डिजाइंस में जिंदगी भरता हूं: सत्या पॉल
फैशन की दुनिया का बड़ा ब्रैंड है सत्या पॉल, जो लगभग 30 वर्षों से भारतीय स्त्री की चाहतों के अनुरूप परिधान तैयार कर रहा है। पिछले दिनों दिल्ली में इसके संस्थापक सत्या पॉल से मुलाकात हुई तो फैशन, फेमिनिटी और जीवन-दर्शन के बारे में भी बातें हुईं।
फैशन की दुनिया का बडा ब्रैंड है सत्या पॉल, जो लगभग 30 वर्षों से भारतीय स्त्री की चाहतों के अनुरूप परिधान तैयार कर रहा है। पिछले दिनों दिल्ली में इसके संस्थापक सत्या पॉल से मुलाकात हुई तो फैशन, फेमिनिटी और जीवन-दर्शन के बारे में भी बातें हुईं।
डी जैसे परंपरागत और विशुद्ध भारतीय परिधान को मॉडर्न बनाने में सत्या पॉल की बडी भूमिका है। वह कहते हैं, 'शुरुआत से ही मेरा मकसद था, ऐसी मॉडर्न साडिय़ां बनाना, जिन्हें पहन कर हर स्त्री सुंदर व शालीन दिखे। भारतीय स्त्रियों से मेरा वादा है कि वे इन साडिय़ों को पहनेंगी तो ख्ाुद से आधी उम्र की दिखेंगी। एथनिक ड्रेसेज के साथ ही उन्होंने हैंडबैग्स, क्लचेज, स्काव्र्स भी डिजाइन किए। मेन्स एक्सेसरीज में नेक टाइज, वॉलेट्स, बेल्ट्स और कफलिंक्स तैयार किए। पॉल होम फर्निशिंग लाइन में भी आ गए हैं। कला के मकसद, इसकी प्रेरणा और जीवन-दर्शन को लेकर उनसे हुई लंबी बातचीत के कुछ अंश उन्हीं के शब्दों में।
स्त्री, प्रकृति और फैशन
मेरा मानना है कि प्रकृति की सबसे सुंदर कलाकृति स्त्री है। स्त्री के बिना संसार में न संगीत है, न नृत्य, न सरस्वती, न सुंदरता, न प्रेरणा और न आशीर्वाद। हर कला का आदि और अंत स्त्री है, क्योंकि वह सर्जक है। स्त्री ही मेरी प्रेरणा है। मैंने अपनी रचनात्मकता की शुरुआत स्त्री परिधानों से की, क्योंकि संसार की धुरी स्त्री है। स्त्रीत्व के बिना सब अधूरा व असुंदर है। फेमिनिटी मदर ऑफ डिजाइन है। डिजाइन की परिभाषा व्यापक है। यह सिर्फ कैनवस पर ड्रॉ करना नहीं है। डिजाइंस में हम जिंदगी भरते हैं। मैं आर्टिस्ट हूं, स्केच बनाता हूं। कोई कविता लिखता है या गीत रचता है तो उसमें शब्दों के जरिये जीवन भरता है। कलाकार अपनी कृति में जिंदगी पिरो देता है। सच पूछें तो हमारा जीवन ही डिजाइन से बंधा है, जिसमें संगीत है, सिंफनी है, हार्मनी है...।
पीडा के बिना रचना असंभव
किसी भी रचना की प्रक्रिया आसान नहीं होती। रचनाकार को कडे परीक्षणों से गुजरना होता है। सृजन ध्यान की अवस्था में ही किया जा सकता है। मैं कुछ रचता हूं तो जीवन के साथ पूरा तादात्म्य स्थापित करता हूं। ख्ाुद को रंगों-डिजाइंस की दुनिया में खो जाने देता हूं। इस खोने में पीडा है, मगर प्रेम और अपार ख्ाुशी भी है। क्या प्रेम के बिना संसार में कोई रचना संभव है? हम किसी मां को अपने बच्चे से प्यार करते देखते हैं तो अच्छा लगता है, लेकिन क्या हम समझ पाते हैं कि अपनी ममता के लिए वह कितना दर्द सहन करती है! प्यार में होना पीडा है, पीडा में होना ईश्वर में होना है। यह प्यार ही सृजन करता है। बिना दर्द के कुछ भी नया नहीं गढा जा सकता। जिस तरह मां प्रसव-पीडा सहन करते हुए बच्चे को जन्म देती है, उसी तरह किसी कलाकार को भी वेदना से गुजरना पडता है। उसे जुनूनी बनना पडता है। जब ऐसा होता है, तभी कोई कालजयी रचना जन्म लेती है।
विराम, न कोई अर्धविराम
हर मनुष्य आध्यात्मिकता के साथ पैदा होता है। जिस दिन जन्म लेता है, उसके बाद से ख्ाुद को लगातार बेहतर करता रहता है। संसार से विदा होने तक वह निरंतर काम करता है। जानवर इतना दिमाग नहीं रखते, उनकी मेमरी कम होती है, इसीलिए मनुष्य अलग है। उसके पास दिमाग है, जो हमेशा कुछ नया, अलग, अनूठा और अतिरिक्त चाहता है। दिमाग को निरंतर उसकी ख्ाुराक चाहिए। क्या कोई कहता है कि अब बस हो गया! कोई यह नहीं कहता कि उसे सिर्फ सुबह चाहिए। उसे तो रात भी चाहिए, दोपहर चाहिए, हर मौसम चाहिए... आसमां, जमीं, फूल, रंग सब चाहिए...। यह जीवन-यात्रा ख्ाुद को निखारने-संवारने की ही यात्रा है। हम हमेशा बेहतर....और बेहतर करना चाहते हैं, आगे बढऩा चाहते हैं, इसीलिए जिंदा हैं। ऐसा न हुआ तो हम मर जाएंगे।
...जिंदगी में कहीं पूर्णविराम या अर्धविराम नहीं होता। हम हर क्षण परिपक्व होते हैं, कुछ सीखते हैं, कुछ भूल जाते हैं और कुछ नया अपनाते हैं। चलने का नाम ही जिंदगी है। द्य
प्रस्तुति : इंदिरा राठौर