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हेल्थवॉच

समय से पहले जन्म लेने वाले शिशुओं के जीवन की सुरक्षा दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। ऐसे शिशुओं को संक्रमण और अन्य बीमारियों से बचाने के लिए अमेरिका स्थित हॉवर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने 'स्किन टु स्किन कॉन्टैक्ट थ्योरी' के आधार पर बेहद कमज़ोर

By Edited By: Published: Sat, 30 Jan 2016 02:09 PM (IST)Updated: Sat, 30 Jan 2016 02:09 PM (IST)

प्री-मच्योर शिशु को बचाएगा कंगारू केयर

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समय से पहले जन्म लेने वाले शिशुओं के जीवन की सुरक्षा दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए बहुत बडी चुनौती है। ऐसे शिशुओं को संक्रमण और अन्य बीमारियों से बचाने के लिए अमेरिका स्थित हॉवर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने 'स्किन टु स्किन कॉन्टैक्ट थ्योरी' के आधार पर बेहद कमजोर और प्रीमच्योर शिशुओं की देखभाल का एक नया तरीका ढूंढ निकाला है, जिसे उन्होंने कंगारू केयर का नाम दिया है। इसमें मां के शरीर के ऊपरी भाग में कोई कपडा नहीं होता। शिशु कंगारू के बच्चे की तरह मां की छाती से चिपका रहता है और उसे एक मुलायम कपडे से बने थैलेनुमा बेल्ट से बांध दिया दिया जाता है। इससे शिशु के शरीर का तापमान संतुलित रहता है और ब्रेस्ट फीडिंग को भी बढावा मिलता है। शोधकर्ताओं का मानना है कि अगर मां और शिशु के शरीर के बीच सीधा संपर्क हो तो इससे उसके रक्त में संक्रमण का ख्ातरा कम हो जाता है। प्रमुख शोधकर्ता रॉबिन एल. क्यूरन के अनुसार ऐसे 124 अध्ययनों के बाद यह पाया गया कि इस तरीके से शिशु की देखभाल करने के बाद नवजात शिशुओं की मृत्यु दर में 35 प्रतिशत तक कमी आई है और उनका शारीरिक विकास भी सही ढंग से हो रहा था।

अच्छी नींद के लिए रोजाना पीएं दूध

आमतौर पर लोग सुबह नाश्ते के बाद दूध पीते हैं, पर हाल में एक शोध में यह साबित हुआ है कि रात को सोने से पहले दूध पीना सेहत के लिए ज्य़ादा फायदेमंद साबित होता है। सियोल की सहम्यूक यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार दूध में उच्च मात्रा में ट्राइप्टोफन और मेलाटोनिन नामक तत्व पाए जाते हैं, जो तनाव का स्तर कम करने और अच्छी नींद लाने में मददगार होते हैं।

कैंसर से बचाव करने वाले प्रोटीन की खोज

कैंसर का उपचार ढूंढने के लिए विश्व भर के वैज्ञानिक वर्षों से प्रयासरत हैं। इस संबंध में एक आशाजनक ख्ाबर यह है कि अब वैज्ञानिकों ने कैंसर के लिए जिम्मेदार एक ख्ाास तरह के प्रोटीन को निष्क्रिय करने का तरीका ढूंढ निकाला है। इसकी मदद से कैंसरयुक्त ट्यूमर का आकार बढऩे से रोका जा सकता है। अमेरिका स्थित टोरंटो यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक प्रायोगिक दवा के जरिये कैंसरयुक्त प्रोटीन को निष्क्रिय करने का तरीका खोज निकालने का दावा किया है। लगभग 30 प्रतिशत मामलों में कैंसर के लिए यही प्रोटीन जिम्मेदार होता है। शोधकर्ताओं ने कहा कि करीब तीन दशकों से इस प्रोटीन को ढूंढने की कोशिश की जा रही थी। प्रमुख शोधकर्ता माइकल ओह और उनकी टीम ने अपने अध्ययन के तहत एक प्रोटीन की खोज की, जो कैंसरयुक्त प्रोटीन को प्रभावशाली तरीके से निष्क्रिय करने में सक्षम है। इस प्रोटीन को एसएचपी-२ नाम दिया गया है। उन्होंने पांच साल पहले कैंसरयुक्त प्रोटीन पर शोध शुरू किया था। प्रमुख शोधकर्ता प्रो.ओह के अनुसार, 'हमने बचपन में होने वाले एक दुर्लभ िकस्म के ब्लड कैंसर ल्यूकेमिया का मामला हाथों में लिया था, तब हमने पाया कि एसएचपी-2 कैंसरयुक्त प्रोटीन को नियंत्रित करने में सक्षम है। इससे वैज्ञानिक काफी आशान्वित हैं। उन्हें पूरी उम्मीद है कि इससे निकट भविष्य में कैंसर के मरीजों का जीवन बचाना संभव होगा।

जेनेटिक इंजीनियरिंग से होगा इलाज

अकसर आपने लोगों को कहते सुना होगा कि यह बीमारी हमारे माता-पिता को भी थी। दरअसल हमारी कोशिकाओं में मौजूद जींस की वजह से माता-पिता की शारीरिक और दिमागी संरचना से संबंधित सभी गुण एक से दूसरी पीढी तक पहुंचते हैं और इसी के साथ कुछ बीमारियों से जुडे जींस भी माता-पिता से शिशु के शरीर में पहुंच जाते हैं। एक राहत भरी ख्ाबर यह है कि अब ऐसी बीमारियों को केवल एक इंजेक्शन से ठीक किया जा सकता है। इस उपचार पद्धति के तहत शोधकर्ता किसी बीमारी के लिए जिम्मेदार डीएनए को हटा कर उसकी जगह पर स्वस्थ जीन रख सकते हैं। इस शोध में वैज्ञानिकों ने डीएमडी नामक बीमारी को हटाने के लिए क्रिस्पर तकनीक का इस्तेमाल किया। यह तकनीक सटीक तरीके से जेनेटिक कोडिंग को बदल देती है। इसमें शोधकर्ताओं ने जीन में संशोधन करने वाले तत्वों को एक विशेष वायरस एवी-9 के जरिये बीमार चूहों के शरीर में पहुंचाया। इससे उनके शरीर में डाइस्ट्रोफिन नामक प्रोटीन का निर्माण हुआ, जो डीएमडी के कारण आ रही कमजोरी को दूर करने में कारगर रहा। प्रमुख शोधकर्ता प्रो. एरिक ओल्सन के अनुसार यह तकनीक उपचार के अन्य तरीकों से अलग है क्योंकि यह बीमारी के मूल कारण को ही ख्ात्म कर देती है। शोधकर्ता इस खोज के परिणामों से काफी उत्साहित हैं।

चावल खा सकेंगे डायबिटीज के मरीज

डायबिटीज के मरीजों के लिए एक अच्छी ख्ाबर यह है कि अब वे बेिफक्र होकर चावल खा सकेंगे। छत्तीसगढ स्थित इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने चावल की एक ऐसी प्रजाति का पता लगाया है, जिसे डायबिटीज से पीडित लोग भी खा सकते हैं। विश्वविद्यालय के प्लांट मॉलिक्युलर एंड बायोटेक्नोलॉजी विभाग के प्रो.गिरीश चंदेल ने बताया कि चावल की खोजी गई प्रजाति में ग्लाइसेमिक इंडेक्स बहुत कम होता है। यह चावल आम लोगों के लिए एक स्वस्थ भोजन होने के साथ ही डायबिटीज पीडितों के लिए भी बहुत उपयोगी है। शोधकर्ताओं ने अनुसार चावल की यह नई प्रजाति चपटी गुरमटिया धान में से खोजी गई है। उन्होंने इसे मधुराज-55 का नाम दिया है।

बच्चों को बचाएं एलर्जी से

एलर्जी बच्चों के दिल के लिए भी घातक होसकती है। अमेरिका की नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार बदलते मौसम में फूलों के पराग-कण से होने वाली एलर्जी बच्चों के शरीर में कालेस्ट्रॉल की मात्रा बढा देती हैं, इससे नाक और आंखों को नम रखने वाली झिल्ली में सूजन आ जाती है। जिससे उनमें दिल की बीमारियों की आशंका बढ जाती है। इसलिए बदलते मौसम में बच्चों को पेड-पौधों से दूर रखना चाहिए।

अब ब्लड टेस्ट होगा आसान

जो लोग ब्लड टेस्ट कराने से डरते हैं, उनके लिए एक गूगल ऐसा स्मार्ट बैंड लेकर आ रहा है, जिसे कलाई में पहनते हीख्ाून की जांच हो जाएगी। अब तक ब्लड सैंपल लेने के लिए इंजेक्शन का इस्तेमाल होता रहा है, लेकिन इस बैंड को पहनते ही व्यक्ति के ख्ाून का नमूना इसमें पहुंच जाएगा और कुछ ही मिनटों में जांच पूरी हो जाएगी। यह स्मार्ट उपकरण एक बैंड या फिर हाथ में पकडऩे वाले यंत्र जैसा हो सकता है। वैज्ञानिकों का दावा है कि ख्ाून जांचने की मौजूदा प्रक्रिया के मुकाबले नई तकनीक काफी तेज और आसान है। इस स्मार्ट बैंड में एक नली होगी, जिसमें अति सूक्ष्म कण होंगे। वायु का दबाव बनाकर उन सूक्ष्म कणों को नली से निकालकर त्वचा के भीतर पहुंचा दिया जाएगा। फिर वायु के माध्यम से खींचकर इन कणों को नली में लाया जाएगा। उन कणों के साथ ही रक्त का नमूना नली में पहुंच जाएगा। इस प्रक्रिया में इंजेक्शन की तुलना में बहुत कम दर्द होगा। यह यंत्र ग्लूकोज की जांच करने में भी मददगार साबित होगा।

अब नहीं सताएगा आथ्र्राइटिस

बढती उम्र के साथ ज्य़ादातर लोगों को आथ्र्राइटिस का दर्द परेशान करने लगता है। ऐसे लोगों के लिए राहत भरी ख्ाबर यह है कि अब ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने इस बीमारी का उपचार ढूंढने का दावा किया है। इलाज की इस पद्घति में क्षतिग्रस्त जोडों के बचाव के लिए शरीर में अपने आप बनाने वाले छोटे बुलबुलों का इस्तेमाल किया जाता है। शरीर की कोशिकाएं इन बुलबुलों को बनाती हैं, जिन्हें माइक्रोवेसिकल्स कहा जाता है। ये बुलबुले आथ्र्राइटिस पीडित के व्यक्ति के कार्टिलेज का उपचार करती है। इन बुलबुलों में एक विशेष द्रव भरा होता है। ये माइक्रोवेसिकल्स श्वेत रक्त कणिकाओं में पाए जाते हैं। क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक शोध से यह साबित किया कि यह गाढा द्रव जोडों को भविष्य में क्षतिग्रस्त होने से बचाने के साथ पुराने ज्ाख्म का भी उपचार करता है। जबकि मौजूदा इलाज कार्टिलेज को भविष्य में होने वाले नुकसान से तो बचाते हैं, लेकिन पहले से क्षतिग्रस्त हो चुके टिश्यूज के उपचार के लिए पर्याप्त नहीं होतेे। इन बुलबुलों में एनक्सिन ए-1 नाम का प्रोटीन होता है, जो कार्टिलेज का बचाव करता है और आथ्र्राइटिस से जोडों को होने वाले नुकसान को रोकता है। अगर क्षतिग्रस्त जोडों की प्रारंभिक स्तर पर ही पहचान हो जाती है तो इस उपचार से उन्हें भी दुरुस्त किया जा सकता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक आथ्र्राइटिस से पीडित के रक्त से ही माइक्रोवेसिकल्स निकालकर दोबारा उन्हें इंजेक्शन के तौर पर दिया जा सकता है, जिससे उसे बहुत जल्द राहत मिलती है। दरअसल माइक्रोवेसिकल्स जोडों में बहुत सीमित मात्रा में पाए जाते हैं, जब इन्हें रक्त से निकालकर दोबारा इंजेक्शन के जरिये जोडों तक पहुंचाया जाता है तो इससे कॉर्टिलेज का बचाव होता है और व्यक्ति को दर्द से भी राहत मिलती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि आगामी पांच वर्षों में उपचार की यह तकनीक आम लोगों के लिए उपलब्ध हो जाएगी।


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