कविता/पुस्तक समीक्षा
हिंदी और अंग्रेजी साहित्य से पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद पिछले 45 वर्षों से लेखन में सक्रिय हैं शशि गोयल। इनका जन्म मथुरा में हुआ। अब तक कई बाल कथा, बाल गीत संग्रह, कथा संकलन, यात्रा-संस्मरण एवं व्यंग्य संग्रह आदि प्रकाशित। आकाशवाणी व दूरदर्शन से नाटकों,
हिंदी और अंग्रेजी साहित्य से पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद पिछले 45 वर्षों से लेखन में सक्रिय हैं शशि गोयल। इनका जन्म मथुरा में हुआ। अब तक कई बाल कथा, बाल गीत संग्रह, कथा संकलन, यात्रा-संस्मरण एवं व्यंग्य संग्रह आदि प्रकाशित। आकाशवाणी व दूरदर्शन से नाटकों, कहानियों, कविताओं एवं वार्ताओं का नियमित प्रसारण। कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन और कई पुरस्कार प्राप्त। कई समाजसेवी संगठनों से संबद्ध।
संप्रति : आगरा में निवास।
नन्ही बूंद
नन्ही बूंदें चल पडीं
मन में माना मोद
कुछ माटी में जा मिलीं
कुछ फूलों की गोद।
फूलों वाली हंस रही
ता थई गाए राग
माटी वाली विवश सी
देखे अपना भाग।
धधकी माटी बूंद पा
ऐसी हुई निहाल
दोनों बांहों में लिया
बन गई उसकी ढाल।
सूखी माटी में पडा
बीज बहुत हरषाय
बहुत दिनों से आस थी
कोई प्यास बुझाय।
माटी में मिल, मिटा दिया
अपना जीवन-प्राण
लेकिन कितनों को दिया
जीवन और दुख त्राण।
कुछ केवल सुख भोगते
जीवन इनको व्यर्थ
अपने जीवन को मिटा
दे जाते कुछ अर्थ।
डॉ. शशि गोयल
पुस्तक समीक्षा: प्रतिरोध का स्वर
मैत्रेयी पुष्पा ने 'कस्तूरी कुंडली बसै और 'गुडिय़ा भीतर गुडिय़ा शीर्षक से दो खंडों में आत्मकथा लिखी और पाठकों, ख्ाासकर स्त्री पाठकों के मन-मस्तिष्क पर छा गईं। उनके उपन्यास 'इदन्नमम, 'चाक और 'अल्मा कबूतरी को बेहतरीन स्त्री विमर्श उपन्यासों में शामिल किया जाता है। पाठकों के लंबे इंतज्ाार के बाद हाल में उनका उपन्यास 'फरिश्ते निकले प्रकाशित हुआ है। उन्होंने ज्य़ादातर उपन्यासों में हाशिये की स्त्री को नायिका बनाया है और उसके जीवन का मार्मिक चित्रण किया। उनकी नायिकाएं शुरुआत में अपनी नियति मानकर घर-परिवार, समाज द्वारा दी गई यातनाओं को सहती जाती हैं, लेकिन सहनशीलता की सीमा ख्ात्म होते ही मर्दों और मुश्किल हालातों से मुकाबला करने के लिए वे तैयार हो जाती हैं। वे निरक्षर होती हैं, लेकिन बुद्धि-कौशल के मामले में साक्षरों के कान काटती हैं। कुछ ऐसी ही है इस उपन्यास की नायिका बेला बहू। मैत्रेयी ने बेला बहू के बहाने भारतीय पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था की बखिया उधेड कर पाठकों के सामने रख दी है। अलग-अलग हालातों में पुरुषों के हाथों खिलौना बनी बेला बहू इतनी शोषित हुई है कि उसका धैर्य जवाब दे जाता है और नर पिशाचों को ख्ात्म करने के लिए वह बंदूक उठा लेती है। फिर वह दीवान-खाने में सोए हुए भारत सिंह और उसके पांचों भाइयों पर मिट्टी का तेल छिडक कर आग लगा देती है और जेल चली जाती है। शोषण की इंतहा होती है तो मामूली समझे जाने वाले लोग भी इसी तरह प्रतिरोध का स्वर बुलंद करते हैं, ताकि इंसानियत बची रह सके। मेट्रो शहरों में रहने के अभ्यस्त हो चुके लोग भले ही स्त्री-पुरुष की बराबरी की बात मानने लगें, लेकिन स्त्रियों की अधिसंख्य आबादी आज भी हाशिये पर रहने और पुरुष के हाथों शोषित होने पर मजबूर है। मैत्रेयी का यह उपन्यास उन्हें यही याद दिलाने की कोशिश करता है।
'मैं तो चाहती हूं मेरा जुझार ऐसी ही इंसानियत से भरा रहे। उस पर किसी पेशे का असर न आए। हमारी अम्मा कहती हैं, आदमी पेशे में पड कर पेशकार हो जाता है, इंसान रह ही
नहीं पाता। जुझार ऐसे ही बने रहना अपनी अंतरात्मा से कि बसंती तुम पर नाज्ा
करे...।
इसी उपन्यास से
स्मिता