मेरा खाना ही मेरी पहचान है : रितु डालमिया
इटैलियन खाने की बात चलते ही रितु डालमिया का नाम जेहन में आता है। दिल्ली स्थित अपने रेस्टरां दिवा में शेफ की यूनिफॉर्म पहने हरदम मुस्तैद रितु की डिशेज जितनी लाजवाब हैं, उतनी ही जिंदादिल वह ख़ुद भी हैं। खाना और यात्राएं उन्हें पसंद हैं और वह खुद को ख़ुशकिस्मत मानती हैं कि उन्हें मनचाहा काम करने को मिला। सखी की संपादक प्रगति गुप्ता से हुई बातचीत में उनके व्यक्तित्व के कई शेड्स देखने को मिले।
एक पुरुष प्रधान समाज में किसी स्त्री के लिए अपनी पहचान बनाना वाकई तारीफ के काबिल है और यह कर दिखाया है रितु डालमिया ने। दिल्ली स्थित रेस्टरां दिवा में उनसे हुई मुलाकात एक दिलचस्प अनुभव है। मन में कुछ कर गुजरने का जुनून हो, अपने काम में आनंद मिले, हर पल नया करने की चाह हो तो हर मुश्किल आसान हो सकती है। यात्राओं की शौकीन रितु की यह यात्रा आसान नहीं रही है। उनसे मिल कर यही जाना कि हर काम में पहले बाधाएं आती हैं, विफलता भी मिलती है, लेकिन मन में लगन और दृढ इच्छा हो तो राहें खुद खुल जाती हैं।
शेफ बनने का खयाल कैसे आया? पुरुष वर्चस्व वाले क्षेत्र में आई तो डर नहीं लगा?
पता नहीं, लोग मुझसे यह क्यों पूछते हैं, मुझे लगता है मानो कोई कमी रह गई है जीवन में कि मुझे कुछ झेलना नहीं पडा। सच कहूं तो स्त्री होना फायदेमंद रहा..(हंसते हुए)। आज हमारी कंपनी में डेढ-दो सौ लोग हैं। लेकिन महिलाएं केवल तीन हैं। यह कमी तो है कि किसी कलीग के साथ चाय-कॉफी पीना चाहूं तो ऐसे बहुत लोग नहीं हैं। 1993 में मेरे पास एक बडे होटल का शेफ था। तब मेरे पास अनुभव और आत्मविश्वास कम था। सोचा, होटल का शेफ ठीक रहेगा। लेकिन मैं उसे कुछ करने को कहती तो वह मुझे देखता भी नहीं था। सोचता होगा कि 22 साल की लडकी मुझे ऑर्डर दे रही है..। इसके बाद सोचा कि कभी किसी होटल का शेफ नहीं रखूंगी। इससे कोई समस्या भी नहीं हुई। अभी सारे शेफ पुरुष हैं। इसका बडा कारण है कि हमारे काम में टाइमिंग गडबड है। मैं तो इस स्थिति में हूं कि लेट नाइट काम कर सकती हूं, लेकिन एक स्त्री, जो एक होममेकर भी है, उसके लिए यह मुश्किल काम है।
..शनिवार, रविवार, होली, दिवाली, न्यू ईयर ईव जो किसी होममेकर के लिए पारिवारिक दिन होते हैं, हमारे यहां सबसे व्यस्त प्रोफेशनल दिन होते हैं। इसमें परिवार के लिए कोई समय नहीं होता..। रही बात कि शेफ कैसे बनी?.. तो मैंने कभी इस बारे में सोचा नहीं था। 16 वर्ष की उम्र में पिता के साथ काम करने लगी थी। अब यह उनकी गलती थी कि वे बार-बार मुझे इटली भेज देते थे। 10 वर्ष की उम्र में पहली बार वहां चली गई थी। वहां से लौटते हुए (ऐसा मुझे बाद में लोग बताते थे), मैं एयरपोर्ट पर रोने लगी थी कि मुझे इटली में ही रहना है, घर नहीं जाना है। मुझे हमेशा लगता है कि मेरा इटली से कोई पुराना नाता है। पापा भी खाने के बहुत शौकीन थे। जब भी वह बाहर जाते, उनका सूटकेस खाने की चीजों से भरा होता था। पाक कला की भी किताबें होती थीं। दस साल की उम्र से ही मैं कुकिंग में एक्सपेरिमेंट करने लगी थी, लेकिन तब इसे प्रोफेशनली नहीं सोचा था। मेरे पेरेंट्स अकसर वृंदावन जाते थे। जब भी वे लौटते, मैं खाने की मेज पर उनका इंतजार करती थी और चाहती थी कि वे मेरा बनाया खाना खाएं। ..22 साल की उम्र तक पिता के साथ काम किया। साइड में कुछ पैसे भी बना लिए थे। मुझमें थोडा अहं था तो पिता में मुझसे भी ज्यादा अहं था। मैंने उन्हें यह नहीं बताया कि मुझे शेफ बनना है, लेकिन मेरी मां यह बात जानती थी। मां ने हमेशा मेरा साथ दिया। मेरे पास 5 लाख रुपये थे। मैंने सोच लिया कि अब तो रेस्टरां ही खोलना है और बस यहीं से रिटायर होना है।
1993 में जब मैंने पहला रेस्टरां खोला तो कभी नहीं सोचा कि यह एक प्रोफेशन की शुरुआत है।
..मेरी बडी अच्छी दोस्त थी इटली में। जब हमारी मार्बल फैक्टरी बनी थी तो सारी मशीनरी हमें उसी ने सप्लाई की थी। हालांकि शुरू में उसने भी बहुत बेरुखी सी दिखाई। मुझे याद है कि जब मैं पहली बार उससे मिली तो उसने पूछा था कि तुम्हारे पापा कहां हैं? उसे अजीब सा लगा कि यह 18-19 साल की लडकी करोडों की डील करेगी। मैंने उससे कहा कि उसे मुझसे ही डील करनी होगी। वह बेहतरीन कुक थी, मैंने उससे इटैलियन खाने के बारे में बहुत कुछ सीखा। उसी ने मुझे कहा कि छोडो यह मार्बल बिजनेस, तुम एक अच्छी कुक हो, रेस्टरां खोलो..।
मारवाडी परिवार का होना सकारात्मक था या नकारात्मक?
मैं छोटी थी तो लगता था कि मेरे पेरेंट्स कंजर्वेटिव हैं। हालांकि वे कभी कंजर्वेटिव नहीं थे। उन्होंने हम चारों भाई-बहनों को जिस तरह पाला, मैं इसके लिए हमेशा उनकी कृतज्ञ रहूंगी। उन्होंने कभी कुछ करने से हमें नहीं रोका। आज सोचती हूं तो लगता है कि यह मेरा सौभाग्य है कि मैं मारवाडी परिवार की हूं। हम कोलकाता में थे, बाद में दिल्ली आए। कम उम्र से ही मुझे इटैलियन खाने का स्वाद मिल गया। मारवाडी खाने के बहुत शौकीन होते हैं। आज मेरे 65 प्रतिशत टॉप क्लाइंट्स मारवाडी हैं, क्योंकि मैं उनके स्वाद, पसंद व उनकी जरूरत को अच्छी तरह जानती हूं। पहले वे लोग सोचते थे कि खाने पर खर्च नहीं करना है, दिखावा नहीं करना है, लेकिन अब वे काफी खर्च करते हैं। मटर की कचौडी और आलू-पेठे की सब्जी, पोहा-चूडा और पुलाव आज मेरा पसंदीदा खाना है, जिसे कभी बचपन में मैंने टच भी नहीं किया था। ..तो मारवाडी होना मेरे प्रोफेशन में सहायक ही रहा।
अन्य भाई-बहनों को भी कुकिंग में दिलचस्पी थी?
हम चार भाई-बहन हैं। एक भाई और बहन मुझसे बडे हैं और एक छोटी बहन है। सभी को खाने का शौक है। भाई तो खाने का बहुत शौकीन है। एक बार की बात है.., मेरी मां वृंदावन से लौटी थीं। भाई पिज्जा ट्राई कर रहा था। उसने ट्रायल में ही कनस्तर में भरा पचास किलो आटा खत्म कर दिया। बाद में इस पर हंगामा भी हुआ। मेरा भाई हमेशा सबसे कहता था कि मां को खाना बनाना नहीं आता है। इस पर मां कहती थी कि यह बात सबको न बताए। (हंसते हुए) असलियत यही थी कि वह खाना बनाना नहीं जानती थीं। मेरी कई पंजाबी दोस्त खाना लाती थीं, राजमा-चावल..। मैं झूठ बोलती थी कि खाना मां ने बनाया है, क्योंकि यह बताने में शर्म महसूस होती थी कि महाराज ने खाना बनाया है। कई बार मैं खाना बनाती थी। हम भाई-बहन खाना एंजॉय करते थे। सभी एक्सपेरिमेंट करते थे। एक बार मां ने गुस्से में कहा कि वह खाना बनाएंगी। उन्होंने दही-आलू की सब्जी बनाई। जब हम स्कूल से लौटे तो देखा कि सब्जी में दही फट चुका था, लेकिन वह बोलती रहीं कि हमें यही खाना होगा.. (जोर से हंसते हुए)।
आपने लंदन में पहला रेस्टरां खोला, फिर दिल्ली कैसे आई?
1996 की बात है। मैं 24 साल की थी। रेस्टरां खोलना था तो मैंने सामान बांधा और लंदन चली गई। उन दिनों एक अखबार के लिए कॉलम भी लिखती थी। ..शेफ न होती तो मैं शायद राइटर होती। लंदन में शेफ का बहुत सम्मान है। दिल्ली में तो बावर्ची, डोमेस्टिक हेल्पर और शेफ सबकी हैसियत एक सी है। दिवा खोला था तो किसी ने मुझे ऑफर किया कि अच्छा तो आप शेफ हैं? आप हमारे यहां काम करें, 25 हजार रुपये सैलरी देंगे, रहने की जगह भी देंगे। (जोर से हंसते हुए) और वे आज भी मेरे नियमित गेस्ट हैं। लेकिन लंदन में लोग सम्मान करते हैं। वहां मैंने सीखा कि रेस्टरां कैसे चलाया जाता है। हालांकि वहां खर्च बहुत ज्यादा हैं। मेरे निर्णय से परिवार वाले और दोस्त नाखुश थे, लेकिन मैं विफल व्यक्ति की तरह नहीं, विजेता की तरह लौटना चाहती थी। हालांकि पहले दिन से ही मैं वहां परेशान होने लगी थी। मौसम रास नहीं आया। रोज घर फोन करती थी, बडा अमाउंट इसमें खर्च हो जाता था। धीरे-धीरे मैनेज करना सीखा। मेरा रेस्टरां उस वक्त शहर के टॉप रेस्टरां में था, जब मैंने दिल्ली लौटने के बारे में सोचा। ..देखिए, रेस्टरां एक पर्सनैलिटी बेस्ड बिजनेस है। मैंने इसे पूरी सफलता के दौरान छोडा और मैं खुश हूं।
..कभी यह खयाल नहीं आया कि कुछ और करना चाहिए?
मैं दो काम ही कर सकती थी। या तो पिता के साथ उनके मार्बल बिजनेस में हाथ बंटाती या रेस्टरां चलाती। दिल्ली आई तो पहले मैं ब्रूरी सेट करना चाहती थी, महाराष्ट्र में जमीन और जरूरी मशीनरी भी लगा ली थी। फिर अचानक लगा कि अगर मुझे यही सब करना था तो पापा का काम क्या बुरा था! मैं उद्योगपति तो बनना नहीं चाहती, वह करना चाहती हूं जो मेरा पैशन है। इसलिए मैंने प्रोजेक्ट बेच दिया, घूम-फिर कर वहीं पहुंच गई, जहां खुश रह सकती थी।
..पहले मैंने सोचा था कि हाफ रेस्टरां और हाफ बुकशॉप खोलूंगी। बुक्स होंगी तो खूब पढूंगी। बचपन में मेरी पॉकेटमनी किताबों पर खर्च होती थी। मैं सोचती थी कि बुकशॉप वाला सेकंडहैंड दाम पर किताबें खरीद ले तो मेरे पास कुछ पैसे बच जाएं और मैं नई किताबें ले लूं। मैं राइटर या डीजे हो सकती थी। मुझे लिखना पसंद है, इसे मैं एंजॉय करती हूं।
आप पिछले 20 साल से फूड इंडस्ट्री में हैं। भारतीयों की फूड हैबिट्स में क्या बडे बदलाव महसूस किए आपने?
जबर्दस्त चेंज आए हैं। मैं अभी मेज्जालुना और दिवा के पुराने और नए मेन्यू देख रही थी। बदलाव देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गई कि मेन्यू कैसे प्रोग्रेस हो रहा है। खाने वालों की अपेक्षाएं बहुत बदल गई हैं। जब मैं शुरू में इटैलियन खाना सर्व करती थी तो लोगों को समझ नहीं आता था। स्मोक्ड सालमन सर्व करती तो वे कहते थे ठंडी मछली क्यों है? दिवा में पहली बार ट्रफल्स लेकर आई तो सारा का सारा अकेले खाना पडा। एक व्यक्ति ने इसे ऑर्डर किया, मगर फिर बोला कि इसमें बदबू आती है। आज हम सीजन में हर हफ्ते ट्रफल्स इंपोर्ट करते हैं। दिवा देश का पहला रेस्टरां था, जहां वाइनलिस्ट था। उस समय हर रेस्टरां में इंडियन, इंपोर्टेड, रेड या व्हाइट वाइन ही होती थी। हम पहले लोग थे, जिनके पास प्रॉपर वाइनलिस्ट था। महीने की मेरी 25 बॉटल्स बिक जाती थी। आज मेरी 80 फीसदी वाइनलिस्ट इटैलियनसेंट्रिक हैं। लोग जागरूक हुए। मार्केट बदला। मेरे चाहने से नहीं, बल्कि बाजार की ताकतों के कारण यह बदलाव हुआ। पैलेट्स बदले, डिस्पोजेबल इनकम बढी, लोगों ने खर्च करना सीखा है। एक यंग कपल की इनकम 20-30 हजार रुपये प्रतिमाह है तो वह भी बाहर खाना चाहता है। ..पैलेट्स, यात्राएं, रोमांच और इच्छाएं बढी हैं।
..आप इतनी यात्राएं करती हैं, आपकी क्विजीन पर इसका क्या प्रभाव पडता है?
हर बार जब मैं बाहर जाती हूं, मुझे कुछ नया करने की प्रेरणा मिलती है। ऐसा नहीं होगा तो बोरियत हो जाएगी। मुझे हमेशा नया चाहिए..। मेरे फील्ड में पैसा भी है, लेकिन वह सेकंडरी चीज है, उससे पहले यह मेरा पैशन है। यात्राओं से मेरे जीवन में रोमांच और प्रेरणा है। यह जरूरी है वर्ना बिजनेस खत्म हो जाएगा। मैं इंतजार करती हूं कि कैसे बाहर भागूं और नया सीखूं, नए एक्सपेरिमेंट करूं। कैटरिंग केलिए बाहर जाती हूं तो दुनिया के अन्य शेफ से मिलती हूं, नए खाने ट्राई करती हूं। कैफे दिवा और लेटिट्यूड का मेन्यू देखें तो मैं पूरी तरह इटैलियन ही सर्व नहीं करती। दिवा में मलेशियन कढी, सिंधी कढी, लेबनीज बर्गर, वियतनामी स्प्रिंग रोल, इटैलियन पिज्जा..एक बार तो आलू-पेठे की सब्जी-कचौडी भी सर्व की..। हर वह खाना जो मुझे पसंद है, मैं उसे सर्व करती हूं, भले ही वह कहीं का हो। ..महत्वपूर्ण बात यह है कि मैंने इटैलियन में दुनिया के हर स्वाद का समावेश किया है। दो साल पहले मैं जोर्डन गई थी। वहां केस्वाद को भी मैंने इसमें शामिल किया। यात्राओं से कुछ मिलता है.., यह अच्छी बात है।
आलू-कद्दू की सब्जी-कचौडी अब भी आपकी फेवरिट है?
बिलकुल, लेकिन मैंने इसमें थोडा ट्विस्ट किया है। मैं कचौडी के बजाय मालाबारी पराठा साथ में सर्व करती हूं। सब्जी में पंचफोडन के साथ ही कोकोनट मिल्क का प्रयोग करती हूं। यह कोस्टल वर्जन है।
आप रेस्टरां चला रही हैं, फूड प्रोग्राम्स करती हैं, किताबें लिखती हैं.., इतने काम एक साथ कैसे मैनेज करती हैं?
टीवी शोज साल में सिर्फ15 दिन करती हूं। टीवी मैंने 2008 में शुरू किया था। पहले मैं सोचती थी कि जो शेफ टीवी में दिखते हैं ये फेक हैं। किताबें लिखेंगे तो खाना कब बनाएंगे! फिर सोचा कि लोगों में जागरूकता लानी चाहिए। लिहाजा मैंने चार एपिसोड पर हामी भरी, इनमें एक इटैलियन इन्ग्रीडिएंट्स पर था। चार से आठ, फिर 24 हुए..इनकी संख्या बढती गई, लेकिन सिर्फ 15 दिन..। इससे ज्यादा करूंगी तो एडिक्शन हो जाएगा। कितना भी कहूं कि मुझे फर्क नहीं पडता, मगर मन में यह दबी इच्छा तो रहती है कि लोग तारीफ करें। यह मानवीय स्वभाव है कि हम चाहते हैं लोग हमें जानें-पहचानें। लेकिन यह शोहरत थोडे समय की होती है, जबकि मेरी पहचान मेरे रेस्टरां से है, टीवी शोज से नहीं। हां, लिखना मुझे पसंद है। मेरी दोस्त ने मुझे लिखने की सलाह दी। काम से घर लौटकर मैं लिखती थी। पहले ड्राफ्ट के बाद उसे दिखाया तो उसने कहा, यह तो ठीक नहीं, इसे दोबारा लिखना होगा। तुमने जिन सामानों के बारे में लिखा है, कितनी भारतीय किचन में ये सब आधुनिक सामान हैं? इटैलियन के बारे में लिखो लेकिन ध्यान रखो कि यह भारतीय किचन को सूट करे। रात में एक घंटे लिखना मेरे लिए सुकून का एक माध्यम भी है।
आपका काम कस्टमर बेस्ड है। कस्टमर की संतुष्टि सबसे पहले है। यह दबाव रहता होगा कि कोई असंतुष्ट होकर न लौटे..
नहीं, मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। मैं मानती हूं कि कस्टमर महत्वपूर्ण है, लेकिन वह हमेशा सही नहीं होता। सबसे महत्वपूर्ण चीज परिश्रम का सम्मान करना है। अगर कस्टमर हमारे काम का सम्मान नहीं करता, वह हमारे प्रयासों, जज्बे और कठिन मेहनत की सराहना नहीं करता तो वह ठीक नहीं है। अगर वह मेरे रेस्टरां में आता है तो मेरी जिम्मेदारी है कि अपने स्तर पर उसे शिकायत का कोई मौका न दूं, वह सुकून से कुछ पल यहां बैठने आया है। उसने मुझे चुना है तो यह मेरी नैतिक जिम्मेदारी है कि उसे वह संतुष्टि दे सकूं। लेकिन फिर, एक चीज उसे भी सीखनी चाहिए और वह है- आत्मसम्मान। जो लोग रेस्टरां में सर्व कर रहे हैं, उन्हें भी सम्मान का हक है, उनके काम का भी सम्मान होना चाहिए। दिवा का सिद्धांत है कि कस्टमर को खुशी दें लेकिन यह भी याद रखें कि वह हमेशा सही नहीं होता।
जो लडकियां इस फील्ड में आना चाहती हैं, उन्हें क्या कहेंगी?
जुनून, रचनात्मकता और कठिन मेहनत के लिए मानसिक तैयारी..यह जरूरी है। स्त्रियों में तो खाना बनाने का गुण जन्मजात होता है, लेकिन दुर्भाग्य से यह पुरुष वर्चस्व वाला क्षेत्र है। पूरी दुनिया में केवल ढाई फीसदी महिला शेफ हैं। कारण है- ज्यादा शारीरिक परिश्रम, काम के ज्यादा घंटे, यात्राएं। अगर लडकी होममेकर है तो उसे परिवार और बच्चों का भी खयाल रखना होता है। ऐसे में यह उनके लिए मुश्किल इंडस्ट्री है। लेकिन एक बार अगर आपने सोच लिया कि शेफ बनना है तो फिर यह एडिक्शन की तरह है, जिसे आप नहीं छोड सकते।
अपनी पहचान बनाने का सुख क्या है?
मान लें, मैंने आपको खाना खिलाया, आपने पेमेंट की। आपको हमारा प्रयास इतना पसंद आया कि अगले दिन आपने मुझे फूलों के साथ एक छोटा सा थैंक यू नोट भेजा.., शायद मैं अटेंशन सीकर हूं, लेकिन मेरा सुख तो इसी में है न कि मैं जो मेहनत कर रही हूं, जिस जज्बे को जी रही हूं, उसका मुझे कोई रिवॉर्ड भी मिले। ऐसे कितने काम हैं, जिनमें तुरंत रिवॉर्ड मिलता है? मगर मेरा काम ऐसा है। मेरे खाने की तारीफ होती है तो यही मेरी सफलता है-यही मेरी पहचान है।
जीवन में कोई कमी महसूस करती हैं?
नहीं। केवल एक इच्छा होती है कि कभी यूनिवर्सिटी लाइफ एंजॉय कर पाती। मैं जल्दी बडी हो गई। जीवन की शिक्षा मेरे पास है। यात्राएं मेरा स्कूल हैं। शायद समय होता तो मैं यूनिवर्सिटी भी जाती, केवल ज्ञान और रोमांच के लिए। 11-12वीं कक्षा में मेरी उपस्थिति इतनी कम थी कि परीक्षा में बैठने के लिए पिता को डोनेशन देना पडा। मैं छोटी उम्र में प्रोफेशनल दुनिया में आ गई। हो सकता है रिटायरमेंट के बाद पढूं। कुछ करने के लिए कभी देर नहीं होती। मैं भाग्यशाली हूं कि ऐसा काम ढूंढ पाई, जिसमें मजा ले सकूं। ऐसे कितने लोग हैं जो अपने काम से प्यार कर पाते हों या उन्हें ऐसा काम मिलता हो!
किस्मत पर भरोसा करती हैं?
हां। मैं मानती हूं जो कुछ हो रहा है, वह पहले से तय है, लेकिन मैं अंधविश्वासी नहीं हूं। ईश्वर एक है और मैं उससे डरती हूं। मुझे भरोसा है कि अंत में हर चीज संतुलित और सही हो जाती है।
प्रगति गुप्ता