शाहिद न्याय की लड़ाई
मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले वकील की हत्या की कहानी है फिल्म शाहिद। सिनेमाहॉल में इसे ज्यादा दर्शक नहीं मिले, मगर सराहना खूब मिली। डायरेक्टर हंसल मेहता ने इससे पहले दिल पे मत ले यार बनाई थी। शाहिद को इस साल सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। फिल्म कैसे बनी, बता रहे हैं अजय ब्रह्मात्मज।
इस साल सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और अभिनेता के नेशनल अवॉर्ड से सम्मानित हुई है फिल्म शाहिद। निर्देशक हंसल मेहता और अभिनेता राजकुमार राव की जोडी की विशेष फिल्म है शाहिद। हंसल मेहता के डायरेक्शन करियर में यह फिल्म महत्वपूर्ण है। पहली फीचर फिल्म दिल पे मत ले यार से अपेक्षित सराहना न मिलने से दुखी हंसल मेहता ने कमर्शियल सिनेमा के लिए कुछ आसान राह पकडी। वे अपने प्रयासों में निरंतर विफल होते रहे। वर्ष 2008 में आई वुडस्टाक विला उनकी ऐसी ही कमजोर फिल्म थी। इस फिल्म ने उन्हें सचेत कर दिया। आत्म-निरीक्षण के इस दौर में हंसल मेहता ने फिल्मों की दुनिया से संन्यास ले लिया। वे ऑर्गेनिक खेती में जुट गए। फार्मिग के इस दौर में उन्होंने अंतस को निहारा और खुद के लिए फिल्मों में सही राह का चुनाव किया। देश को झकझोर रहे आतंकवाद ने उन्हें भी प्रभावित किया। उन्होंने टेररिज्म के विषय पर एक फिल्म बनाने का फैसला लिया।
न्याय की जंग
टेररिज्म पर केंद्रित फिल्म के शोध के सिलसिले में उनकी मुलाकात मुंबई के मशहूर वकील शाहिद आजमी से हुई थी। मानव अधिकारों के लिए संघर्षरत शाहिद आजमी ने पर्याप्त कानूनी जानकारी और पैसों के अभाव में जेल में सड रहे निर्दोष अभियुक्तों को बरी कराने की मुहिम चला रखी थी। उन्होंने अपनी कोशिशों से 17 अभियुक्तों को मुक्त कराया। उनकी ये कोशिशें कुछ लोगों को नहीं सुहा रही थीं। उन्होंने पहले चेतावनी दी। न मानने पर उन्होंने शाहिद आजमी को दफ्तर में बुलाकर उनकी जान ले ली। 32 साल की उम्र में शाहिद आजमी की हत्या ने हंसल मेहता को परेशान कर दिया।
वर्ष 2010 के फरवरी महीने में शाहिद की हत्या के बाद हंसल मेहता ने उनके जीवन पर बॉयोपिक बनाने का फैसला किया। फिल्म का निर्माण सीमित बजट में गोरिल्ला पद्धति से वास्तविक लोकेशन पर किया गया। हंसल मेहता की कोशिश थी कि शाहिद आजमी की जिंदगी पर्दे पर लार्जर दैन लाइफ न दिखे। वह इस बॉयोपिक को शाहिद आजमी की जिंदगी की तरह साधारण किंतु घटनात्मक रूप में पेश करना चाहते थे। वे दर्शकों से शाहिद के प्रति सहानुभूति नहीं चाहते थे।
बेहतरीन कास्टिंग
शाहिद फिल्म की विश्वसनीयता इसकी कास्टिंग से मजबूत हुई। कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबडा ने हंसल मेहता के गढे किरदारों के अनुरूप कलाकारों को खोजा। शाहिद आजमी के किरदार के लिए लव सेक्स और धोखा एवं रागिनी एमएमएस से पहचान में आए राजकुमार राव को उपयुक्त समझा गया। शाहिद आजमी के बडे भाई आरिफ आजमी की भूमिका के लिए मोहम्मद जीशान अय्यूब का चुनाव किया गया। शाहिद की भीरु मां मरियम की भूमिका में प्रभलीन कौर को मुंबई के बाहर से बुलाया गया। इन सभी किरदारों में केवल शाहिद आजमी की तसवीरें लोगों ने देख रखी थीं। राजकुमार राव को मेकअप-गेटअप से शाहिद आजमी में ढालने की फिल्मी कोशिश नहीं की गई। राजकुमार राव ने शाहिद आजमी के जज्बे को आत्मसात किया और उसे पर्दे पर बखूबी उतारा। राजकुमार राव शाहिद की पुरस्कृत शीर्षक भूमिका के बारे में बताते हैं, मुझे इस किरदार को अपने भीतर बसाना था। शाहिद के बारे में उनके परिवार के सदस्यों से बारीक जानकारियां मिलीं। उसके बाद मुझे वकीलों की कार्यपद्धति सीखनी पडी और उनके तौर-तरीकों से परिचित होना पडा। अभिनय करते समय मैंने शाहिद आजमी के व्यक्तित्व को मुखर और अभिव्यक्त किया।
इस फिल्म के एक दृश्य में शाहिद को हाजत के अंदर नंगे बैठे दिखाया गया है। पहले किसी और ढंग से यह सीन किया गया था। राजकुमार राव ने हंसल पर जोर डाला कि इस दृश्य में मैं नंगे बैठना चाहता हूं। मैं शाहिद के अपमान और दर्द को जीना चाहता हूं। इस मुश्किल दृश्य को जीवंत करने की अपनी परेशानियां रहीं। यह दृश्य पूरी फिल्म का एक छोटा सा हिस्सा है, जो गौर न किया जाए तो झटके में निकल जाता है, लेकिन इस दृश्य की वजह से मैं शाहिद के अधिक करीब आ गया।
शाहिद आजमी के परिवार के सदस्यों ने इस फिल्म को देखने के बाद राजकुमार राव की तारीफ की थी कि उन्होंने हू-ब-हू शाहिद को पर्दे पर उतारा है। हंसल ने राजकुमार राव समेत सभी कलाकारों को इंप्रूवाइजेशन की छूट दे रखी थी।
हक की लडाई में हार
शाहिद आजमी सांप्रदायिकता से प्रभावित नाराज और असुरक्षित मुसलिम युवक था। उसने फिजा फिल्म के अमान की तरह आतंकवाद का रास्ता चुना, लेकिन उसे जल्दी एहसास हो गया कि फिरकापरस्ती की राह सही नहीं है। इस भटकाव के बाद वह घर लौट आया, लेकिन आतंकवादी संबद्धता की वजह से उसे जेल जाना पडा। जेल में रहते हुए उसने वकालत की पढाई की। जेल से निकलने पर वह निर्दोष अभियुक्तों का वकील बन गया। उन्हें बचाना और मुक्त करवाना ही उसके जीवन का लक्ष्य बन गया। शाहिद आजमी के इस जोश और मानवीयता को ही हंसल मेहता ने फिल्म में उतारा है। शाहिद ने सत्ता और समाज के कानूनी शिकंजे में जकडे लाचार और बेकसूर मजलूमों की लडाई लडी और शहीद हो गया। शाहिद की शहादत से हंसल मेहता की फिल्म आरंभ होती है। एक मामूली व्यक्ति की जिंदगी में उतरकर उसके गैर-मामूली इरादों को कैद करती यह फिल्म उम्मीद और मानवीयता के प्रतीक के रूप में सामने आती है। हंसल मेहता ने इसे शाहिद आजमी की हत्या पर रोने और बिसूरने के लिए नहीं बनाया है।
साहसिक कोशिश
शाहिद हंसल मेहता की साहसिक क्रिएटिव कोशिश है। आजादी के बाद की यह कठोर सचाई है कि हिंदू-मुसलमान के विभेद की राजनीति और सोच कम नहीं हुई है। कई बार सिर्फ नाम व मजहब के कारण अल्पसंख्यक मुसलमानों को शोषण, अत्याचार और हिंसा का शिकार होना पडता है। हंसल मेहता की शाहिद विषम परिस्थितियों में एक व्यक्ति के संघर्ष और जीत को बयान करती है। यह हमारे समय का पश्चाताप है। शाहिद वंचितों के हक में खडा होता है। इस जिद में वह मारा जाता है। यह फिल्म दर्शकों को द्रवित करती है। फिल्म में दर्शक देखते हैं कि कैसे सत्ता और समाज के हाथों विवश और निहत्थे व्यक्तियों का चेहरा काला किया जाता है, उसके साथ बर्बरता की हदें पार की जाती हैं और आखिरकार उसकी हत्या ही कर दी जाती है।
सची घटना पर्दे पर ढली
इस फिल्म के बारे में हंसल मेहता कहते हैं, मेरे लिए किसी भी किरदार की मोशनल जर्नी महत्वपूर्ण है। मैंने शाहिद की इमोशनल जर्नी को शुष्क या नाटकीय नहीं होने दिया। सिनेमा के लिए लिबर्टी भी ली है, लेकिन वह कहीं से भी शाहिद के व्यक्तित्व को कम नहीं करती। हमने उतनी ही लिबर्टी ली, जितने में मूल कहानी पर फर्क न पडे। शाहिद की जिंदगी से बडे उसके कर्म थे। फिल्म को थ्रिलर बनाने के लिए मैं शाहिद के हत्यारों की तलाश में निकल सकता था और एक रोमांचक कहानी बुन सकता था, लेकिन मैंने कुछ हजार रुपयों के लिए हत्या करने वालों पर फोकस नहीं किया। मेरे लिए विचार और भावनाएं अधिक जरूरी थीं।
शाहिद वर्ष 2003 की खास फिल्म है। हालांकि यह थिएटर में अधिक नहीं चली, लेकिन इसे सभी की सराहना मिली। हंसल मेहता ने पिछले दिनों एक इंटरव्यू में स्पष्ट कहा कि देश के बहुसंख्यक दर्शक मुसलमान नायक की फिल्में देखना पसंद नहीं करते। यह हमारे देश की कडवी सचाई है कि हिंदी फिल्मों के नायक-नायिकाओं के नाम मुस्लिम परिवारों से नहीं लिए जाते। रेगुलर हिंदी फिल्मों का नायक मुख्य रूप से राज, रोहित, अजय, विजय ही होता है। जरूरत है कि दर्शक शाहिद को फिर से देखें और उसके जज्बे को समझें। यह हमारे दौर की एक जरूरी फिल्म है।
अजय ब्रह्मात्मज