विफल क्रांति की कहानी हजारों ख्वाहिशें ऐसी
एक दौर था, जब युवा क्रांति के सपने देखते थे। ऐसी आ•ादी चाहते थे, जिसमें सब बराबर हों। क्रांति की इस राह में कुछ गलतियां भी हुई। सपने कुछ संभले तो कुछ बिखरे। सपनों-ख्वाहिशों की कहानी है फिल्म हजारों ख्वाहिशें ऐसी। निर्देशक सुधीर मिश्र ने इसमें अपने राजनीतिक विचारों और अनुभवों को समेटा है। कैसे बनी फिल्म बता रहे हैं वह अजय ब्रह्मात्मज को।
वर्ष 2008 में आई फिल्म हजारों ख्वाहिशें ऐसी आज भी दर्शकों को आकर्षित करती है। एक आंकडे के मुताबिक डीवीडी पर देखी जाने वाली हिंदी फिल्मों की टॉप 10 की सूची में यह शामिल है। राजनीतिक पृष्ठभूमि की यह फिल्म तीन किरदारों की कहानी है, जो परिस्थितिवश एक-दूसरे के जीवन में आते हैं। निर्देशक सुधीर मिश्र की हर फिल्म में सामाजिक और राजनीतिक पक्ष रहते हैं। हजारों ख्वाहिशें ऐसी हिंदी की पॉलिटिकल फिल्म मानी जाती है। इससे जुडे अनुभव सखी के पाठकों से शेयर कर रहे हैं सुधीर मिश्र..।
इंत•ार का परिणाम
मैं कलकत्ता मेल बना रहा था। अनिल कपूर और रानी मुखर्जी की यह मेल रुक-रुक कर चल रही थी। मुझे इंतजार करना पडता था। तभी मैंने हजारों ख्वाहिशें ऐसी के बारे में सोचा। व्यावसायिक दृष्टि से मेरा फैसला गलत था, क्योंकि बडे ऐक्टर्स की शूटिंग के बीच में ही छोटी फिल्म बनाने जा रहा था। सच कहूं तो मैं केके के रोल के लिए भी नया चेहरा चाहता था। केके तब तक टीवी में आ चुके थे। उनकी एक फिल्म भी आ चुकी थी, लेकिन उस भूमिका के लिए मुझे उनसे बेहतर कोई नहीं मिला।
मुझे फ्रांस से थोडा पैसा मिला था। मैं आजाद तरीके से प्लानिंग कर रहा था। उन दिनों चल रही फिल्म निर्माण की व्यावसायिक शर्तो का पालन नहीं करना था। बाद में प्रीतिश नंदी जुड गए। कुछ फिल्में ऐसी बन जाती हैं, जिनमें सभी जुड जाते हैं। कोई यह नहीं पूछता कि क्या बना रहे हो? किसके साथ बना रहे हो? म्यूजिक कौन करेगा? कौन क्या करेगा? कुछ भी तय नहीं था। उस वक्त किसी को फिल्म की राजनीतिक स्थितियों और विचारों का इल्म नहीं था। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में उन दिनों नक्सल बोलने पर लोग मुंह खोल कर खडे हो जाते थे। ऐक्टर्स को भी इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। जो ऐक्टर्स फिल्म में थे, वे भी केवल सीन कर रहे थे, विचारों से उन्हें कोई मतलब नहीं था।
अनुभवों का निचोड
लोग अभी तक तय नहीं कर पाए हैं कि इस फिल्म को किस जोनर में डालें। शूटिंग के समय सभी पैशन के साथ जुडे थे। लग रहा था कि पूरी कायनात हमारी मदद कर रही है। गीता की भूमिका के लिए मैंने एक लडकी को चुन रखा था। फिर किसी ने मुझे दिल्ली से चित्रांगदा सिंह का स्क्रीन टेस्ट भेजा। उसने कभी ऐक्टिंग नहीं की थी। उसे देखते ही लगा कि गीता का रोल चित्रांगदा सिंह कर सकती है। विक्रम की भूमिका के लिए भी किसी और को साइन किया था। एक दोपहर शाइनी आहूजा ऑफिस में आ गया और उसे ले लिया गया। सेट और लोकेशन भी मनमािफक मिल गए थे। कास्टिंग अच्छी हुई। छोटी फिल्मों की शूटिंग में कुछ दिक्कतें भी होती हैं। लेकिन उनका अपना आनंद होता है। कई बार यह भी लगता है कि यह फिल्म बनाने के लिए आप ही चुने गए हैं। मेरी परवरिश, पिताजी का वामपंथी रुझान और नेहरू के प्रति उनकी सद्भावना, पिताजी के एक दोस्त का नक्सल होना, दादाजी का पारंपरिक कांग्रेसी होना.., इन सभी अनुभवों का निचोड है यह फिल्म।
नए विचार-नए कलाकार
हजारों ख्वाहिशें ऐसीका वितान बडा है। विचार है, चरित्र है, उनके आत्मसंघर्ष हैं, कोलाज है, क्राउड है। शहर से गांव तक कहानी जाती है। सीमित बजट में उसे बनाना मुश्किल था। सारी यूनिट के लिए यह तकलीफदेह चुनौती थी। मैंने जाडे के दिनों में उत्तर भारत में इसकी शूटिंग की। कहानी मैंने निर्माण से तीन साल पहले सोची थी। थोडा-बहुत पन्नों पर भी उतार दिया था। उन दिनों उसमें कोई हाथ लगाने को तैयार नहीं था। फिल्म किसी की समझ में नहीं आ रही थी। मैंने कुछ पॉपुलर फिल्म स्टार्स के पास भी स्क्रिप्ट भेजी। एक ने तो मुझे चिट्ठी लिखी कि इससे घटिया स्क्रिप्ट उन्होंने अपनी जिंदगी में नहीं पढी। अब लगता है फिल्म में उनका न आना ही अच्छा रहा। इस फिल्म के साथ जो-जो नहीं हुआ, वह सब अच्छा हो गया। स्थापित कलाकारों के साथ इस तरह की फिल्म बन नहीं पाती।
राजनीतिक विषय
मैं राजनीतिक निर्देशक हूं। मेरी फिल्मों में पॉलिटिकल टोन रहता है। मेरी पहली फिल्म ये वो मंजिल तो नहीं भी पॉलिटिकल थी। धारावी में भी एक पॉलिटिकल टोन है। हजारों ख्वाहिशें ऐसी को मैं सिर्फ पॉलिटिकल फिल्म नहीं मानता। इसमें उस युग का एक जज्बा भी है। उस पीढी की कुछ खूबसूरत गलतियां भी हैं। उनकी असफलताओं में एक कशिश है। घटनाओं से 15-20 साल बाद आप फिल्म बना रहे हैं तो उसका अंत भी पहले से पता रहता है। मुझे और दर्शकों को मालूम है कि उन दिनों के सक्रिय राजनीतिक विचारों का परिणाम क्या हुआ? मैंने कुछ नया नहीं किया। इसका अंत निर्धारित था। तमाम संघर्षो के बावजूद कोई राजनीतिक क्रांति नहीं हो सकी। मुझे अपने किरदारों की हार में खूबसूरती नजर आती है। शायद वही बात दर्शकों को भी इटरेस्टिंग लगती है।
भोपाल में शूटिंग
मुझे उस समय की दिल्ली चाहिए थी। 20-25 सालों में लैंडस्केप बदल गया है। इस वजह से शूटिंग के लिए मुझे भोपाल चुनना पडा। बिहार के दृश्यों के लिए मैंने मध्य प्रदेश के बॉर्डर का इस्तेमाल किया। उन दिनों बिहार में शूटिंग करना संभव नहीं था। चूंकि मैं मध्य प्रदेश से ताल्लुक रखता हूं, इसलिए यहां मेरा कंफर्ट बना रहता है। इसकी शूटिंग में ऐक्टरों के साथ सात-आठ घंटे की यात्रा के बाद हम लोकेशन पर पहुंचते थे। नए कलाकार थे तो मुश्किल नहीं हुई। फिल्म में किरदारों की यात्रा के साथ गांव बदलते गए हैं। हम सभी के लिए फिल्म की शूटिंग मजेदार एडवेंचर थी। शिक्षण-प्रशिक्षण साथ-साथ चल रहा था। हमारा कैमरामैन फ्रांस का था। उसे सफर से उकताहट नहीं हो रही थी। उसे तो हिंदुस्तान घूमने में मजा आ रहा था। हमारी यूनिट के किसी भी सदस्य को कहीं भी लौटने या भागने की जल्दबाजी नहीं थी।
नई प्रतिभाओं को मौका
इस फिल्म ने कई नई प्रतिभाएं दीं। स्वानंद किरकिरे मेरे असिस्टेंट थे। अगर हमारे पास पर्याप्त पैसे होते तो शायद हम स्थापित नामों को फिल्मों से जोडते। स्वानंद का एक गाना पसंद आया तो हमने उसे गाने के लिए कह दिया। बजट था नहीं तो म्यूजिक के लिए भी किसी ऐसे को चुनना था, जो ज्यादा पैसे न मांगे। हमें शांतनु मोइत्रा मिले। अब स्वानंद और शांतनु की जोडी जम गई है। इस फिल्म से चित्रांगदा सिंह आई, शाइनी आहूजा आए, केके का रुतबा बढा। छोटी और सहायक भूमिकाओं में भी कई प्रतिभाओं को मौका मिला। वे सभी दिल्ली और भोपाल से थे। उनकी वजह से फिल्म की प्रामाणिकता बढी। इस फिल्म के बाद मेरी यूनिट के ज्यादातर लोग मशहूर और व्यस्त हो गए। अब शायद उनके साथ दोबारा ऐसी फिल्म नहीं बना सकती।
..लेकिन यह सब अनायास नहीं हुआ था। उसके पीछे एक लंबा प्रयास होता है। मैं फिर से जुटा हुआ हूं। भविष्य में जैसे ही मेरी कोई टीम बनेगी, वैसे ही फिर से हजारों ख्वाहिशें ऐसी जैसी फिल्म आ जाएगी।