क्या माता-पिता की देखभाल सिर्फ बेटे की जिम्मेदारी है?
आज के माता-पिता परवरिश के दौरान बेटे और बेटी के बीच जरा भी भेदभाव नहीं करते। ऐसे में क्या बेटियों का यह फर्ज नहीं बनता कि वे भी माता-पिता का खयाल रखें।
केयरिंग होती हैं बेटियां
मीरा जैन, उज्जैन
भारतीय संस्कृति में सदियों से यह परंपरा चली आ रही है कि अपने बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल की जिम्मेदारी बेटे ही निभाते हैं, लेकिन जमाना बदल रहा है। आजकल कुछ परिवारों में केवल दो या तीन बेटियां ही होती हैं। ऐसे में उनकी ससुराल वालों को भी यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि उनके बुजुर्ग माता-पिता अपनी बेटी पर ही निर्भर हैं। वैसे भी बेटियां भले ही जॉब करती हों, फिर भी घर के साथ उनका खास तरह का जुडाव होता है और बेटों की तुलना में वे अपनेे माता-पिता की ज्यादा अच्छी देखभाल कर पाती हैं। इसलिए अगर कोई बेटी आर्थिक रूप से सक्षम है तो उसे स्वयं आगे बढकर अपने पेरेंट्स की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। जब वे परवरिश के मामले में बेटियों को बराबरी का दर्जा देते हैं तो बेटियों को भी परिवार की जिम्मेदारी उठाने से पीछे नहीं हटना चाहिए।
मिलजुल कर रखें खयाल
आंचल दुबे, दिल्ली
आज के जमाने में यह सोचना गलत है कि माता-पिता की देखभाल केवल बेटों को ही करनी चाहिए। जब हमारे पेरेंट्स बेटे और बेटी के बीच कोई भेदभाव नहीं करते तो हमें भी उनके प्रति कृतज्ञ होकर बुढापे में उनकी सेवा करनी चाहिए। हमारी यह जिंदगी और पहचान हमें अपने माता-पिता से ही मिली है। हम चाहे उनकी जितनी भी सेवा कर लें, उनके ऋण से मुक्त नहीं हो सकते। इसलिए जहां तक संभव हो हमें उनका पूरा खयाल रखना चाहिए। यह बात अलग है कि जिन परिवारों में बेटी के साथ बेटा भी होता है, वहां स्वाभाविक रूप से बहन की तुलना में भाई की जिम्मेदारी बढ जाती है। फिर भी मेरा मानना है कि चाहे बेटा हो या बेटी, अपने माता-पिता को पूरा सम्मान देते हुए, हमें मिलजुल कर उनका खयाल रखना चाहिए।
विशेषज्ञ की राय
आजकल लोग बेटे-बेटी के बीच कोई भेदभाव नहीं करते। वे अपने बेटों की तरह बेटियों को भ्भी पढऩे और आगे बढऩे का पूरा मौका देते हैं, बल्कि बेटियों के प्रति उनके मन में विशेष स्नेह होता है क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि शादी के बाद उनकी बेटी ससुराल चली जाएगी। आज के मध्यवर्गीय शहरी समाज में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर लडकियों की तादाद तेजी से बढ रही है। इसलिए वे शादी के बाद माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्य को महसूस करती हैं। ससुराल में रहते हुए भी वे सास-ससुर के साथ-साथ अपने माता-पिता का भी ध्यान रख्खती हैं। भ्जब भी जरूरत होती है, वे उनकी मदद के लिए तैयार रहती हैं। आज के सास-ससुर भी पुराने समय की तरह बहू पर बंदिशें नहीं लगाते। सबसे अच्छी बात यह है कि इस सकारात्मक सामाजिक बदलाव का असर पाठिकाओं के विचारों में भी नजर आ रहा है। बुजुर्ग पाठिका मीरा जैन की इस बात से मैं भी सहमत हूं कि बेटियां माता-पिता के प्रति ज्यादा केयरिंग होती हैं और युवा पाठिका आंचल का यह कहना बिलकुल सही है कि बेटियों को भ्भी अपने माता-पिता का पूरा ध्यान रखना चाहिए। हालांकि यह बदलाव अभ्भी महानगरों के शिक्षित परिवारों तक ही सीमित है। छोटे शहरों और गांव में आज भी लोग बेटियों को पराया धन समझते हैं, पर आशा है कि समय के साथ वहां भ्भी लोगों की सोच में बदलाव आएगा।
डॉ. शैलजा मेनन,
समाजशास्त्री