैं पतझड को दूसरी बहार का नाम देता हूं। जहां एक पत्ता-पत्ता फूल की तरह होता है। आशा ने आत्मविश्वास बढाने में मुझे काफी योगदान दिया, क्योंकि मुझे शक था कि ऐक्टिंग कर भी पाऊंगा कि नहीं। उन्होंने मेरी हिचक को दूर किया। मैं बचपन से लिखता था। किताबें पढने का शौक था। लेकिन अपनी रचनात्मक क्षमता से अनजान था। आपके पहले सवाल के जवाब में कहूंगा कि मां और शशि के अलावा आशा मेरी हमसफर थीं। बहरहाल, जब मैं ऐक्टर बना तो कुछ अभिनेत्रियों के संग मेरी तस्वीरें अखबार में छप गई। उन्हें देख कर इनकी नानी सविता जी ने इनकी मां से कहा कि कहीं लडका हाथ से न निकल जाए। वह पार्लियामेंट मेंबर थीं। पं. नेहरू उनसे राखी बंधवाया करते थे। उस वक्त तक मैं फिल्म हरियाली और रास्ता कर चुका था।

शशि : जी हां, दौलत-शोहरत दोनों इनके पास थी। लेकिन ये सामाजिक नियमों को मानने वाले व्यक्ति थे। मानते थे कि सही समय पर शादी कर लेनी चाहिए। इन्होंने पिता को इस संबंध में खत लिखा। पिता समझ गए और वे मुझे देखने आ गए। मैं उन्हें पसंद आई तो उन्होंने घर के बुजुर्गो से बात की। हम ब्राह्माण नहीं थे, पर इस बात से किसी को ऐतराज नहीं हुआ। शांतिपूर्ण ढंग से वैदिक रीति से विवाह हुआ।

मनोज : एक रोचक वाकया शेयर करना चाहूंगा। शादी से पहले जब कभी दिल्ली आकर इनसे मिलना चाहता तो इनकी मां मुझे इनके मौसाजी के पास भेज देती थीं। वे ठहरे रिटायर्ड आर्मी ऑफिसर। कोर्ट रूम की तरह सवाल-जवाब करते। पूछते- क्या करते हो? मेरे पास कोई जवाब नहीं होता। मैं कहता, मेरे अंदर जो कुछ है, उसे लोगों के सामने रखता हूं। खैर बाद में पॉपुलर हुआ तो सब ठीक हो गया। 1 दिसंबर 1961 को हमारी शादी हुई।

शशि जी को असुरक्षा होती थी? अफवाहें उडती हैं ऐक्टर्स के बारे में..।

मनोज : हां, हमारे कुछ रिश्तेदारों ने इनके कान भरे कि मनोज किसी हीरोइन के साथ दिखा है.. तुम्हें उस पर नजर रखनी चाहिए।

शशि : कई बार इन पर शक करती थी मैं। ये प्यार से मुझे समझाते कि मैं जहां काम करता हूं, वह जगह मेरे लिए मंदिर है। वहां मुझे सौ प्रतिशत देना है। हां, घर में लापरवाही दिखाऊं तो मुझे कसूरवार ठहरा सकती हो। इन्हें जिम्मेदारी का एहसास था। इन्हें पता था कि मुझे किन बातों से प्रॉब्लम हो सकती है। इन्होंने ताउम्र एक दिनचर्या फॉलो की। सुबह दस से शाम छह बजे तक ये काम के प्रति समर्पित रहते, उसके बाद पूरा समय हमें देते। इसमें पहले इनकी मां-पिता, बहनें होती थीं।

मनोज : बाद में स्थिति यह हुई कि जो लोग इनके कान भरते थे, वही कहने लगे कि शशि तुम तो बडी जीवट हो, पति को पल्लू से बांध कर रखती हो। मैंने खुद को अनुशासित रखा तो इसमें काफी योगदान शशि का है। इन्हीं के बल पर पिछले 51 वर्ष से शादी बनी हुई है। मैं भी अपने नियमों पर चला।

शादी के बाद क्या बदलाव आए?

मनोज : शादी के बाद मेरी पहली फिल्म हरियाली और रास्ता आई, जिसने सिल्वर जुबली मनाई। इसका क्रेडिट शशि आज तक लेती हैं।

शशि : तो इसमें गलत क्या है? मेरे शुभ कदम इनके घर में पडते ही ये सुपरस्टार हो गए। वैसे उसमें उनकी मेहनत तो थी ही।

आप दोनों में कॉमन बातें क्या हैं?

मनोज : हम दोनों को ही फिल्मों से लगाव है। शादी से पहले छिप कर फिल्में देखते थे।

शशि : अब टीवी देखते हैं। हालांकि हम दोनों को अलग-अलग प्रोग्राम पसंद हैं, फिर भी साथ में प्रोग्राम देखते हैं। हमारी लडाई भी कार्यक्रमों को लेकर ही ज्यादा होती है।

मनोज : हम दोनों लोहे की रॉड की तरह नहीं हैं बल्कि केन जैसे हैं, जो मुडता है-झुकता है। शादी एक तरह का समझौता है। एक-दूसरे की अच्छाई-बुराई को स्वीकार कर साथ रहने का समझौता। समझौते के बिना किसी का जीवन नहीं चल सकता।

मगर आजकल निजी स्पेस की बात बहुत की जाती है..।

मनोज : नादानी की बात है। क्या कोई मां-बाप, भाई-बहन से आजाद होकर खुश रह सकता है? हर दिमा्रग को आजादी चाहिए, लेकिन उसका नाजायज फायदा उठाना दरअसल ्रगुलामी से भी बदतर है। हम जिस परिवेश के हैं, हमारे कुछ मूल्य हैं। अगर रिश्तों की परवाह नहीं तो लानत है ऐसे लोगों पर।

शशि : वाकई बेवकूफी वाली बात है कि कोई इंसान अपने मां-बाप, भाई-बहन से आजाद रहना चाहे। हालांकि ऐसा हो रहा है, लेकिन यह ्रगलत है। इससे पता चलता है कि हम भीतर से कितने खोखले हो चुके हैं।

लिव-इन ट्रेंड के बारे में क्या कहेंगे?

मनोज : कुछ नहीं। मैं स्कैंडिनेवियन कंट्रीज का उदाहरण देना चाहूंगा। वहां सेक्स को लेकर बंदिशें नहीं थीं, लेकिन एक समय ऐसा आया कि वहां सर्वाधिक आत्महत्याएं होने लगीं। जाहिर है कि पति-पत्नी का रिश्ता सीमाएं मांगता है। अगर आप कई संबंधों में रहेंगे तो निराश होते चले जाएंगे।

शशि : यह ऐसा रिश्ता है जो इंसान को वेगा बाउंड (अराजक-अस्थिर) बना देता है। यह रिश्ते की पवित्रता के लिए घातक है।

मुलाकात व दोस्ती का सफर

मनोज : इसके लिए थोडा पीछे लौटना होगा। देश के विभाजन का दर्द मेरे माता-पिता ने भी सहा है। हमें रिफ्यूजी कैंप में रहना पडा। कोई डेरा गाजी खां से, कोई डेरा इस्माइल से तो कोई मुल्तान से वहां आया था। सबके अपने दर्द थे और मुझे भी अपना शहर ऐबटाबाद याद आता था, जहां मैंने जन्म लिया था। सडकें याद आती थीं। मैं भूखा था लाहौर की गलियों का, वहां की हवाओं का, शालीमार गार्डन का। लेकिन जीवन की गाडी तो आगे बढती है। ओल्ड दिल्ली में अपने दोस्त के यहां पढने जाता था। वहीं शशि को पहली बार देखा। ईश्वर साक्षी है कि मैंने कभी किसी को बुरी नजर से नहीं देखा। लेकिन न जाने कौन सी ऐसी बात थी जो मुझे भा गई। हम एक-दूसरे को डेढ साल तक तकते रहे। पिछले दिनों मेरे उस दोस्त का निधन हो गया। उनकी पत्नी थीं आदर्श देवी। उनके मार्फत पहली बार शशि से बात हुई। धीरे-धीरे बात यहां तक पहुंची कि हमने दिल्ली के ओडियन सिनेमा हॉल में पहली पिक्चर उडनखटोला भी देखी। फिर मुलाकातों का सिलसिला चलता रहा। मेरे परिवार में तो विरोध नहीं था, मगर इनकी मां और भाई रिश्ते के खिलाफ थे। इन्हें पहरे में रखा गया। मैं कॉलेज की छत पर चला जाता और शशि अपने घर की छत पर.. इस तरह एक-दूसरे को देखते। फिर हिंदू कॉलेज से ग्रेजुएशन करते समय ही मुझे मुंबई के लिए न्यौता मिला। मेरे अंकल थे श्री देखराज भाखरी और उनके पार्टनर थे कुलदीप सहगल। उन्होंने ही मुझे मौका दिया।

शशि : आगे की कहानी मैं सुनाती हूं। चूंकि ये मुझे सैकडों बार सुना चुके हैं। इनके पिताजी ने इनसे कहा कि मुंबई जाना चाहते हैं तो सोच-विचार कर लें। 26 जनवरी 1956 को ये मुंबई आ गए। वहां इनके अंकल ने इनसे कहा कि तुम तो हीरो लगते हो, दिल्ली में वक्त क्यों बर्बाद कर रहे हो। मेरे चाचा राज नारायण गोस्वामी ने मुंबई में इन्हें आसरा दिया। वे उपकार फिल्म के प्रोड्यूसर थे।

अमित कर्ण


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