Move to Jagran APP

उम्मीदों से रोशन है जि़ंदगी

अगर हमें कुछ पलों के लिए भी अंधेरे में रहना पड़े तो घबराहट से दम घुटने लगता है, पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें ताउम्र रोशनी की एक किरण भी मयस्सर नहीं होती। दिल्ली की बिन्नी कुमारी की जि़ंदगी भी कुछ ऐसी ही है, पर उन्होंने दृष्टिï बाध्यता को कामयाबी की राह में रुकावट नहीं बनने दिया। यहां वह ख़्ाुद ही बयां

By Edited By: Published: Mon, 01 Feb 2016 03:43 PM (IST)Updated: Mon, 01 Feb 2016 03:43 PM (IST)
उम्मीदों से रोशन है जि़ंदगी

अगर हमें कुछ पलों के लिए भी अंधेरे में रहना पडे तो घबराहट से दम घुटने लगता है, पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें ताउम्र रोशनी की एक किरण भी मयस्सर नहीं होती। दिल्ली की बिन्नी कुमारी की जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है, पर उन्होंने दृष्टि बाध्यता को कामयाबी की राह में रुकावट नहीं बनने दिया। यहां वह ख्ाुद ही बयां कर रही हैं, अपने जीवन की कहानी।

loksabha election banner

अकसर लोग मुझसे पूछते हैं कि दृष्टिहीनता के बावजूद आपका जीवन इतना व्यवस्थित कैसे है? तब मैं लोगों से यही कहती हूं कि यह सब एक दिन में संभव नहीं हुआ। इसके लिए मैं बचपन से ही कडी मेहनत करती आ रही हूं और आगे भी करती रहूंगी।

बचपन के वो दिन

मैं मूलत: बुलंदशहर के पास स्थित एक छोटे से गांव की रहने वाली हूं। हम कुल छह भाई-बहन हैं और मैं जन्मजात रूप से दृष्टिहीन हूं। मेरे पिता किसान हैं। वह ख्ाुद ज्य़ादा पढे-लिखे नहीं हैं, पर मेरे भविष्य को लेकर बहुत ज्य़ादा चिंतित रहते थे। लिहाजा उन्होंने साढे चार साल की उम्र में ही दिल्ली के 'नेशनल एसोसिएशन फॉर द ब्लाइंड में मेरा दाख्िाला करवा दिया। वहां मेरी तरह के जन्मजात दृष्टिहीन बच्चों को छोटी उम्र से ही रोजमर्रा के जीवन से जुडे सभी कार्यों की ट्रेनिंग दी जाती है। साथ ही वहां स्कूल जाने से पहले बच्चों को अच्छी तरह प्रशिक्षित किया जाता है, ताकि वहां उन्हें कोई परेशानी न हो। इस तरह मैं ब्रेल लिपि में पढऩा-लिखना भी सीख गई थी। वह रेजिडेंशियल स्कूल था। इसलिए केवल लंबी छुट्टियों में ही घर जाना हो पाता था। अपने बचपन के उन दिनों को मैं आज भी भूल नहीं पाती, जब भी हमारे घर में कोई मेहमान आता था तो परिवार के बडे-बुजुर्ग मुझे उसके सामने से हटा देते थे। तब मुझे बहुत दुख होता क्योंकि मैं भी आम बच्चों की तरह सबसे मिलना-जुलना और बातें करना चाहती थी।

ख्ौर, वक्त अपनी रफ्तार से चलता रहा। पांचवीं कक्षा तक मैं ब्रेल में ही परीक्षा देती थी। उसके बाद जब सिलेबस बढ गया तो स्कूल ने परीक्षा के दौरान मेरे लिए राइटर की व्यवस्था करवा दी। मेरी स्कूली शिक्षा वसंत कुंज स्थित दिल्ली पुलिस पब्लिक स्कूल से पूरी हुई। इसके बाद आइपी कॉलेज फॉर वुमन से मैंने पॉलिटिकल साइंस ऑनर्स के साथ ग्रेजुएशन किया। उसके बाद कंप्यूटर एप्लीकेशंस में एक साल का डिप्लोमा कोर्स किया। इसके बाद आईवे नामक संस्था के साथ जुडकर मैंने काम शुरू किया। जिन लोगों की दृष्टि धीरे-धीरे क्षीण हो रही होती है, हमारी संस्था उन्हें इस समस्या के साथ जीना सिखाती है। अपने ही जैसे लोगों के लिए काम करके मैं बहुत ख्ाुश थी। चार वर्षों तक यहां जॉब करने के बाद अब मैं इसी संस्था की हेल्प डेस्क पर ऑपरेशंस मैनेजर के पद पर कार्यरत हूं और ऐसी ही पांच-छह संस्थाओं के काउंसलर्स के साथ मिलकर को-ऑर्डिनेशन का काम करती हूं।

चुभती हैं जो बातें

उम्र के 27वें वर्ष में भले ही अब मैं आत्मनिर्भर बन चुकी हूं, पर मुझे यह देख कर बहुत दुख होता है कि डिफरेंटली एबल लोगों के प्रति समाज का नजरिया अब भी नहीं बदला। यहां एक ऐसे ही अनुभव का जिक्र करना चाहूंगी। कॉलेज के दिनों में ऑप्शनल सब्जेक्ट के रूप में मैं साइकोलॉजी का चुनाव करना चाह रही थी। जब मैं इस डिपार्टमेंट की एक टीचर से मिलने गई तो उन्होंने मुझसे बहुत तल्ख्ा लहजे में कहा कि यह सब्जेक्ट तुम्हारे लिए नहीं है। यह बात सही ढंग से भी कही जा सकती थी, पर उन्होंने जिस अंदाज में यह बात कही थी, उससे मुझे बहुत दुख हुआ।

वक्त ने जीना सिखाया

मैं तो इस बात में यकीन करती हूं कि राह में आने वाली मुश्किलें भी हमें बहुत कुछ सिखा जाती हैं। पहले मेरा हॉस्टल ऑफिस से बहुत दूर था और वह रास्ता भी काफी असुरक्षित था। इसी असुविधा से बचने के लिए अब मैंने ऑफिस के पास ही किराये पर फ्लैट ले लिया है। मेरी रूममेट नीतू बहुत सहयोगी स्वभाव की है। मैं रोजाना एक ही रिक्शे से ऑफिस जाती हूं और रिक्शे वाले का मोबाइल नंबर भी मेरी रूममेट के पास भी होता है, ताकि आकस्मिक स्थिति में कोई परेशानी न हो। घर के ज्य़ादातर काम मैं ख्ाुद ही करती हूं। रूममेट की मदद से मैं अपनी वॉर्डरोब इस ढंग से अरेंज करती हूं कि सप्ताह के हर दिन अलग कलर की ड्रेस पहनकर ऑफिस जा सकूं।

टेक्नोलॉजी है मददगार

यह अच्छी बात है कि समय के साथ दृष्टिहीन लोगों की मुश्किलें आसान होती जा रही हैं। अब तो पेनफ्रेंड लेबलर नामक नया डिवाइस आ गया है। इसके साथ आरएफआइडी नामक स्टिकर्स भी आते हैं, जिन्हें किचन में रखे डिब्बों पर चिपका दिया जाता है। फिर मैं उस लेबल के सामने डिवाइस रखकर उस चीज का नाम बोल देती हूं, उसमें मेरी आवाज रिकॉर्ड हो जाती है। फिर जब भी किचन में किसी सामान की जरूरत होती है तो मैं उस डिवाइस को डिब्बे के लेबल से टच करा देती हूं तो वह मुझे बोलकर बता देता है कि उस डिब्बे में कौन सा सामान है। इसी तरह एक और नया सॉफ्टवेयर भी आ गया है। इसकी ख्ाासियत यह है कि इससे स्कैन करने के बाद यह पेज के टेक्स्ट को ऑडियो फॉरमेट में बदल देता है। इससे हमारे लिए कोई भी चीज सुनकर समझना आसान हो जाता है।

आत्मनिर्भरता है जरूरी

यह सच है कि टेक्नोलॉजी काफी हद तक हमारे लिए बहुत मददगार साबित होती है, पर कुछ परेशानियां ऐसी भी हैं, जिनका समाधान किसी भी वैज्ञानिक के पास नहीं मिलेगा। मसलन डिफरेंटली एबल लोगों के प्रति समाज का संकुचित दृष्टिकोण। लोग अकसर यही मानकर चलते हैं कि दृष्टिहीन बेबस और लाचार हैं। लोग यह भूल जाते हैं कि हमारे मन में भी प्रेम की भावना होती है, हम भी अपना घर बसाना चाहते हैं, पर लोगों के मन में इस बात को लेकर गहरा टैबू है कि िफजिकली चैलेंज्ड लडकियां घर के काम नहीं कर सकतीं, इसलिए वे परिवार के लिए बोझ साबित होती हैं। अगर कोई व्यक्ति ऐसी लडकी से शादी करने को तैयार भी हो जाए तो उसके मन में हमेशा यही भावना रहती है कि 'मैंने उस लडकी पर एहसान किया है। इसीलिए डिफरेंटली एबल लडकियों के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता बहुत जरूरी है। अकेलापन किसी को भी रास नहीं आता। इसलिए भविष्य में मैं भी शादी करना चाहूंगी, पर यह तभी संभव होगा जब मुझे कोई ऐसा सच्चा और ईमानदार पार्टनर मिले, जो मुझे मेरी ख्ाामियों के साथ अपनाने को सहर्ष तैयार हो। वैसे, मुझे जिंदगी से कोई शिकायत नहीं, मैं हर हाल में ख्ाुश रहना जानती हूं।

कैसी होती है यह दुनिया

अकसर हमारे मन में यह स्वाभाविक सी उत्सुकता होती है कि जन्मजात रूप से दृष्टिहीन लोगों की जिंदगी कैसी होती होगी? रोशनी, अंधेरे और रंगों को लेकर उनके मस्तिष्क में कैसी छवि अंकित होगी ? नींद में उन्हें सपने कैसे दिखते होंगे? ऐसे ही कुछ सवालों पर बिन्नी से विस्तृत बातचीत हुई और उन्होंने जो कुछ भी बताया वह काफी हैरतअंगेज था। यहां हम आपके साथ शेयर कर रहे हैं उसी बातचीत का सारांश, बिन्नी के ही शब्दों में ...

आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि मुझे रोशनी का आभास तक नहीं होता। मान लीजिए कमरे में बैठी हूं और कोई व्यक्ति लाइट बंद कर दे तो मुझे इसका पता भी नहीं चलेगा। हां, इसे आप कुदरत का करिश्मा कह सकते हैं कि अगर किसी व्यक्ति में कोई शारीरिक अक्षमता होती है तो उसके शरीर के दूसरे अंग ज्य़ादा सक्रिय और संवेदनशील हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर मैं रोज सुबह पूजा करने के लिए माचिस से अगरबत्ती जलाती हूं तो मुझे स्पार्क की आवाज से यह अंदाजा हो जाता है कि तीली जल गई , फिर अगरबत्ती को उसके पास ले जाती हूं तो उसके धुएं की ख्ाुशबू से मुझे यह मालूम हो जाता है कि अब अगरबत्ती भी जल चुकी है। इसी तरह हमारे जैसे लोगों के दिमाग में रंगों की कोई इमेज नहीं होती, लेकिन हाथों से छूकर हम हर चीज के आकार को स्पष्ट रूप से पहचान लेते हैं और उसे कभी नहीं भूलते। जैसे मेरे सामने कोई सेब या बर्फ जैसे शब्द बोलता है तो मुझे उसी पल सेब का आकार और स्वाद याद आ जाता है। उसी तरह बर्फ के लिए मेरे दिमाग में ठंडी, कठोर, हलकी गीली छवि अंकित है। आपको यह जानकर हैरत होगी कि जन्मजात रूप से दृष्टिहीन लोगों को सपने दिखाई नहीं, बल्कि सुनाई देते हैं। युवावस्था में दृष्टि खोने वाले लोगों के सपने में इमेज तो दिखती है, पर वक्त के साथ वह छवि धुंधली पडऩे लगती है। कुल मिलाकर हमारे आसपास आवाज, गंध, स्वाद और स्पर्श से मुकम्मल एक भरी-पूरी दुनिया है, जिसकी मदद से हम इस जिंदगी की धूप-छांव को बहुत अच्छी तरह महसूसते हैं। जिस तरह लोगोंं की दो आंखें होती हैं, उसी तरह हम अपनी दस उंगलियों की आंखों से इस दुनिया को देखते हैं।

प्रस्तुति : विनीता


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.