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मुझमें ही है मेरी दुनिया

हमारे आसपास कई ऐसे लोग होते हैं, जो दूसरों के बीच आकर्षण का केंद्र बनने की कोशिश करते हैं। सबका ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए ये अकसर अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हैं। अगर ऐसी मनोवृत्ति को सही समय पर नियंत्रित नहीं किया गया तो यह नार्सिसिस्टिक पर्सनैलिटी डिसॉर्डर

By Edited By: Published: Fri, 26 Jun 2015 03:51 PM (IST)Updated: Fri, 26 Jun 2015 03:51 PM (IST)

हमारे आसपास कई ऐसे लोग होते हैं, जो दूसरों के बीच आकर्षण का केंद्र बनने की कोशिश करते हैं। सबका ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए ये अकसर अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हैं। अगर ऐसी मनोवृत्ति को सही समय पर नियंत्रित नहीं किया गया तो यह नार्सिसिस्टिक पर्सनैलिटी डिसॉर्डर नामक मनोवैज्ञानिक समस्या का रूप धारण कर सकती है।

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मुझे यह काम बहुत अच्छे से आता है...मुझसे अच्छा तो कोई गा ही नहीं सकता...बॉस को अमुक से बेहतर मेरा काम लगता है... ऐसी बातें करने वालों से आप अकसर भी दो-चार होते होंगे। कभीइन लोगों पर खीझ उठती होगी तो कभी तरस आता होगा। लोगों के ऐसे व्यवहार के पीछे कई कारण होते हैं, जिन्हें आमतौर पर हम समझ नहीं पाते। आज की अति व्यस्त जीवनशैली में लोग एक-दूसरे से कटते जा रहे हैं। ऐसे में अकेलेपन से घिरा व्यक्ति धीरे-धीरे नार्सिसिस्टिक पर्सनैलिटी डिसॉर्डर का शिकार हो जाता है।

जानें इसके बारे में यह एक साइकोलॉजिकल डिसॉर्डर है, जिसमें व्यक्ति आत्मकेंद्रित हो जाता है। उसे खुद में ही सारा जहां नजर आता है। वह अपनी मजर्ी का मालिक तो होता ही है, साथ ही चाहता है कि आसपास के लोग भी उसी के इशारों पर चलें। घर या ऑफिस में अगर कोई व्यक्ति इनकी मजर्ी के ख्िालाफ काम करता है तो इससे इनके ईगो को बहुत ठेस पहुंचती है। ये दूसरों की सलाह सुनने को भी तैयार नहीं होते। ये हमेशा अपनी प्रशंसा सुनने को आतुर रहते हैं और जरा भी आलोचना बर्दाश्त नहीं करते। ऐसी शख्सीयत वाले लोग दूसरों के सामने अपनी इमेज को लेकर बहुत ज्य़ादा सजग रहते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में इन्हें नार्सिसिस्ट कहा जाता है।

लक्षणों पर दें ध्यान

- हमेशा ख्ाुद को सर्वश्रेष्ठ समझना

- हरदम अपनी मजर्ी से काम करना

- हमेशा तारीफ सुनने की अपेक्षा रखना

- दूसरों से ईष्र्या करना

- अपने फायदे के लिए दूसरों का इस्तेमाल

- बहुत ज्य़ादा अहंकारी होना

कैसे बनते हैं नार्सिसिस्ट

इस डिसॉर्डर को पनपने में कम से कम एक साल लगता है। तमाम तरह के जेनेटिक, सोशल और साइकोलॉजिकल कारणों से व्यक्ति इस अवस्था तक पहुंचता है। बचपन में परवरिश के दौरान अगर किसी को जरूरत से ज्य़ादा प्यार मिले, तो बडे होने पर उसे यह समस्या हो सकती है। साथ ही ज्य़ादा उपेक्षित किए जाने पर भी ऐसा हो सकता है। किसी भी बात की अति हमेशा नुकसानदेह होती है। सही थेरेपी से इस अवस्था को नियंत्रित किया जा सकता है। इस बीमारी की जड अनुवांशिकता में भी छिपी होती है।

क्या हैं बचाव के तरीके

आमतौर पर बचपन से ही यह प्रवृत्ति अपनी जडें फैलाने लगती है। बच्चे को इससे बचाने के लिए उसके प्रति अपना व्यवहार संतुलित रखें। जब वह कोई अच्छा काम करे, तो उसकी तारीफ जरूर करें, पर गलती होने पर उसे प्यार से समझाएं। हार और जीत, दोनों को ही स्वीकार करने के साथ उसे दूसरों के प्रति सम्मानजनक रवैया रखना भी सिखाएं। बीमारी की पहचान होने के बाद इस डिसॉर्डर से ग्रस्त व्यक्ति को काउंसिंिलंग के लिए ले जाएं। अगर सही समय पर उपचार शुरू किया जाए तो इस समस्या पर आसानी से काबू पाया जा सकता है।

सखी फीचर्स

(क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. पुलकित शर्मा से बातचीत पर आधारित)


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