अपनी क्षमता पहचानने से मिलती है खुशी - शिखा शर्मा
हेल्थ और फिटनेस की दुनिया में चर्चित नाम है डाइट एवं वेलनेस एक्सपर्ट डॉ. शिखा शर्मा का। इलाज से बेहतर है एहतियात, इसी पुरानी कहावत को अंजाम तक पहुंचाने में जुटी हैं शिखा। वह मानती हैं कि सौंदर्य और सेहत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जागरण सखी की संपादक प्रगति गुप्ता के साथ उनसे एक मुलाकात।
सेहत है तो सब-कुछ है। स्वस्थ और फिट हैं तो जिंदगी के हर उतार-चढाव का सामना मजबूती से कर सकते हैं, यह मानना है डॉ. शिखा शर्मा का। आत्मविश्वास व ऊर्जा से भरपूर प्रगतिशील सोच वाली शिखा जब अपने काम के बारे में बताती हैं तो उनके जुनून के साथ-साथ ईमानदारी भी साफ झलकती है। परिवार का साथ हो, कुछ नया करने का जज्बा हो और जीवन से हमेशा सीखने को तैयार हों तो अपना भाग्य खुद बना सकते हैं। भाग्य की तुलना वह विडियो गेम से करती हैं, जिसमें कई स्तर हैं। निर्भर करता है कि आप हर स्तर पर कैसे खेलते हैं।
शिखा, आप मेडिकल डॉक्टर थीं, फिर इस लाइन में कैसे शिफ्ट किया?
हम लोग कश्मीर के हैं, वहां से मेरा परिवार दिल्ली आया। मेरा जन्म और पढाई-लिखाई यहीं हुई। मॉडर्न स्कूल के बाद मैंने मेडिसिंस किया और जी.बी. पंत हॉस्पिटल के कार्डियोलॉजी डिपार्टमेंट में आई। उस वक्त मेरी उम्र कम थी। पहली पोस्टिंग आइसीयू में हुई। वहां हम रोज मरीजों को जिंदगी की लडाई लडते और मरते देखते हैं। काफी भावनात्मक दबाव होता है वहां। युवावस्था में किसी की मौत देखने से धक्का भी लगता है। मरीज आइसीयू में आता है तो उसकी जिंदगी बचाना हमारा पहला काम होता है।
तीन-चार मिनट में सारे काम करने होते हैं। सरकारी हॉस्पिटल्स में मैनेजमेंट भी सही नहीं होता। हम डॉक्टर्स भाग-भाग कर ब्लड सैंपल लाते, टेस्ट करते, दौड-भाग करके सारा काम करते थे। इतनी मेहनत के बाद भी मरीज को न बचा पाते तो दुख होता। मैंने सोचा कि हार्ट अटैक की वजहें हम लोगों को क्यों नहीं समझा पा रहे हैं? हम पहले ही बचाव क्यों नहीं करते? मरीज को क्यों समझ नहीं आता कि डाइट और लाइफस्टाइल के कारण ऐसा हो रहा है? ठीक होने के बाद उनकी लाइफस्टाइल पहले जैसी हो जाती है। एक और बात मुझे लगी कि डॉक्टर व न्यूट्रिशनिस्ट के बीच गैप है। तब मुझे लगा कि डॉक्टर के तौर पर मेरी जिम्मेदारी है कि प्रिवेंटिव हेल्थ केयर के लिए काम करूं। इसे नजरअंदाज किया जा रहा है। इसमें डाइट, न्यूट्रिशन, स्लीप पैटर्न, लाइफस्टाइल, एक्सरसाइज सब आता है। वर्ष 1992 में मेडिसिंस करने के बाद मैंने दो-तीन साल डॉक्टर की तरह काम किया। फिर क्लिनिक चलाया जो सफल नहीं रहा। फिर कुछ समय बाद दोबारा काम शुरू किया। धीरे-धीरे काम बढा..।
भारत की तुलना दूसरे देशों से करें तो यहां हेल्थ व न्यूट्रिशन के स्तर पर क्या कमी दिखती है?
खासतौर पर स्त्रियों की सेहत की बात करें तो.. हमारे यहां हेल्थ और न्यूट्रिशन का संबंध सौंदर्य से ज्यादा है। जबकि दूसरे देशों में स्त्रियां हेल्थ व न्यूट्रिशन पर ध्यान देती हैं।भारत में हेल्थ पर स्त्रियों का ध्यान होता भी है तो वह ब्यूटी के लिए होता है। वे वेट लॉस की ओर ज्यादा आकर्षित होती हैं। स्वास्थ्य को लेकर सजगता धीरे-धीरे आएगी।
आजकल ओबेसिटी, ब्लडप्रेशर, डायबिटीज की समस्या बहुत देखी जा रही है। कहा जा रहा है कि जल्दी ही भारत डायबिटिक हब बन जाएगा। ऐसा क्यों हो रहा है?
भारत में कई दिक्कतें हैं। यहां हम खाने में तेल बहुत इस्तेमाल करते हैं। रिफाइंड ऑयल में केमिकल्स इस्तेमाल होते हैं। सक्रिय रहना और व्यायाम करना आदत में शामिल नहीं है। इसके अलावा स्त्रियों के खिलाफ अपराध बढ रहे हैं, इस वजह से भी वे घरों में सिमट गई हैं। टॉक्सिक ऑयल है, क्वॉलिटी ऑफ फूड घट रहा है, व्यायाम की कमी है और जंक फूड का चलन बढा है। आम भारतीय स्त्री के लिए मनोरंजन व रोमांच के दो ही साधन हैं-या तो घर में बैठे-बैठे टीवी देखे या जंक फूड खाए। ऐसी दिनचर्या में भारतीय हाउसवाइव्ज सबसे ज्यादा बीमार हो रही हैं। यदि हम लडकियों को स्कूल-कॉलेज में खानपान के बारे में सही जानकारी दें, उन्हें योग, नृत्य, व्यायाम सिखाएं तो भविष्य में सुधार की गुंजाइश हो सकती है। मेरा मानना है कि स्त्री परिवार की धुरी है। स्त्रियों तक सही जानकारी पहुंचाना जरूरी है। वे जागरूक होंगी तो परिवार भी स्वस्थ होगा। उन्हें घर में ही रह कर डांस, योग और एक्सरसाइज के बारे में बताएं। हमारे यहां स्त्री से त्याग की अपेक्षा की जाती है। अगर वह अपने बारे में सोचे तो उसे स्वार्थी माना जाता है। नतीजा यह है कि उनकी सेहत बिगड जाती है।
क्या आपको नहीं लगता कि युवा हेल्थ को लेकर जागरूक हैं?
केवल लडके.., लडकियां तो सिर्फ डाइटिंग करती हैं। वे कम खाती हैं और जंक खाती हैं। लडके जिम जाते हैं, मगर लडकियां वहां कम दिखती हैं। परिवार भी लडकों पर ध्यान देता है, लडकियों पर नहीं..। हालांकि हमारी 80 प्रतिशत क्लाइंट्स स्त्रियां हैं। इनमें नौकरी वाली स्त्रियां ज्यादा हैं। एजुकेटेड हाउसवाइव्ज भी हैं। इसमें भी एक पैटर्न दिखता है कि वे पतली दिखना चाहती हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने वजन कम करने के लिए पेमेंट की है तो उन्हें जल्दी नतीजे मिलें। उन्हें यह समझाना बडी चुनौती होता है कि आप खुद पर ध्यान दें, हेल्दी तरीके से वेट लॉस करें, तभी फायदा होगा। नौकरी करने वाली स्त्रियां अपना ध्यान रखती हैं, स्वस्थ तरीके आजमाती हैं। एक ग्रुप और है, जो बेटियों को शादी के लिए दुबला बनाना चाहता है, क्योंकि लडकों को ऐसी लडकियां भाती हैं। लडकियां पति के लिए दुबली दिखना चाहती हैं। वे स्वस्थ रहना भी चाहती हैं तो उसके तरीके गलत होते हैं।
आप हेवी एक्सरसाइज के पक्ष में नहीं हैं..
हां, हम हेवी एक्सरसाइज करने को नहीं कहते। हम स्त्रियों से कहते हैं कि आप सिर्फ खानपान बदलें-वॉक करें। जब वे जिम, वॉक, हेवी एक्सरसाइज करती हैं तो वे कुछ नहीं कर पातीं। ओवरडोज हो जाता है। उन्हें लगता है, अरे इतना पैसा खर्च किया और लाभ भी नहीं हुआ। इससे वे मनोवैज्ञानिक दबाव में आ जाती हैं और उन्हें नुकसान होता है। हम उन्हें सिर्फ दिनचर्या और खानपान बदलने को कहते हैं। वॉकिंग नैचरल एक्सरसाइज है। इसके साथ सही खानपान से लाभ होता है।
आप इतनी व्यस्त रहती हैं। ऐसे में अपने लिए मी टाइम कैसे मैनेज कर पाती हैं?
(हंसते हुए) जब मैं घर जाती हूं तो खामोश रहती हूं, कई बार सबको हैरत होती है। यात्राओं के दौरान अकसर अकेली होती हूं। फ्लाइट्स में या होटल के कमरे में खुद से बात करने का समय मिलता है। अपने बारे में सोचती हूं कि कहां जा रही हूं, क्या कर रही हूं, सही कर रही हूं या नहीं, अपने कल को कैसे बेहतर बना सकती हूं, मेरी कमजोरियां क्या हैं..। रोज खुद को संवार कर आग े बढने की कोशिश करती हूं।
शिखा, आपने अभी कहा कि लडकियों पर कोई ध्यान नहीं देता। आपके परिवार में लडकियों के लिए कैसा माहौल था?
हमारे घर में स्त्रियों के लिए बहुत लिबरल माहौल रहा। मेरे घर में शिक्षा पर बहुत जोर दिया गया। मेरे भाई इंजीनियर हैं-बहन आर्किटेक्ट। यहां तक कि मेरी नानी के घर में भी लडकियों को पूरी आजादी मिली। घर में बुक्स रहती थीं। शायद इसी से हमारी मानसिकता बदली। हमें खुद के बारे में सोचने, अपनी पहचान बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। (हंसते हुए) हां, कुछ प्रतिबंध भी थे। जैसे मेरी मां ने मुझे कभी किचन में नहीं जाने दिया। उन्हें लगता था कि इससे मैं स्त्री की कथित भूमिका में फंस कर रह जाऊंगी। ..मुझे लगता है, बच्चों के विकास में परवरिश की काफी भूमिका होती है। हमारी परवरिश पूरी तरह बराबरी के माहौल में हुई। मैंने अपने भाई से पहले ड्राइविंग सीखी, कार खरीदी। मुझे कभी नहीं कहा गया कि तुम लडकी हो तो तुम्हें यह नहीं मिलेगा। मैंने चाय बनानी सीखी तो मैं टीनएजर थी। मेरे साथ मेरे भाई ने भी सीखी। मगर बाहरी दुनिया में आकर मुझे धक्का लगा कि लडकियों की परवरिश कैसे होती है। उनके अवचेतन मन पर जो संदेश दिए जाते जाते हैं वे कितने उल्टे-पुल्टे हैं..।
एक करियर वुमन के लिए शादी का क्या महत्व है?
हमारे घर में जो शादी का मतलब बताया गया, वह यह कि शादी कंपेनियनशिप है, मजबूरी नहीं। घर में कभी शादी की चर्चा नहीं हुई। हम कभी शादियों में जाते भी थे तो मेहंदी-कंगन वगैरह मना था। हमें कभी नहीं लगा कि शादी न करने से हम अधूरे रहेंगे या माता-पिता पर बोझ बन जाएंगे। बचपन से लेकर आज तक किसी ने पूछा ही नहीं कि तुम कब शादी करोगी? ऐसी बातें तो हमने केवल फिल्मों में ही देखी-सुनी। हमसे यही पूछा जाता था कि बडी होकर क्या बनोगी? यह कभी नहीं कहा गया कि बडी होकर पराये घर जाओगी..।
..लेकिन ऐसा नहीं लगता कि एक समय के बाद हर स्त्री को एक साथी की जरूरत होती है, उसे इमोशनल सपोर्ट चाहिए?
बिलकुल। मगर शादी कंपेनियनशिप के लिए हो। हमारे यहां तो लडकियां उतावलेपन में शादी करती हैं। उम्र निकल रही है, शादी तो करनी ही है। (खेद जताते हुए) फिर शादी बुरी निकलती है तो पछताती हैं। स्त्रियां रचनात्मक होती हैं, पर उनकी क्रिएटिव एनर्जी दब जाती हैं, वे डिप्रेशन में आ जाती हैं, उन्हें बीमारियां घेरने लगती हैं..। हमारे यहां स्त्री-पुरुष के बीच बहुत अंतर है। स्त्री के साथ कुछ गलत हो तो वही शर्मिदा होती है, पुरुष नहीं। तलाक हो तो कहा जाएगा कि उसी की गलती है। हम यह नहीं सोचते कि घर तो दोनों से बनता है, किसी एक से नहीं..। मैंने देखा है कि कई समाजसेवी लडकियों की शादी कराते हैं। मैं पूछती हूं- शादी ही क्यों? शिक्षा क्यों नहीं? लोगों को लगता है, लडकियां पढ-लिख गई तो अच्छा लडका कैसे मिलेगा। तो ये कॉन्सेप्ट हैं..। आज भी कन्या भ्रूण हत्याएं हो रही हैं। राजस्थान में तो यह बहुत ज्यादा है। मुझे लगता है, स्त्रियों को ही अपने लिए जागना होगा, अपने लिए बोलना होगा, अपने जीवन को खुद संवारना होगा। हम पुरुष से यह अपेक्षा नहीं कर सकते। हमें देखना होगा कि हम कहां गलत हैं, कहां अपनी बेटियों के साथ गलत कर रहे हैं। मैं देखती हूं कि लडकियां शादी करते ही हर काम पति से पूछ कर करती हैं। मैं कहती हूं, शादी की है-अपना दिमाग नहीं खोया। अगर स्त्रियां खुद सब मान रही हैं तो दूसरों को दोष नहीं दे सकतीं। उन्हें ही अपनी क्षमताओं को पहचानना होगा। कोई दूसरा यह काम नहीं करेगा..।
एक स्त्री होने के नाते कभी खुद को कमजोर महसूस किया?
नहीं.., कभी कोई मुश्किल नहीं हुई। मेरे पुरुष सहकर्मियों ने हमेशा मेरा साथ दिया। मुझे प्रोत्साहन दिया। शायद यह सिर्फ हमारी सोच है। लेकिन जब हम कहते हैं कि यह पुरुषों का संसार है तो मुझे लगता है कि पुरुषों को भी तो उनकी मांओं ने ही पाला-पोसा है।
आज आप इस मुकाम पर हैं। कोई पछतावा होता है?
(थोडी देर सोचकर) अभी तक तो नहीं, लेकिन हां, कभी सुस्त पड जाऊं तो पछतावा होता है। कभी-कभी लगता है कि काम व जीवन के बीच संतुलन बनाऊं, आराम से काम करूं। फिर सोचती हूं कि नहीं, अभी मेहनत नहीं की तो बाद में पछतावा होगा। खुद को समझाना होता है कि आराम नहीं करना है। इस आइडिया से रोज जूझती हूं।
आप सबको फिटनेस के नियम बताती हैं, अपने लिए आपके फिटनेस रूल्स क्या हैं?
ईमानदारी से कहूं तो कई बार मैंने भी एक आम स्त्री की तरह व्यवहार किया। बिजनेस में उतार-चढाव आते रहते हैं। मेरे जीवन में चार-पांच साल ऐसे आए कि भूल गई कि मेरा भी अस्तित्व है। केवल काम ही करती रही। उन सालों में हेल्थ प्रॉब्लम्स हुई। मुझे बडा आश्चर्य हुआ क्योंकि इससे पहले मुझे कोई समस्या नहीं हुई थी..। लेकिन उस दौरान तनाव, दबाव, खुद की उपेक्षा, सही समय पर खाना न खाना..ये सारी बातें मेरे साथ हुई। जल्दी ही मैंने खुद को संभाला। उसी प्रवृत्ति से घिरी रहती तो सचमुच बहुत कुछ गवां देती।
..इसका बिजनेस पर क्या असर पडा?
बहुत बुरा असर पडा..। मेरे पुराने क्लाइंट्स कहते थे कि आपको क्या हो गया है? बिजनेस में नुकसान हुआ, अंदर-बाहर कई समस्याएं हुई। करप्शन से जूझना पडा। कई तरह की समस्याएं एक साथ सामने आई।
सेहत के लिए युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगी।
उतार-चढाव जिंदगी का हिस्सा हैं। सेहत सही है तो उतार-चढाव का मजबूती से सामना करके सफलता तक पहुंच सकेंगे और ऐसा नहीं होगा तो हार जाएंगे। अपनी सेहत और फिटनेस को कभी नजरअंदाज न करें..। यह बात मैंने खुद के अनुभवों से ही सीखी है।
आपको इतने अवॉर्ड्स मिले, कल्पना चावला अवॉर्ड और कई..। हमारे कॉलम का नाम है-मैं हूं मेरी पहचान। अपनी पहचान बनाने की खुशी क्या है?
अपनी पहचान बनाने की खुशी यह है कि जब आप काम कर रहे हैं, अपने भीतर खुश हैं तो दूसरों से भी प्यार करते हैं। लेकिन जब अपने भीतर अंतद्र्वद्व होता है तो इसका असर बाहरी दुनिया पर भी दिखता है। जब हम अपनी क्षमताओं को पहचानते हैं, हमारे भीतर खुशी जन्म लेने लगती है। हम सबके भीतर अपनी पहचान बनाने की इच्छा है और जैसे-जैसे यह इच्छा बाहर निकलती है-हम एक बेहतर इंसान बनने लगते हैं, हम ज्यादा खुश इंसान बन जाते हैं।
अध्यात्म और धर्म पर कितना भरोसा करती हैं?
मैं धार्मिक हूं। ईश्वर पर मेरी आस्था है। जैसे-जैसे हम बडे व परिपक्व होते हैं, हमें समझ आता है कि हम उस सुपरपावर के हाथ के खिलौने हैं, उसका हिस्सा हैं। जैसे ही हम उस जादुई ताकत पर भरोसा करते हैं, हमारा दबाव कम होने लगता है। वर्ना तो रोज उठते ही जिंदगी की लडाई शुरू हो जाती है। लेकिन एक बार उस पर विश्वास कर लें तो जिंदगी आसान होने लगती है।
भाग्य को मानती हैं?
(हंसते हुए) बहुत अच्छा सवाल है। नियति की मेरी अपनी अवधारणा है। इसकी तुलना मैं विडियो गेम से करना चाहती हूं। इसके छह स्तर हैं। निर्भर करता है कि आप हर नए स्तर पर कितना अच्छा खेल पाते हैं। मुझे लगता है, टेक्नोलॉजी व स्प्रिच्युऐलिटी में बहुत समानता है। शरीर हार्डवेयर है, बुद्धि है-सॉफ्टवेयर, रिटन कोड डीएनए है, सुपर कॉन्शसनेस इंटरनेस सिस्टम है। हमारी स्मृति लोकल रैम का काम करती है। कई बार तो इस समानता पर मुझे बहुत आश्चर्य होता है।
स्वस्थ जीवन के लिए शिखा के पांच नियम
1. योग, मंत्र और संगीत से खुद को तनावमुक्त करें।
2. खूब पानी पिएं। यह शरीर से विषैले पदार्थ बाहर निकालता है। हमारे शरीर के दो तिहाई हिस्से में पानी है।
3. दांतों का खयाल रखें, मीठा छोडें, फल खाएं। इससे चेहरा भी चमकेगा-दमकेगा।
4. कम से कम 7 घंटे अवश्य सोएं। इससे नैचरल हीलिंग होती है।
5. अपने शरीर से प्यार करें, उसकी देखभाल करें, तभी अगले 80-100 वर्षो तक अपनी इच्छाओं और सपनों को पूरा कर सकेंगे।
सखी की संपादक प्रगति गुप्ता
सखी प्रतिनिधि