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रिश्तों की बदलती परिभाषा

समय के साथ लोगों की सोच बदल रही है।अब वे अपने रिश्तों के प्रति व्यावहारिक नज़रिया रखते हैं और छोटी-छोटी बातों पर तार्किक ढंग से सोचते हैं।सखी के साथ एक नज़र सामाजिक बदलाव पर ।

By Edited By: Published: Sat, 02 Jul 2016 11:17 AM (IST)Updated: Sat, 02 Jul 2016 11:17 AM (IST)
रिश्तों की बदलती परिभाषा
समय के साथ हमारी जीवनशैली तेजी से बदल रही है। संयुक्त परिवारों की जगह न्यूक्लियर फैमिली ने ले ली है।व्यस्तता भरे इस दौर में लोग अपने परिवार से बाहर भी रिश्तों में आत्मीयता तलाशने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि महानगरीय जीवनशैली के अकेलेपन की वजह से अब लोगों का जी घबराने लगा है। अकेला होता बचपन आजकल महानगरों के एकल परिवारों में रहने वाले बच्चे खुद को बहुत अकेला महसूस करते हैं। पहले संयुक्त परिवारों में माता-पिता के अलावा कई अन्य सदस्य भी होते थे। उनके साथ रहकर बच्चों में सहजता से शेयरिंग और केयरिंग की भावना विकसित होती थी, पर अब ऐसा नहीं है। न्यूक्लियर फैमिली में भी एक ही बच्चे का चलन बढता जा रहा है। इससे वे आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। बच्चों के व्यक्तित्व के संतुलित विकास में समाजीकरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। समाजशास्त्री डॉ. शैलजा मेनन कहती हैं, 'कोई बच्चा जैसे ही बोलना-चलना सीखता है, वह हर पल घर से बाहर निकलने को बेताब रहता है। इसकी खास वजह यही है कि हम मूलत: सामाजिक प्राणी हैं। कई अध्ययनों में यह पाया गया है बचपन में जिन बच्चों का समाजीकरण सही ढंग से नहीं होता, बडे होने के बाद वे स्वार्थी, दब्बू और चिडचिडे बन जाते हैं। इसी वजह से आज के जागरूक अभिभावक अपने बच्चों की सोशल स्किल्स पर बहुत ध्यान देते हैं और उन्हें नए दोस्त बनाने के लिए प्रेरित करते हैं।' सहयोग की अहमियत आजकल उच्च शिक्षा हासिल करने और करियर के बेहतर अवसरों की तलाश में छोटे-छोटे कसबों से महानगरों में आने वाले युवाओं की तादाद तेजी से बढ रही है। घर-परिवार से दूर अपनी आंखों में ढेर सारे सपने लेकर अनजाने शहर में आने वाले युवा यहां अपने लिए दोस्तों का एक नया कुनबा बना लेते हैं। आकाश मिश्रा एमबीए करने के लिए मिर्जापुर से दिल्ली आए हैं। वह कहते हैं,'हम चार दोस्तों ने साथ मिलकर एक अपार्टमेंट में किराये पर फ्लैट लिया है। खानपान की आदतों को लेकर अकसर हमारे बीच नोक-झोंक चलती रहती है पर हम एक-दूसरे का पूरा ख्याल रखते हैं। अगर हममें से कोई एक बीमार होता है तो बाकी दोस्त मिलकर उसकी देखभाल करते हैं। बर्थडे या त्योहार जैसे अवसरों पर घर जाना संभव नहीं होता पर दोस्तों के साथ रहने की वजह से अकेलापन महसूस नहीं होता।' जरूरतों के लिए बनते रिश्ते समान हितों के लिए साथ मिल-जुलकर रहना महानगरीय जीवनशैली का जरूरी हिस्सा बनता रहा है। अब लोग अपनी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक-दूसरे के साथ सहयोगपूर्ण रवैया अपनाने लगे हैं। इससे उनके पैसों की बचत तो होती ही है, रिश्ते में मधुरता भी बनी रहती है। केंद्रीय सचिवालय में कार्यरत मेघना बिष्ट कहती हैं, 'आजकल पेट्रोल काफी महंगा हो रहा है। इसलिए हमारे ऑफिस के 3-4 लोगों ने साथ मिलकर एक कार पूल कर ली है। इससे हम कम खर्च में आराम से ऑफिस पहुंच जाते हैं। इस वजह से हमारे बीच दोस्ताना रिश्ता कायम हो गया है। रास्ते में बातचीत के दौरान हमें एक-दूसरे की पर्सनल लाइफ से जुडी परेशानियों की भी जानकारी मिलती है। यथासंभव हम एक-दूसरे की मदद करने की भी पूरी कोशिश करते हैं।' होममेकर पल्लवी सक्सेना की ढाई वर्षीया बेटी प्ले स्कूल में जाती है। वह बताती हैं, 'छोटे बच्चों की परवरिश के दौरान कई तरह समस्याएं आती हैं। यहां न्यूक्लियर फैमिली में रहने की वजह से हमें बच्चों की देखभाल के बारे में कई बातें मालूम नहीं होती। इसलिए हमने व्हॉट्स एप पर अपना एक ग्रुप बनाया है। प्ले स्कूल में जाने वाले सभी बच्चों की मम्मियां उसकी सदस्य हैं। अकसर हम एक-दूसरे से चैटिंग भी करते हैं। बर्थडे जैसे अवसरों पर हम सब अपने बच्चों के साथ एक-दूसरे से मिलते हैं। इसके अलावा महीने में एक बार हम सारी मांएं मिलकर बच्चों के लिए छोटी सी पार्टी भी अरेंज करती हैं, जिसमें हम सब अपने घरों से एक-एक चीजें बनाकर लाते हैं, जहां बच्चों के साथ मम्मियों के लिए कुछ गेम्स भी होते हैं। वहां हम सब मिलकर बहुत एंजॉय करते हैं। हमारा अपना परिवार भले ही तीन लोगों का है पर इससे बाहर भी हमारी बहुत बडी फैमिली है।' महानगरों में आपका परिवार भले ही छोटा हो पर इसके बाहर भी कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो आपके परिवार के सबसे अहम सदस्य बन जाते हैं और उनके सहयोग के बिना परिवार का सही ढंग से संचालन संभव नहीं होता। बैंक में कार्यरत उमा शर्मा कहती हैं, 'मेरी सास चलने-फिरने में असमर्थ हैं। ऐसे में हमारी घरेलू सहायिका मीना पिछले सात वर्षों से उनकी देखभाल कर रही है। उसमें जिम्मेदारी भावना इतनी ज्य़ादा है कि शाम को जब तक मैं घर नहीं लौटती, वह रुक कर मेरा इंतजार करती है। खुद बीमार होने पर अपनी छोटी बहन को काम के लिए भेज देती है। वह लडकी हमारे लिए परिवार की सदस्य जैसी है और हम भी उसकी जरूरतों का पूरा खयाल रखते हैं।' हम साथ-साथ हैं आज से तीन दशक पहले समाज में एक ऐसा भी दौर आया था, जब लोगों को पश्चिमी संस्कृति की चमक-दमक भरी आरामतलब जीवनशैली से बहुत ज्य़ादा आकर्षित कर रही थी और उनकी सोच आत्मकेंद्रित होने लगी थी, लेकिन समय के साथ उन्हें जल्द ही इस बात का एहसास हो गया कि अकेले रहने की कल्पना भले ही बहुत लुभावनी लगती है पर इससे उपजी परेशानियां भी कम नहीं हैं। अब उन्हें इस बात का एहसास हो गया है कि डिप्रेशन और एंग्जायटी सहित तमाम मानसिक बीमारियां अकेलेपन की वजह से ही पैदा होती हैं। इसलिए लोग साथ मिल-जुलकर रहने की अहमियत समझने लगे। महानगरों में फ्लैट के छोटे आकार के कारण माता-पिता या भाई-बहनों को साथ रखने में दिक्कत आई तो लोगों ने एक ही अपार्टमेंट में दो या तीन फ्लैट्स की बुकिंग शुरू करवा दी, ताकि सुख-दुख में वे एक-दूसरे की मदद कर सकें। यहां तक कि अब तो लोग अपने पडोसियों से भी मधुर संबंध बनाकर रखते हैं। कुल मिलाकर यह सामाजिक बदलाव बेहद सुखद है। यह भी ना भूलें पास-पडोस के लोगों से बेहतर संबंध जरूर रखें, लेकिन बिना मांगे उन्हें कोई सलाह न दें और न ही उनके घरेलू मामलों में हस्तक्षेप करें। अपने घर में किसी अजनबी को पेइंग गेस्ट या किरायेदार रखते समय पहले उसके बारे में पूरी छानबीन कर लें। किसी भी रिश्ते को परिपक्व बनने में थोडा वक्त लगता है। इसलिए नई जान-पहचान में दोस्ती बढाने के लिए अपनी ओर से बहुत ज्य़ादा आतुरता न दिखाएं। पहले अपने रिश्ते को पनपने का मौका दें और जब आपको ऐसा लगे कि सामने वाले व्यक्ति से आपके विचारों में समानता है, तभी उसकी ओर अपनी दोस्ती का हाथ बढाएं। सखी फीचर्स

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