मातृत्व की राह में अब कोई रुकावट नहीं
आज की तनावपूर्ण जीवनशैली, करियर की भागदौड़, देर से शादी और उसके बाद भी लंबे समय तक शिशु को जन्म न देने का फैसला आगे चलकर दंपतियों में इन्फर्टिलिटी का बड़ा कारण बनता जा रहा है, लेकिन अब निराश होने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि आइवीएफ तकनीक ऐसे दंपतियों के लिए
आज की तनावपूर्ण जीवनशैली, करियर की भागदौड, देर से शादी और उसके बाद भी लंबे समय तक शिशु को जन्म न देने का फैसला आगे चलकर दंपतियों में इन्फर्टिलिटी का बडा कारण बनता जा रहा है, लेकिन अब निराश होने की जरूरत नहीं, क्योंकि आइवीएफ तकनीक ऐसे दंपतियों के लिए वरदान साबित हो रही है।
आधुनिक जीवनशैली से जुडी व्यस्तता ने जिन समस्याओं को जन्म दिया है, इन्फर्टिलिटी भी उन्हीं में से एक है। ख्ाास तौर से महानगरों में नि:संतान दंपतियों की तादाद बहुत तेजी से बढ रही है।
क्यों होता है ऐसा
देर से शादी संतानहीनता की सबसे बडी वजह है। आजकल करियर के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने की महत्वाकांक्षा की वजह से महानगरों में रहने वाली ज्य़ादातर युवतियां 30 वर्ष की उम्र के बाद ही विवाह के बारे में सोचती हैं। फिर शिशु को जन्म देने का निर्णय लेने में एक-दो साल और देर हो जाती है। इससे उनके लिए कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो जाती हैं और कंसीव करना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा देर से विवाह के बढते चलन की वजह से यौन संबंधों को लेकर युवा पीढी के विचारों में काफी ख्ाुलापन आया है। इसी वजह से आजकल युवाओं में एसटीडी यानी सेक्सुअली ट्रांस्मिटेड डिजीज के लक्षण बहुत ज्य़ादा देखने को मिलते हैं। ऐसी बीमारियां स्त्रियों की फर्टिलिटी को बुरी तरह नुकसान पहुंचाती हैं। इससे उनके फे लोपियन ट्यूब्स नष्ट हो सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनमें फर्टिलाइजेशन नहीं हो पाता। पुरुषों में भी क्लेमीडिया व गनोरिया का इन्फेक्शन होने परस्पर्म आने के मार्ग में रुकावट होती है, जो बाद में इनफर्टिलिटी का कारण बन जाती है। इसके अलावा एग्स का न बन पाना, फेलोपियन ट्यूब्स का ख्ाराब होना, स्पर्म में विकार तथा अन्य कारणों से भी ऐसा होता है। लगभग 15 से 30 प्रतिशत तक मामलों में सही कारण का नहीं पता चल पाता। सबसे प्रमुख कारणों में स्पम्र्स में विकार या फेलोपियन ट्यूब की ख्ाराबी जैसी समस्याएं देखने को मिलती हैं। करीब 10 से 30 प्रतिशत दंपतियों में संतानहीनता के लिए एक से ज्य़ादा कारण भी हो सकते हैं। इसके अलावा कुपोषण, तनाव, मोटापा, एल्कोहॉल और सिगरेट का अधिक मात्रा में सेवन, प्रदूषण आदि भी इस समस्या को बढावा देते हैं। कई बार हॉर्मोन के असंतुलन की समस्या के कारण भी दंपतियों में संतानहीनता हो सकती है।
पीसीओएस यानी पॉलिसिस्टिक ओवेरियन सिंड्रोम स्त्रियों में संतानहीनता की एक बडी वजह है। यह समस्या उनके शरीर में हॉर्मोन के असंतुलन की वजह से होती है। दरअसल हॉर्मोंस एक तरह के केमिकल होते हैं और शरीर के अलग-अलग हिस्सों को काम करने का संदेश देते हैं। आमतौर पर स्त्री की ओवरीज से बहुत सीमित मात्रा में मेल सेक्स हॉर्मोन एंड्रोजेनस का सिक्रीशन होता है। कभी-कभी इस हॉर्मोन का स्राव कुछ अधिक मात्रा में होने लगता है, जो पीसीओएस का कारण बन जाता है। अनियमित पीरियड, ज्य़ादा ब्लीडिंग, शरीर में कोलेस्ट्रॉल का स्तर बढऩा, हाई ब्लडप्रेशर, डिप्रेशन और तेजी से वजन का घटना या बढऩा आदि इस समस्या के प्रमुख लक्षण हैं। इसके अलावा कई बार ओवरीज में गांठें भी हो सकती हैं, जो कोई नुकसान तो नहीं पहुंचाती, लेकिन हॉर्मोन संबंधी असंतुलन पैदा करती हैं। पॉलिसिस्टिक ओवेरियन सिंड्रोम का सबसे गंभीर परिणाम संतानहीनता के रूप में देखने को मिलता है। ऐसा होने पर स्त्रियों के शरीर में फीमेल हॉर्मोन में असंतुलन पैदा हो जाता है। ये हॉर्मोंस मासिक चक्र के दौरान स्त्री की ओवरीज में एग्स बनाने के लिए जिम्मेदार होते हैं, लेकिन ऐसे हॉर्मोंस की कमी की वजह से एग्स ठीक से विकसित नहीं हो पाते और ओवरीज में ही निष्क्रिय पडे रह जाते हैं, जिसकी वजह से स्त्री को संतानहीनता की समस्या हो सकती है।
क्या है आइवीएफ
आइवीएफ यानी इन विट्रो फर्टिलाइजेशन संतानहीनता से जूझ रहे दंपतियों के लिए कारगर इलाज है। इसके तहत स्त्री के शरीर से एग्स निकालकर प्रयोगशाला में उनका मेल पति के स्पम्र्स से कराया जाता है। यह प्रक्रिया इस तरह पूरी की जाती है :
-पीरियड्स के बीसवें दिन से स्त्री को ऐसे इंजेक्शन दिए जाते हैं, जिससे उसके शरीर में एक से ज्य़ादा एग्स का विकास किया जा सके।
-इसके के बाद सोनोग्राफी की मदद से यह जांच की जाती है कि एग्स परिपक्व हुए या नहीं। परिपक्व होने पर इन्हें निकाल लिया जाता है। एग्स निकालने से कुछ घंटे पहले स्त्री के पति के सीमन से कुछ अच्छी गुणवत्ता वाले स्पम्र्स को अलग कर उन्हें एग्स से मिलाकर कल्चर डिश में डाल दिया जाता है। फिर यह डिश इनक्यूबेटर में सुरक्षित रख दी जाती है। निषेचन की प्रक्रिया से बने भ्रूण (एम्ब्रियो) को चार कोशिकाओं के स्तर तक प्रयोगशाला में रखा जाता है। 48 घंटे बाद इसे स्त्री के यूट्रस में प्रत्यारोपित किया जाता है।
-गर्भधारण की इस प्रक्रिया के पूर्ण होने के दो हफ्ते बाद स्त्री का प्रेग्नेंसी टेस्ट करवाकर यह सुनिश्चित किया जाता है कि भ्रूण ने सही विकास आरंभ किया है या नहीं। गर्भधारण की शुरुआत में ही हॉर्मोंस दिए जाते हैं, ताकि भ्रूण का सही ढंग से विकास हो सके और गर्भपात की आशंका न हो। इन्हीं दिनों सभी सामान्य परीक्षण भी किए जाते हैं, जो कि उसके स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी हैं।
जरूरी है सजगता
अगर कोई स्त्री किसी कारणवश मां नहीं बन पाती तो ऐसी स्थिति में उसे आइवीएफ तकनीक की मदद लेनी चाहिए। आइवीएफ से पहले मानसिक रूप से तैयार होना जरूरी है, इससे भविष्य की कई संभावित परेशानियों से बचा जा सकता है। अगर किसी स्त्री को 30 वर्ष की आयु तक संतान न हो तो उसे आइवीएफ की मदद लेनी चाहिए। इसके लिए सही उम्र का होना बेहद जरूरी है। बच्चे के जन्म के लिए स्वस्थ शुक्राणु व स्वस्थ अंडाणु के साथ स्वस्थ गर्भ का होना आवश्यक है। इसलिए जो दंपती प्राकृतिक रूप से माता-पिता नहीं बन पा रहे, उन्हें आइवीएफ के लिए अधिक देर नहीं करनी चाहिए। जितनी देर करेंगे उतनी ही जटिलता बढेगी। उम्र बढऩे के साथ स्त्री-पुरुष के शरीर में मौजूद एग्स और स्पम्र्स की क्वॉलिटी में भी गिरावट आने लगती है।
्रविवाह के बाद अगर शुरू से ही सजगता बरती जाए तो सही समय पर संतानहीनता की समस्या को पहचान कर आसानी से उसका उपचार किया जा सकता है।
इन बातों का रखें ध्यान
-इस तकनीक को अपनाने से पहले स्त्रियों अपने बीपी, शुगर और थायरॉयड की जांच के अलावा ईसीजी भी करवाने की सलाह दी जाती है, ताकि कंसीव करने के बाद उन्हें कोई परेशानी न हो।
-आइवीएफ के बाद गर्भवती स्त्री को कई सावधानियां बरतने की जरूरत होती है। उसे कैफीन, एल्कोहॉल, ड्रग्स व धूम्रपान से दूर रहने की सलाह दी जाती है। साथ ही ड्राइविंग व स्विमिंग से भी बचना चाहिए।
-आइवीएफ की प्रक्रिया के बाद दंपती को इंटरकोर्स से बचना चाहिए। इससे वजाइनल इन्फेक्शन होने का खतरा रहता है, जिससे इस प्रक्रिया के सफल होने में बाधाएं आ सकती हैं।
-आइवीएफ के जरिये गर्भधारण के बाद कोई भी भारी सामान नहीं उठाना चाहिए। इससे पेट की मांसपेशियों पर दबाव पडता है और गर्भधारण की प्रक्रिया पर इसका गलत असर हो सकता है।
- अत्यधिक थका देने वाले घरेलू कार्यों से भी बचने की कोशिश करें।
- शरीर में हीमोग्लोबिन और कैल्शियम का स्तर बढाने के लिए हरी सब्जियों, फलों और मिल्क प्रोडक्ट्स को अपने भोजन में प्रमुखता से शामिल करें।
- कठिन एक्सरसाइज और एरोबिक्स से दूर रहें। जॉगिंग के बजाय टहलना ज्य़ादा अच्छा रहता है।
-यह उपचार किसी कुशल चिकित्सक की देख-रेख में ही करवाना चाहिए। अगर किसी वजह से पहली बार सफलता नहीं मिलती है तो तीन से चार महीने बाद दोबारा कोशिश की जा सकती है।
सखी फीचर्स
(गौडियम आइवीएफ क्लिनिक की विशेषज्ञ डॉ. मनिका खन्ना से बातचीत पर आधारित)