Move to Jagran APP

जो सिखाए वही शिक्षक

क्या सिर्फ किताबी ज्ञान देने वाला व्यक्ति ही शिक्षक होता है?वाकई गुरु-शिष्य के रिश्ते में बदलाव आ रहा है? कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब ढूंढ रही हैं विनीता।

By Edited By: Published: Sat, 03 Sep 2016 11:43 AM (IST)Updated: Sat, 03 Sep 2016 11:43 AM (IST)
जो सिखाए वही शिक्षक
जब भी हम समाज में शिक्षकों के योगदान की बात करते हैं तो बरबस हमें संत कबीर का यही दोहा याद आ जाता है। हमारे देश में गुरु-शिष्य परंपरा का बहुत गौरवशाली इतिहास रहा है। पहले जहां शिष्य स्वयं को गुरु के चरणों में अर्पित कर देते थे, वहीं गुरु भी शिष्य को केवल किताबी ज्ञान नहीं देते थे, बल्कि उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को संवारकर उसे जीने की कला सिखाते थे। समय बदला, उसके साथ लोगों की जरूरतें भी बदलने लगीं। लिहाजा शिक्षा के क्षेत्र में भी बदलाव लाजिमी था। गुरुकुल की जगह अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों ने ले ली। फिर भी सीखने और सिखाने की प्रक्रिया तो शाश्वत है, जो निरंतर चलती रहती है। चाहे हम कितने ही आधुनिक क्यों न हो जाएं पर शिक्षक और छात्र के रिश्ते में कई ऐसी बातें होती हैं, जो कभी नहीं बदलतीं। मजबूत बुनियाद ऊंची इमारत यह सच है कि परिवार बच्चे की पहली पाठशाला है और मां उसकी प्रथम शिक्षक। जन्म के बाद से शुरुआती तीन-चार वर्षों तक बच्चे में अच्छे संस्कारों की नींव पड जाती है पर जब वह स्कूल जाना शुरू करता है, तब उसके व्यक्तित्व को संवारने में शिक्षक भी बराबर के भागीदार होते हैं। वे अपने छात्रों को केवल पाठ्य पुस्तकों में लिखी गई बातों का ही ज्ञान नहीं देते, बल्कि उनमें शुरू से ही अनुशासन और नैतिक मूल्यों का बीजारोपण भी करते हैं। शिक्षक के सहयोग के बिना हमारे लिए जीवन के रास्ते पर चार कदम भी चलना बेहद मुश्किल हो जाता है। स्कूली जीवन में हम जो कुछ भी सीखते हैं, वह न केवल हमें ताउम्र याद रहता है, बल्कि उसी दौरान हमारे टीचर्स को भी इस बात का अंदाजा हो जाता है कि भविष्य में उनका कौन सा छात्र अपने स्कूल का नाम रोशन करेगा। बैंक में कार्यरत शर्मिष्ठा चक्रवर्ती कहती हैं, 'बचपन में अंकगणित के सवाल हल करते हुए जल्दबाजी में अकसर मुझसे गलतियां हो जाती थीं। हमारी मैथ्स टीचर आभा शर्मा इसके लिए मुझे बहुत डांटती थीं। फिर भी मेरी इस आदत में सुधार नहीं आ रहा था। क्लास वर्क के दौरान सबसे पहले सवाल हल करने की होड में जोड-घटाव के दौरान मुझसे अकसर कोई न कोई चूक हो जाती। एक रोज हमेशा की तरह मैंने सबसे पहले सवाल हल करके हाथ उठाया तो मैम ने मेरी कॉपी लेने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि पहले तुम ध्यान से रिवीजन करो, उसके बाद मुझे अपनी कॉपी दिखाना। उस वक्त मुझे बहुत गुस्सा आया लेकिन जब मैंने दोबारा ध्यान से चेक किया तो सचमुच उस सवाल को हल करने में मुझसे एक जगह गलती हुई थी। पांच मिनट के बाद जब मैंने उन्हें अपनी कॉपी दी तो उन्होंने मुझे समझाया कि ऐसी जल्दबाजी से क्या फायदा, चाहे गणित के सवाल हों या जिंदगी से जुडी समस्याएं, हमें हमेशा धैर्य के साथ उनका हल ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए। टीचर की इस बात का मेरे मन पर इतना गहरा असर हुआ कि अब मैं हमेशा सोच-समझकर निर्णय लेती हूं। बैंक की नौकरी में भी उनकी यही सीख मेरे बहुत काम आती है।' फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड स्कूल में टीचर बच्चों को केवल किताबी ज्ञान ही नहीं देते बल्कि उनके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास पर भी पूरा ध्यान देते हैं। खास तौर पर बोर्डिंग स्कूल में छात्रों के साथ टीचर का बेहद अपनत्व भरा रिश्ता होता है। वनस्थली विद्यापीठ निवाई (राज.) के बिजनेस स्कूल के डीन प्रो. हर्ष पुरोहित कहते हैं, 'हम स्किल डेवलपमेंट के साथ अपनी स्टूडेंट्स के संपूर्ण व्यक्तित्व के समग्र विकास पर विशेष ध्यान देते हैं ताकि यहां से पढाई पूरी करने के बाद हमारी छात्राएं जब अपनी प्रोफेशनल लाइफ में जाएं तो उनका व्यक्तित्व इतना मजबूत बन चुका हो कि वे भविष्य में आने वाली सभी मुश्किलों का सामना सहजता से करने में सक्षम हों। हमारी छात्राओं में इतना आत्मविश्वास हो कि वे बिना किसी दुविधा के अपने सभी निर्णय स्वयं ले सकें। हम शुरू से ही उनमें अच्छी आदतें विकसित करते हैं और स्कूल की पढाई खत्म होने के बाद घर वापस जाते समय उनसे हमेशा यही कहते हैं कि तुम देश की जिम्मेदार नागरिक बनो। केवल पैसे कमाना तुम्हारे जीवन का उद्देश्य न हो। समाज की बेहतरी में भी तुम्हारा योगदान होना चाहिए।' सीखने की उम्र नहीं होती स्कूल में केवल हमें किताबी शिक्षा देने वाला व्यक्ति ही टीचर नहीं होता बल्कि व्यावहारिक जीवन में हर कदम पर मार्गदर्शन करने वाला कोई भी इंसान हमारा टीचर हो सकता है। सीखना एक सहज और सतत प्रक्रिया है। उम्र का सीखने से कोई संबंध नहीं है। अगर मन में इच्छा हो तो इंसान किसी भी उम्र में सीख सकता है। मॉडल दविंदर मदान ने इसे सच साबित कर दिखाया है। वह कहती हैं, 'मैंने लगभग साठ साल की उम्र में मॉडलिंग की शुरुआत की थी। मैं अपने बेटे की एक फ्रेंड को अपना गुरु मानती हूं। दरअसल वह फैशन फोटोग्राफर है और उसी ने जिद करके न केवल मेरा पोर्टफोलियो तैयार करवाया, बल्कि मुझे इस कार्य के लिए प्रेरित भी किया। अब इस बात पर मुझे पक्का यकीन हो गया है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती। साथ ही अगर अच्छे गुरु का मार्गदर्शन मिल जाए तो हमें निश्चित रूप से कामयाबी मिलेगी।' बाजार का दबाव योग्य और संवेदनशील शिक्षक का साथ वाकई छात्र की कई मुश्किलें आसान कर देता है पर आज की तारीख में देश की शिक्षा व्यवस्था पर बाजार का बहुत ज्य़ादा दबाव है। अर्थिक उदारीकरण और ग्लोबलाइजेशन के बाद से देश में निजी शिक्षण संस्थानों की बाढ सी आ गई है। ऐसी जगहों पर न तो योग्य शिक्षक होते हैं और न ही होनहार छात्र। यहां डोनेशन की मोटी रकम दे कर नाकाबिल छात्रों को भी उनके मनपसंद प्रोफेशनल कोर्स में आसानी से एडमिशन मिल जाता है। यहां के छात्रों को पढाई में कोई दिलचस्पी नहीं होती, उन्हें तो बस डिग्री चाहिए। छात्रों का ऐसा रवैया देखकर शिक्षक भी उदासीन हो जाते हैं। वे महज कोर्स कंप्लीट कराने की खानापूर्ति भर करते हैं। कुछ मिला कर ऐसी शिक्षा व्यवस्था केवल छात्रों और शिक्षकों के लिए ही नहीं, बल्कि देश और समाज के लिए बेहद नुकसानदेह है। ऐसे शिक्षण संस्थानों में अपने बच्चों का एडमिशन दिलाने से पहले माता-पिता को भी यह जरूर सोचना चाहिए कि कहीं वे अनजाने में उनके भविष्य से खिलवाड तो नहीं कर रहे? यह संभव नहीं है कि क्लास के प्रत्येक विद्यार्थी को 99 प्रतिशत माक्र्स मिलें या सभी को आइआइटी में ही एडमिशन मिल जाए लेकिन हर स्टूडेंट के व्यक्तित्व में कोई न कोई ऐसी खूबी जरूर होती है, जिसे संवार कर वह अपने लिए अच्छा करियर ढूंढ सकता है। यहां माता-पिता के साथ टीचर्स की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे छात्रों की क्षमता और रुचियों को पहचानते हुए उन्हें उसी के अनुकूल करियर चुनने की सलाह दें, ताकि उन्हें करियर में कामयाबी मिले। प्राइवेट बनाम पब्लिक सेक्टर हर अभिभावक का यही सपना होता है कि उसके बच्चे अपनी प्रोफेशनल लाइफ में कामयाब हों। इसके लिए वे यथासंभव कोशिश भी करते हैं पर ग्लोबलाइजेशन के बाद स्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं। शिक्षा के क्षेत्र का भी व्यवसायीकरण हो चुका है। यह अजीब विडंबना है कि बच्चों की स्कूली शिक्षा के मामले में सरकारी स्कूलों की स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि माता-पिता मजबूरन महंगी फीस देकर अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजते हैं। हालांकि, देश के सभी प्रमुख शहरों में केंद्रीय विद्यालयों की शाखाएं मौजूद हैं। वहां की शिक्षण प्रणाली भी बेहद उम्दा है पर ऐसे विद्यालय केवल केंद्र सरकार के कर्मचारियों के बच्चों के लिए बनाए गए हैं। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों के प्रतिभावान बच्चों के लिए नवोदय विद्यालय खोले गए हैं। इन रेजिडेंशियल स्कूल्स में भी शिक्षा की बहुत अच्छी व्यवस्था है पर यहां सीटों की संख्या सीमित होने की वजह से योग्य छात्रों को भी एडमिशन नहीं मिल पाता। कडी प्रतियोगिता के इस युग में ज्य़ादातर छात्र बारहवीं की परीक्षा में 90 प्रतिशत से ज्य़ादा अंक ला रहे हैं। ऐसे में उनके लिए प्रतिष्ठित सरकारी शिक्षण संस्थानों में एडमिशन लेना बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया है। लिहाजा उन्हें मजबूरन निजी शिक्षण संस्थानों में एडमिशन लेना पडता है। यहां सरकार और शिक्षा सलाहकारों को इस बात पर पुनर्विचार करने की जरूरत है कि शिक्षा व्यवस्था से जुडे मापदंड की परवाह किए बगैर तेजी से निजी स्कूल-कॉलेज खोलने की इजाजत देने के बजाय उन्हें सरकारी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा का स्तर सुधारने, वहां सीटें बढाने और उनकी नई शाखाएं खोलने की दिशा में प्रयत्नशील होना चाहिए ताकि सभी योग्य छात्रों को अच्छी शिक्षा का समान अवसर मिले। व्यवस्था से जुडी खामियां यह सच है कि मौजूदा एजुकेशन सिस्टम में कई खामियां हैं। आज के शिक्षक वर्ग की नैतिक जिम्मेदारियों पर भी सवाल उठाया जाने लगा है। अधिक पैसे कमाने के लालच में आज के ज्य़ादातर टीचर महंगी फीस लेकर अपने ही स्कूल के छात्रों को ट्यूशन देते हैं, बेमन से स्कूल की ड्यूटी बजाने के बाद शाम के वक्त निजी कोचिंग इंस्टीट्यूट में क्लासेज लेने जाते हैं। कुछ टीचर साइड बिजनेस के लिए अपने परिवार के किसी दूसरे सदस्य के नाम पर निजी कोचिंग इंस्टीट्यूट चलाते हैं, जबकि सरकारी नौकरी में रहते हुए दूसरा व्यवसाय करना गैर कानूनी है। अपना नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर एक सरकारी स्कूल के शिक्षक ने बताया, 'अकसर लोगों को यह गलत फहमी होती है कि सरकारी स्कूलों में बडे आराम की नौकरी होती है पर वास्तव में ऐसा नहीं है। बच्चों को पढाने के अलावा भी हमें स्कूल प्रशासन से जुडे कई काम करने होते हैं। टाइम टेबल बनाने से लेकर परीक्षा की कॉपियां जांच कर रिजल्ट तैयार करने के अलावा उनके बीच मिड डे मील के वितरण की जिम्मेदारी भी हम टीचर्स की ही होती है। ऐसे कार्यों में अगर मामूली सी चूक हो जाए तो हमारी नौकरी पर बन आती है। इसके अलावा हमारे ऊपर यह भी दबाव होता है कि क्लास का एक भी बच्चा फेल नहीं होना चाहिए पर सबसे बडी मुश्किल तो यह है कि वहां के छात्र पढऩे को तैयार ही नहीं होते। मजदूर वर्ग के बच्चे केवल मिड डे मील और मुफ्त स्कूल यूनीफॉर्म लेने के लालच में स्कूल आते हैं। पढाई से उनका कोई वास्ता नहीं होता। दोपहर का भोजन मिलने के बाद कोई भी बच्चा स्कूल में रुकने को तैयार नहीं होता। जनगणना, चुनाव के दौरान वोटर लिस्ट तैयार करने से लेकर सभी सरकारी प्रतियोगिता परीक्षाओं में रविवार के दिन भी अनिवार्य रूप से हमारी ड्यूटी लगाई जाती है। गर्मी की छुट्टियों में टीचर्स के लिए पंद्रह दिन पहले से ही स्कूल खुल जाते हैं। हमारे साथ कई शिक्षकों की नियुक्ति अस्थायी तौर पर की गई है। इसलिए उन्हें छुट्टियां, वेतन और भत्ते के मामले में नियमित शिक्षकों जैसी सुविधाएं नहीं मिलतीं पर उन्हें भी हमारी तरह काम करना पडता है। ऐसी स्थिति में अगर टीचर ट्यूशन नहीं पढाएगा तो उसके परिवार का गुजारा कैसे होगा?' केवल शिक्षकों को दोषी ठहराने के बजाय हमें उनकी समस्याओं को भी समझने की कोशिश करनी चाहिए। अगर सरकार शिक्षकों की ऐसी समस्याओं पर गंभीरता से विचार करते हुए उन्हें दूर करने की कोशिश करे तो इससे शिक्षा के स्तर में निश्चित रूप से सुधार आएगा। आज के द्रोणाचार्य यह सच है कि अपने देश की शिक्षा व्यवस्था में कई खामियां हैं लेकिन संसाधनों की कमी का बहाना तो वही बनाते हैं, जो अपने काम को सिर्फ आजीविका चलाने का साधन मानते हैं। जिन्हें अपने प्रोफेशन से सचमुच प्यार होता है वे राह में आने वाली छोटी-छोटी बाधाओं की परवाह किए बगैर मजबूती से अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए डटे रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए बच्चों को शिक्षित करना महज उनका रोजगार नहीं, बल्कि एक मिशन है। सुपर 30 के संस्थापक पटना के प्रोफेसर आनंद कुमार को यह देखकर बहुत दुख होता था कि आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग के प्रतिभावान छात्रों के पास इतने पैसे नहीं होते कि वे किसी बडे इंस्टीट्यूट से इंजीनियरिंग की कोचिंग ले सकें। इसलिए उन्होंने ऐसे छात्रों का जीवन संवारने का निश्चय किया। वह समाज के जरूरतमंद विद्यार्थियों को नि:शुल्क कोचिंग देते हैं। यह उनके ईमानदार प्रयास का ही नतीजा है कि प्रत्येक वर्ष उनकी संस्था से लगभग 27-28 छात्रों को आइआइटी में प्रवेश मिलता है। प्रोफेसर आनंद कुमार जैसे शिक्षक सही मायने में आज के द्रोणाचार्य हैं, जिनकी प्रेरणा के बल पर उनके छात्र निरंतर आगे बढ रहे हैं। केवल शिक्षा ही नहीं बल्कि स्पोट्र्स के क्षेत्र में भी कई ऐसे कोच और प्रशिक्षक हैं, जो लाभ-हानि की परवाह किए बगैर खिलाडिय़ों का हुनर संवारने के लिए खुद भी दिन-रात कडी मेहनत करते हैं। सचिन तेंदुलकर के कोच रमाकांत आचरेकर और रेसलर सुशील कुमार के गुरु सतपाल जैसे कुशल प्रशिक्षकों ने मुश्किल हालात की परवाह किए बिना लगातार कडी मेहनत की। तभी तो आज हमारे सामने सचिन और सुशील कुमार जैसे खिलाडी मौजूद हैं। इन प्रशिक्षकों ने अपने दायित्व का बखूबी निर्वाह किया है। जिम्मेदारी विरासत संजोने की स्पोर्ट्स के अलावा कला और नृत्य-संगीत के क्षेत्र में भी अपने गुणों की विरासत नई पीढी को सौंपने की जिम्मेदारी गुरु की ही होती है। गुरु अपनी कला की धरोहर को अपने शिष्य में पूरी तरह उतार देना चाहता है, ताकि उसके बाद भी उसकी कला हमेशा के लिए अमर हो जाए। इस संबंध में कथक कलाकार दीपक महाराज कहते हैं, 'नृत्य-संगीत जैसी पारंपरिक कलाओं में गुरु और शिष्य दोनों के मन में अपनी कला के प्रति समर्पण का भाव होना चाहिए, तभी सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे। गुरु किसी कुशल जौहरी की तरह होता है, जो अपने शिष्यों के हुनर को तराशने का काम करता है। हालांकि, मेरे पिता जी श्री बिरजू महाराज अपने शिष्यों के बीच कोई भेदभाव नहीं करते और सभी पर समान रूप से तवज्जो देते हैं लेकिन पुत्र होने के साथ मैं उनका शिष्य भी हूं। इसलिए मेरे ऊपर दोहरी जिम्मेदारी है कि मैं उनकी धरोहर को संजो कर आने वाली पीढिय़ों को सौंपूं। स्वाभाविक रूप से मुझसे उनकी उम्मीदें भी बहुत ज्य़ादा हैं। इसलिए मैं गुरु जी की नृत्य शैली को पूरी तरह आत्मसात करने की कोशिश करता हूं। इस दिशा में मेरे बडे भाई जयकिशन महाराज भी अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं। मेरी बेटी रागिनी हमारे खानदान में नौवीं पीढी की कलाकार बन चुकी हैं। हालांकि, अभी वह कॉलेज में पढती हैं पर कई बार मेरे साथ स्टेज परफार्मेंस दे चुकी हैं।' बांटने से बढता है ज्ञान चाहे कोई पारंपरिक कला हो या ज्ञान-विज्ञान से जुडी बातें, विद्या के बारे में हमेशा यही कहा जाता है कि अगर कोई व्यक्ति इसे अपने तक सीमित रखेगा तो यह नष्ट हो जाएगी। इसलिए अब लोग अपने हुनर को ज्य़ादा से ज्य़ादा लोगों के साथ बांटने की कोशिश करते है। इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी भी इसमें बहुत मददगार साबित होती है। आजकल आपको कई ऐसे लोग मिल जाएंगे जो यूट्यूब के माध्यम से लोगों को कुकिंग, ड्रॉइंग, बागवानी, डांस और फिटनेस एक्सरसाइज का प्रशिक्षण देते हैं। आज भी छोटे कस्बों के परिवारों में कई ऐसी बुजुर्ग स्त्रियां आपको आसानी से मिल जाएंगी, जो नई पीढी को पारंपरिक व्यंजन बनाने से लेकर मेहंदी रचाने और रंगोली बनाने की कला सिखाती हैं। इसके बदले में उनकी नातिनें और पोतियां उन्हें मोबाइल के नए एप्लीकेशंस और सोशल वेबसाइट्स का इस्तेमाल सिखा रही हैं। इस आपसी सहयोग से दोनों पीढिय़ों के ज्ञान और कौशल में वृद्धि होती है। उनके बीच के फासले भी मिट जाते हैं। खासतौर पर पुरानी पीढी को अपनी अहमियत का एहसास होता है और युवाओं को अपना हुनर सिखा कर उन्हें गहरी संतुष्टि मिलती है। सृजन का सुख शिक्षक के लिए अंग्रेजी में एक कहावत प्रचलित है, वन्स अ टीचर ऑलवेज अ टीचर। अर्थात दूसरों को अच्छे कार्यों के लिए प्रेरित करना और उन्हें कुछ नया सिखाने की आदत शिक्षक के मूल स्वभाव में शामिल होती है। टीचर के जीवन पर एक बडी दिलचस्प फिल्म बनी थी- 'दो दूनी चार', जिसमें एक मिठाई बेचने वाला अपने बेटे को मैथ्स की परीक्षा में पास करवाने के लिए टीचर के सामने रिश्वत देने का प्रस्ताव रखता है। एक बार के लिए टीचर का भी ईमान डोल जाता है। वह सोचता है कि इन पैसों से मेरे बच्चों के लिए नई कार आ जाएगी पर बीच में कुछ ऐसे नाटकीय घटनाक्रम होते हैं कि रिश्वत देने वाले व्यक्ति को अपनी गलती का एहसास हो जाता है। वह टीचर से माफी मांगते हुए कहता है कि मैं तो मिठाइयां बनाने वाला अनपढ इंसान हूं। मेरे इस काम में हलकी बेईमानी हो भी गई तो खास फर्क नहीं पडता लेकिन आप पर तो बच्चों को समझदार इंसान बनाने की बहुत बडी जिम्मेदारी है। अगर इसमें जरा भी मिलावट हुई तो भारी गडबड हो जाएगी। सम्मान की पूंजी शिक्षकों का काम बेहद रचनात्मक है, जिसमें बहुत ज्य़ादा धैर्य की जरूरत होती है। वे बच्चों को अच्छा इंसान और जिम्मेदार नागरिक बनाते हैं। सुजाता शर्मा एक अवकाश प्राप्त शिक्षिका हैं। वह बताती है, 'नर्सरी से बारहवीं कक्षा तक एक बच्चे को ग्रो करते हुए देखने और उसके व्यक्तित्व को संवारने का एहसास बेहद सुखद होता है। आज कहीं किसी शॉपिंग मॉल में जब मेरा कोई पुराना स्टूडेंट मुझसे कहता है, 'मैम पहचाना मुझे? क्लास सेवंथ ए में आप मेरी क्लास टीचर थीं। उनके मुंह से यह सुनकर मुझे बेइंतहा खुशी मिलती है। ऐसा लगता है कि मेरी सारी मेहनत सफल हो गई। दूसरे प्रोफेशन में चाहे हम जितने भी पैसे कमा लें पर रिटायरमेंट के बाद वहां के लोग हमें भूल जाते हैं लेकिन देश के हर कोने में मौजूद हमारे स्टूडेंट अपने टीचर्स को हमेशा याद रखते हैं। उनसे मिलने वाला प्यार और सम्मान ही हमारी सबसे बडी पूंजी है।' सही मायने में शिक्षक हमारे राष्ट निर्माता हैं। समय के साथ समाज बदल रहा है। शिक्षक भी इसी समाज का हिस्सा हैं और उन पर इस बदलाव का असर पडऩा स्वाभाविक है। हो सकता है कि समाज की कुछ बुराइयां उन्हें भी प्रभावित करें लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे अयोग्य हैं और अपने दायित्व से विमुख हो रहे हैं। सामाजिक बदलाव सहज और सतत प्रक्रिया है। इसलिए उसके साथ शिक्षा प्रणाली और शिक्षकों में आने वाले बदलावों को भी हमें सहजता से स्वीकारना चाहिए। हर पल सीखने की कोशिश फिल्म निर्देशक और सिनेमेटोग्राफर अशोक मेहता मेरे पहले गुरु हैं। उनकी एक सीख मुझे आज भी याद है। वह हमेशा कहते थे, आपको अपने काम में बेस्ट होना है, सेकंड बेस्ट नहीं चलेगा। अपनी सफलता के लिए किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए। हमारे लिए बेहतर इंसान बनना ज्य़ादा जरूरी है। उनकी यह सीख मुझे हमेशा याद रहती है। इसके साथ मैंने फिल्म के दौरान अपनी टीम और कलाकारों से भी बहुत कुछ सीखा। 'अक्स' के दौरान मैंने अमिताभ बच्चन जी से मेहनत करना सीखा। वह आज भी हमसे अधिक मेहनत करते हैं। उस फिल्म की शूटिंग के समय हम देर रात तक बातें करते थे। फिर वह सुबह सेट पर जाने के लिए तैयार हो जाते। पता नहीं, वह सोते भी थे या नहीं। फिल्म 'रंग दे बसंती' के दौरान मैंने आमिर खान से विश्वास करना सीखा। कैसे होगा, कब होगा, ऐसी बातें सोचकर वह कभी भी चिंतित नहीं होते। वह हमेशा पूरे विश्वास के साथ कहते हैं कि यह काम हो जाएगा। असंभव जैसा शब्द उनकी डिक्शनरी में है ही नहीं। 'भाग मिल्खा भाग' में मैंने फरहान अख्तर से यह सीखा कि हमें सभी के साथ विनम्र व्यवहार करना चाहिए। वह खुद अच्छे निर्देशक, ऐक्टर और निर्माता हैं। इसके बावजूद उन्होंने बिना किसी सवाल के अपने अठारह महीने मुझे दे दिए। जब भी मुझे उनकी जरूरत होती, वह हमेशा मुझसे मिलने को तैयार रहते हैं। गुलजार भाई के लिए क्या कहूं? उनसे जुडी अनगिनत बातें हैं। उनके साथ बिताया गया हर पल बेहद कीमती है। गीतकार प्रसून जोशी मुझसे छोटे हैं। अति व्यस्त होने के बावजूद जब भी मुझे जरूरत होती है, वह हमेशा मेरे साथ होते हैं। कमलेश पांडे आइडिया के बादशाह हैं। उनसे मैंने नए आइडियाज को अपनाना सीखा। सीखने की कोई उम्र नहीं होती और एक ही व्यक्ति हमारा गुरु नहीं हो सकता। चाहे कोई मुझसे बडा हो या छोटा, दूसरों के सद्गुणों को मैं हमेशा अपनाने की कोशिश करता हूं। राकेश ओमप्रकाश मेहरा, निर्देशक माता-पिता हैं मेरे शिक्षक मेरे माता-पिता ने क्रिएटिव दुनिया से मेरा परिचय करवाया। उनकी वजह से ही मुझे म्यूजिक, पेंटिंग, सिनेमा और नाट्य कला जैसी विधाओं से रूबरू होने का मौका मिला। कम उम्र से ही मुझमें कला की अच्छी समझ विकसित होने लगी थी पर मैंने एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में आने के बारे में कभी नहीं सोचा था। अपने माता-पिता के कारण ही मैं इस इंडस्ट्री में हूं। बचपन से ही मैं उनके साथ सप्ताह में दो फिल्में जरूर देखता था। इसका फायदा मुझे आज मिल रहा है। शुरुआत से ही मेरे पेरेंट्स मुझे कला के क्षेत्र में आगे बढऩे के लिए प्रोत्साहित करते रहे हैं। आज भी मैं अपनी प्रत्येक स्क्रिप्ट का ड्राफ्ट पहले उन्हीं से पढवाता हूं। मैं उनसे स्क्रिप्ट के हर पहलू पर बात करता हूं और वह बडी बेबाकी से अपनी राय देते हैं। सही मायने में वे ही मेरे गुरु हैं। आशुतोष गोवारिकर, निर्देशक स्टेनले कुब्रिक हैं मेरे टीचर सीखने के लिए यह जरूरी नहीं है कि टीचर हमारे सामने बैठे हों। मैं बचपन से ही हॉलीवुड के फिल्म मेकर स्टेनले कुब्रिक का फैन रहा हूं। मैं उन्हें ही अपना टीचर मानता हूं। वह मेरे पसंदीदा जोनर पर काम करते थे। वह हमेशा डार्क कॉमेडी बनाते थे। उन्हें लडाई से नफरत थी। इस सोच का असर उनकी फिल्मों में भी दिखता है। वैसे तो उनकी सभी फिल्में अच्छी होती हैं पर 'पाथ्स ऑफ ग्लोरी' मेरी फेवरिट फिल्म है। वे हमेशा से मेरे प्रेरणास्रोत रहे हैं। उनकी फिल्मों के गंभीर विषयों में भी हंसी छिपी होती है। उनकी अपनी अलग ही शैली थी, जिसका कोई जवाब नहीं है। उन्हें फिल्म से जुडी बारीकियों की बहुत अच्छी समझ थी। उनकी फिल्मों से मैंने काफी कुछ सीखा है। अभय देओल, अभिनेता सदा रहेगा गुरु का आशीर्वाद उस्ताद गुलाम मुस्तफा मेरे गुरु हैं। मैं कई वर्षों से उनसे संगीत सीख रहा हूं। अगर कभी मेरी तबीयत खराब हो और उसी दौरान किसी जरूरी रिकॉर्डिंग की डेट हो तो मैं उन्हीं को याद करके रियाज और रिकॉर्डिंग करता हूं। इससे मुझे बहुत हौसला मिलता है। अच्छे गुरु की यही तो खासियत होती है कि वह हमारे पास रहें या दूर, उनको याद भर कर लेने से सारी तकलीफें दूर हो जाती हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि अपने गुरु द्वारा सिखाई गई बातों से ताउम्र मुझे मार्गदर्शन मिलता रहेगा। उनका आशीर्वाद मेरे साथ है। शान, गायक गुलजार साहब हैं मेरे शिक्षक फिल्म इंडस्ट्री में मेरे शिक्षक गुलजार साहब हैं। मुझे उनकी फिल्म 'माचिस' में काम करने का मौका मिला और वहीं से मेरे करियर की शुरुआत हुई। मुझे याद है , एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि जीवन में आगे बढऩे के लिए लगातार काम करना बेहद जरूरी है। वह हमेशा यही कहते थे कि कभी भी किसी फिल्म को अपनी किस्मत मत बनने दो। कामयाबी को खुद पर हावी मत होने देना और नाकामी से कभी भी निराश मत होना। निराशा से पैदा होने वाले डिप्रेशन को दूर करने का एक ही उपाय है कि लगातार काम करते रहो, तुम्हारी मेहनत जरूर रंग लाएगी। जिमी शेरगिल, अभिनेता पिता से मिली प्रेरणा मेरे पिता जावेद शेख सही मायने में मेरे शिक्षक हैं। वही मेरी प्रेरणा हैं। उनके काम करने का तरीका मुझे बहुत प्रभावित करता है। पाकिस्तान में वह नामचीन अभिनेता और निर्देशक हैं लेकिन भारत में भी बतौर ऐक्टर उन्होंने अपनी पहचान बनाई है। 'हैप्पी भाग जाएगी' की शूटिंग के दौरान मैं चकित रह गई। मैंने देखा कि भारत में भी लोग उन्हें पहचानते हैं। यहां भी लोगों को पता है कि मैं उनकी बेटी हूं। शूट पर पहले ही दिन सब उनसे मिलने आ गए। उन्होंने अपनी सहजता से दोनों मुल्कों की अवाम का दिल जीता है। मैं भी उन्हीं के नक्शेकदम पर चलना चाहती हूं। मोमल शेख , अभिनेत्री इंटरव्यू : मुंबई से प्राची दीक्षित

Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.