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मां का सफरनामा

मातृत्व बेहद खूबसूरत एहसास है। मगर मां होने के एहसास से जुड़ी जिम्मेदारियां उतनी ही जटिल हैं। मातृत्व की इस यात्रा में कई ऐसे मोड़ और पड़ाव आते हैं, जो स्त्री को चुनौतियां देते हैं। इन्हीं से जूझते हुए वह परिपक्व होती है, गलतियों से सीखती है। ऐसे ही मोड़ों से गुजरी मांओं के अनुभव बटोरें और चलें मां के रोमांचक और अनोखे सफर पर इंदिरा राठौर के साथ।

By Edited By: Published: Wed, 01 May 2013 12:48 AM (IST)Updated: Wed, 01 May 2013 12:48 AM (IST)
मां का सफरनामा

ईश्वर ने दुनिया बनाई। जब उसे लगा कि वह अकेले इसकी देखभाल नहीं कर सकता तो उसने मां की रचना की।

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एक एहसास है मां। प्यार भरी लोरी है, जिसे सुनते ही बच्चे को नींद आ जाती है, वह आंख है, जो बच्चे के लिए रात-रात भर जागती है। तावीज बनकर बुरी नजर से बचाती है तो गर्म दुपहरी में छांह बन जाती है। मां सुबह की नर्म-मुलायम धूप है, जो तन-मन में ऊर्जा जगा देती है, हवा है- छू कर गुजरे तो दिल को सुकून मिल जाता है, वह आंचल है, जिसमें छुप कर हम दुनिया की हर तकलीफ को भुला देते हैं, वह गोद है जो हमारी ख्वाबगाह बन जाती है। मां कोई जादूगर है, जो हमारे मन की हर बात समझ जाती है, जिसे हमारा चेहरा देखते ही समझ आ जाता है कि हमें क्या चाहिए। मां वह आईना है, जिसमें हम खुद को देखते हैं और खुदा को महसूस करते हैं..।

हर मोड पर है नई चुनौती

..लेकिन क्या मां की जिंदगी किसी कविता जैसी सहज और आसान है? बच्चे को कोख में धारण करने, जन्म देने, परवरिश, करियर और शादी से लेकर उनके बच्चों के जन्म तक मां एक ही जीवन में कई जीवन जीती है। हर जीवन नई चुनौतियां लेकर आता है। मां की पूरी जिंदगी एक रोलर-कोस्टर की तरह है।

पिछले कुछ वर्षो में तो मां की भूमिका और भी चुनौतीपूर्ण हो गई है। राशन-बिलों की लंबी लाइनों में खडी, सब्जी वाले से मोलभाव करती, ग्रॉसरी स्टोर में स्कीम्स पर नजर दौडाती, काम वाली बाई को हिदायतें देती और फिर घडी की सुइयों से भी तेज भागते हुए दफ्तर पहुंचती इस मां का जीवन बहुत बदल चुका है। वह टीनएज बच्चों की सुरक्षा के लिए फिक्रमंद रहती है और उन पर नजर रखने की हरसंभव कोशिशें करती है। फेसबुक पर अनफ्रेंड कर दिए जाने के बावजूद बच्चों के अकाउंट एक्सेस कर लेने को अपनी जीत मान लेती है। वह ई-मेल और वेबकैम से दूर बसे बेटा-बेटी का हालचाल लेती है तो एसएमएस के जरिये डाइट और दिनचर्या के बारे में सख्त हिदायतें देना भी नहीं भूलती..। मां आत्मनिर्भर है, आत्मविश्वास से भरपूर है, बच्चों की दोस्त है..। मगर बच्चे की आंख में आंसू नहीं देख पाती। मां के इस सफर में हजारों मुश्किलें हैं। पालक, संरक्षक, सलाहकार, नर्स, शिक्षक जैसी हर भूमिका मां एक साथ निभाती है। सच यह है कि मां भी बच्चों के साथ धीरे-धीरे बडी होती है, परिपक्व होती है। मां की इस यात्रा में कई मोड आते हैं।

जन्म लेती मां

बच्चे के जन्म से पहले ही मातृत्व का अनोखा सफर शुरू हो जाता है। शिशु मां पर निर्भर होता है। उसके साथ सोना-उठना, हर पल उसे अपनी मौजूदगी का एहसास कराना, उसकी हर पीडा को बिना कहे समझ जाना..। फैशनेबल कपडे, दोस्त, पार्टीज, लेट नाइट मूवीज, शॉपिंग, सामाजिक आयोजन.., मां कुछ साल दुनियादारी से पूरी तरह कट कर सिर्फ बच्चे की होकर रह जाती है। बच्चा फुलटाइम जॉब है-मां होलटाइमर। अब उसके पर्स में मेकअप का सामान और एक्सेसरीज नहीं, बल्कि दूध की बॉटल, डाइपर्स, कैंडीज मिलती हैं।

उलझनें नई मां की

प्रसव के दौरान मां का तनाव और दबाव बढता है। एक शोध के मुताबिक लगभग 13 फीसदी स्त्रियां प्रसव के बाद डिप्रेशन से जूझती हैं। क्लिनिकल भाषा में इसे पोस्टपार्टम डिप्रेशन कहा जाता है। यह अस्थायी होता है, लेकिन समय रहते ध्यान न दिया जाए तो इससे स्त्री में नकारात्मक दृष्टिकोण व असुरक्षा-भय पैदा होने लगता है जो साइको सोमेटिक डिसॉर्डर के रूप में दिखता है। इस दौरान ख्ाुशी देने वाले हॉर्मोस जैसे सेरोटोनिन का स्तर घटता है। यह ब्रेन से रिलीज होने वाला हॉर्मोन है, जो मूड अच्छा करता है। बढती जिम्मेदारियां, शारीरिक परिवर्तन, समय का अभाव और भूमिकाओं का द्वंद्व भी डिप्रेशन का कारण बनता है।

अपराध-बोध से निकलें

नई मां के लिए जरूरी है कि खुद से अधिक अपेक्षाएं न रखे। परिवार के अन्य सदस्यों का सहयोग ले। तनावग्रस्त हो तो बच्चे का मुसकराता चेहरा देखे और पति के सान्निध्य में रहे, इससे संतुष्टि मिलेगी। बच्चे के साथ अपना ध्यान रखे और वजन संतुलित रखे।

बडी होती मां

मां सबसे ज्यादा खुद को अपडेट कब करती है? इसका जवाब है- जब बच्चे टीनएज में आते हैं। बच्चों की टीनएज दरअसल मातृत्व की भी टीनएज है। अब मां को गाइड के साथ ही दोस्त की भूमिका भी निभानी पडती है। मां की पदोन्नति होती है, लेकिन जिम्मेदारियां भी बढती हैं। उसे समझना पडता है कि कैसे कठोर अनुशासन और लचीलेपन के साथ बीच की राह खोजे।

पेरेंटिंग का द्वंद्व

इस मोड पर दिल न तो बच्चों की बातों को सही ठहरा पाता है, न पूरी तरह उन्हें खारिज कर पाता है। मां यह अपेक्षा तो रखती है कि बच्चा जिम्मेदार बने, लेकिन यह नहीं समझ पाती कि उसे कितनी आजादी दे। अभी तुम बच्चे हो और तुम बडे हो गए हो के बीच का द्वंद्व मातृत्व की टीनएज को बहुत परेशान करता है। दूसरी ओर टीनएजर्स की बदलती दुनिया भी हैरान करती है।

टीनएज से निकलें

बच्चों पर निगरानी रखें, लेकिन उन्हें इतना न टोकें कि वे घुटन महसूस करने लगें। उन्हें बडा आदमी नहीं, बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा दें। यही उम्र है, जब बच्चों को पारिवारिक-नैतिक मूल्य दिए जाने चाहिए। बडे होते बच्चों के हिसाब से खुद को अपडेट करें, उनके मित्रों से संवाद रखें, लेकिन सजग भी रहें। यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि परवरिश के जटिल मुद्दे को लेकर पति से विवाद की स्थिति न पैदा हो।

परिपक्व होती मां

बच्चों के साथ ही मां भी परिपक्व होती है। उसमें स्थायित्व आता है। मातृत्व अब उसे इतना हैरान-परेशान नहीं करता। मां के सफर का यह ऐसा पडाव है, जहां वह पूरी तरह निश्चिंत न सही, मगर थोडा सुकून से बैठ सकती है। यहां पहुंच कर जीवन में ठहराव आता है, मगर युवा बच्चों की दुनिया में कई बार वह थोडा असहज भी महसूस करने लगती है। यह स्थिति खासतौर पर तब आती है जब बच्चे उच्च शिक्षा या करियर के लिए दूर चले जाएं या उनकी शादी हो जाए।

खालीपन का एहसास

फास्ट ट्रैक पर चलती जिंदगी की गाडी में ब्रेक लगता है तो तेज झटके के साथ चौंक उठती है मां। रफ्तार भरी जिंदगी से अचानक वह एक खालीपन में आ जाती है। अगर यह मेनोपॉज की स्थिति हो तो यह दौर ज्यादा परेशान कर सकता है। कई तरह के हॉर्मोनल बदलाव भी भावनात्मक संतुलन बिगाड देते हैं।

फिर से नई शुरुआत

यही वह पडाव है, जब मातृत्व से इतर अपने स्वतंत्र अस्तित्व की अभिव्यक्ति कर सकती है मां। अपने शौक जगा सकती है और जीवनसाथी के साथ फिर से सुहाने सफर की शुरुआत कर सकती है। एक नन्ही चिडिया से प्रेरणा लें। कैसे वह तिनका-तिनका बीन कर घोंसला बनाती है, बच्चों को खिलाती-बडा करती है। एक दिन बच्चे बडे हो जाते हैं और उड जाते हैं। घोंसला ख्ाली रह जाता है..। युवा बच्चों को, खासतौर पर अगर वे विवाहित हों तो बिना मांगे कोई सलाह देने से बचें। हां, जरूरत के समय उन्हें अवश्य मदद दें, उन्हें सहयोग दें, लेकिन इस दौर में अधिक जरूरी यह है कि अपने सामाजिक रिश्ते आगे बढाएं, भाई-बहनों, संबंधियों और दोस्तों से नजदीकी बढाएं और नए शौक पैदा करें।

बचपन में लौटती मां

मातृत्व की राह का यह चौथा पडाव बेहद खूबसूरत होता है। यहां आकर एक बार फिर बचपन को जीने लगती है मां। नानी-दादी बनने का यह नया एहसास कुछ अलग सा होता है। तुम्हारी मां भी ऐसी ही थी बचपन में.., तुम्हारे पापा भी इतने जिद्दी थे.., इतिहास एक बार फिर खुद को दोहराता नजर आता है। नाती-पोतों-पोतियों के साथ खेलती-खाती, हंसती-गुनगुनाती है मां..।

चुनौतियां तो यहां भी हैं

नानी-दादी के लिए बडी चुनौती है संयुक्त परिवारों को जोडे रखना। परिवार के साथ उन्हें मानसिक-भावनात्मक बल मिलता है। बच्चों से पेरेंटिंग के तौर-तरीकों को लेकर विवाद संभव है, लेकिन सोचें, जैसे कुम्हार अपनी इच्छानुसार मिट्टी को आकार देना चाहता है, उसी तरह हर माता-पिता अपने बच्चों की परवरिश अपने हिसाब से करना चाहते हैं।

खुश रहें-संतुष्ट रहें

शरीर की सीमाएं हैं, लेकिन मन की कोई सीमा नहीं। शरीर चुकने लगे तो मन को जवां बनाएं। अपनों का साथ हो तो उम्र का यह दौर बहुत संबल देता है। इस दौर में अगर दो पीढियां तीसरी पीढी को अपने-अपने समय के सर्वोत्तम मूल्य दे सकें तो बहुत अच्छा हो। नानी-दादी प्रेरणादायक कहानियां सुना सकती हैं, मूल्यों व परंपराओं के बारे में बता सकती हैं। थोडी सी समझदारी से मातृत्व का यह चौथा पडाव खूबसूरत बन सकता है, बस जरूरत है दृष्टिकोण बदलने की। अपनी आंखों में नई दुनिया बसाएं और मां के इस सफरनामे में खुशनुमा अध्याय जोडें।

कई रातें आंखों में काटी हैं मैंने

शिल्पा शेट्टी, अभिनेत्री

मां बने बिना कुछ अधूरा सा लगता है। हालांकि यह बहुत कठिन दौर भी है स्त्री के जीवन का। मेरे लिए भी यह काफी मुश्किल रहा है। दूर से देखने पर बहुत अच्छा लगता है लेकिन असल जिंदगी में कई-कई रातें बच्चे के लिए आंखों में बिता देना.., अपनी नींद का त्याग करना ताकि बच्चा ठीक से सोए.., यह एक मां ही कर सकती है। कुछ समय पहले मेरा बेटा विवान बीमार हो गया था। आठ दिन बिना सोए गुजारे हैं मैंने। मातृत्व एक अलग ही भावना है, इसे बिना मां बने नहीं समझा जा सकता। मैं भी मां बन कर ही इसे समझ पाई हूं। तकलीफों से गुजर कर ही जाना कि मेरी मां ने मुझे बडा करने में कितने कष्ट सहे होंगे। विवान के जन्म के समय सबसे पहले मैंने उन्हें ही याद किया। वह कहती थीं कि बच्चे को सबसे ज्यादा वक्त देना चाहिए। मेरी कोशिश यही होती है कि विवान को ज्यादा से ज्यादा वक्त दे सकूं। उसे खाना खिलाने से लेकर नहलाने तक की सारी जिम्मेदारियां मेरी हैं। उसके टाइम के मुताबिक मैंने अपनी दिनचर्या बनाई है। हाल में आईपीएल ऑक्शन के दौरान एक रात मैं उसे साथ नहीं रख पाई। यह पहला मौका था, जब वह मेरे बिना सोया।

मां बनते ही लडकी की दुनिया बदल जाती है। सबसे बडा चेंज प्रोफेशनल लाइफ में आता है। पार्टनर से झगडा हो तो काम में टेंशन को भूल सकते हैं, लेकिन बच्चा बीमार हो तो कहीं मन नहीं लगता। विवान के बीमार पडने पर मैंने नच बलिए 5 के निर्माताओं से गुजारिश की कि मुझे कुछ दिन छुट्टी दें। एक समस्या यह भी थी कि प्रेग्नेंसी में वजन करीब 20 किलो बढ गया था। बेबी हाथी जैसी दिखती थी मैं। विवान को गोद में उठाने के लिए झुक नहीं पाती थी। फिर तय किया कि वजन घटाऊंगी। रोज एक घंटा जिमिंग की और पहले जैसी हो गई। विवान थोडा बडा हो गया है, मगर अभी भी चार-छह घंटे ही सो पाती हूं। उसकी हंसी सारा तनाव दूर कर देती है। नई लडकियों को मेरी सलाह है कि शादी और ब"ो का फैसला सही उम्र में लें। लेट प्रेग्नेंसी में कई मुश्किलें आ सकती हैं। करियर के साथ परिवार भी जरूरी है।

एक्सपर्ट सलाह

बच्चे के जन्म के समय स्त्री के शरीर, भावनाओं सहित सामाजिक रिश्तों तक में कई बदलाव आते हैं। वह बिना शर्त बच्चे को स्वीकार करती है। यह प्यार बच्चे के लिए भी जरूरी है। मां से ही वह दुनिया की अच्छाई के बारे में पहला सबक सीखता है। लेकिन नई मां कई दबावों से भी गुजरती है। नींद पूरी न होने व दिनचर्या बिगडने से उसमें चिडचिडापन, डिप्रेशन, थकान, मूड स्विंग जैसे लक्षण दिखने लगते हैं। इसे बेबी ब्ल्यूज कहा जाता है। हालांकि ये बदलाव अस्थाई होते हैं। पार्टनर, मित्रों व शुभचिंतकों से भावनाएं बांट कर वह इन आवेगों व समस्याओं से उबर सकती है। डॉ. साधना काला, वरिष्ठ स्त्री रोग विशेषज्ञ, मूलचंद विमेन हॉस्पिटल, दिल्ली

सिकंदर ने बदल दी मेरी जिंदगी

किरण खेर, अभिनेत्री

मैं वर्ष 1985 में अपने पति गौतम बेरी से अलग हुई और अनुपम खेर जी के साथ आई। बच्चे आमतौर पर सौतेली मां या सौतेले पिता को नहीं स्वीकार कर पाते। अनुपम से शादी करते वक्त मेरे भीतर सबसे बडा डर यही था कि सिकंदर उन्हें पिता के रूप में स्वीकार कर पाएगा या नहीं। पता नहीं वह इस सिचुएशन में कैसे रिएक्ट करेगा, लेकिन उसने मेरी हर आशंका को निर्मूल साबित कर दिया। वह समझदार बच्चा निकला।

सिकंदर को अनुपम जी के साथ सामंजस्य बिठाने में कोई प्रॉब्लम नहीं हुई। दोनों जल्दी ही अच्छे दोस्त बन गए। न उसने कभी गौतम के बारे में कुछ पूछा, न मैंने या अनुपम जी ने उस मुद्दे को कभी तूल देने की कोशिश की। कई बार तो मुझे लगता है कि परिपक्वता क्या होती है, यह बात उसने ही मुझे सिखाई है। सचमुच ब"ो हमें बहुत-कुछ सिखाते हैं।

सिकंदर के जन्म के समय मेरी मां मेरे साथ थीं। उन्होंने बच्चे की परवरिश में मेरी पूरी मदद की। मेरा मानना है कि बच्चे को बेहतर बनाना चाहते हों तो उसे अपने फैसले खुद लेने दें। फैसले को सही दिशा और स्वरूप कैसे दिया जा सकता है, उस पर जरूर नजर रखें। सिकंदर के साथ हमने यही किया। उसे कोई अनावश्यक सपोर्ट नहीं दिया। न हमने उसे लॉन्च करने की कोशिश ही की, न निर्माता-निर्देशकों से उसे लॉन्च करने को कहा। उसने सब कुछ अपने दम पर किया।

हर मां की तरह मैंने भी सिकंदर का भला चाहा है, लेकिन इसके लिए कभी उसे लाड-प्यार की ओवरडोज नहीं दी। शायद इसलिए वह अब तक बेहद संयत और संतुलित है। हमने बचपन से ही उसमें सीखने और हालात से जूझने की क्षमता विकसित करने की कोशिश की है। फिल्म ओम जय जगदीश के समय अनुपम वित्तीय संकट के दौर से गुजर रहे थे। उस दौरान सिकंदर ने उन्हें पूरा मॉरल सपोर्ट दिया। अनुपम इसके लिए हमेशा मेरी तारीफभी करते हैं। अब सिकंदर बडा हो गया है और बहुत सी बातें समझता है। मैं छोटे से परिवार में मातृत्व का मजा ले रही हूं।

एक्सपर्ट सलाह

टीनएज में ब"ाों के शरीर व मन में जितने बदलाव आते हैं, उतनी ही उथल-पुथल मां के दिमाग में भी चलती है। बच्चे बात नहीं सुनते तो बुरा लगता है। ब"ाों को लगता है कि वे तो अपनी बात रख रहे हैं। मां को इसलिए बुरा लगता है कि इसे वह अपने विचारों का रिजेक्शन समझती है। आजाद सोच एक स्किल भी है। ब"ाों को शुरू से अलग व्यक्तित्व की तरह ट्रीट करें, उन्हें अपनी बात रखने के लिए प्रोत्साहित करें। उनके तर्क समझें, तभी उन्हें समझ सकेंगी।

डॉ. गगनदीप कौर, क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट, यूनीक साइकोलॉजिकल सर्विसेज, दिल्ली

अपनी बेटियों की दोस्त हूं मैं

मेरी दोनों बेटियों जाह्नवी और खुशी ने मेरे लिए अलग दुनिया बना दी है। जबसे बेटियां हुई हैं, मैं बोनी जी को भी ज्यादा वक्त नहीं दे पाती। हालांकि मेरी कोशिश है कि मैं समर्पित पत्नी और अच्छी मां बन सकूं। अपनी बेटियों के साथ मेरे रिश्ते वैसे ही हैं जैसे मेरे अपनी मां से थे। लेकिन मां से मैं दिल की हर बात नहीं बांट पाती थी, यहां तक कि मेरे साथी कलाकार भी उनसे बहुत डरते थे। पर अब बेटियों के लिए मैं दोस्त जैसी हूं। जाह्नवी तो मुझे दोस्त की तरह ही ट्रीट करती है। फैशन का उसे जबरदस्त शौक है।

अभी वह 15 साल की है। जाह्नवी नौंवी और खुशी छठी कक्षा में है। मैं चाहती हूं कि वे अभी पूरा ध्यान पढाई पर दें। जाह्नवी जब पांच साल की थी तो उसने बोनी से कहा था, पापा मैं ऐक्ट्रेस बनना चाहती हूं। बोनी ने उससे कहा, बेटा मैं चाहता हूं कि तुम डॉक्टर बनो। इस पर उसने कहा, ठीक है पापा, आप मेरे लिए कोई फिल्म बनाना तो मैं उसमें डॉक्टर का रोल प्ले कर लूंगी। खैर वह तो बचपन की बात थी, मगर अब वह पढाई को लेकर काफी सीरियस है। हमेशा अच्छे नंबर लाती है।

मेरे खयाल से अब मांओं को टीनएज बच्चों के साथ दोस्ती वाला रवैया ही अपनाना चाहिए। आज की जिंदगी काफी उलझी हुई है। करियर और बनते-बिगडते रिश्तों के बीच बच्चों को किस तरह मजबूत बने रहना है, किस तरह विपरीत स्थितियों का सामना करना है, इसे सिखाने के लिए ब"ाों का दोस्त बनना होगा। अगर माता-पिता अपने बच्चों को समझेंगे और उनकी काउंसलिंग ठीक ढंग से करेंगे तो वे कभी भटकेंगे नहीं।

मां की जिम्मेदारियां कभी ख्ात्म नहीं होतीं

इला अरुण, गायिका

बच्चों को मैं कुदरत की सबसे बडी सौगात मानती हूं। ब"ो न होते तो दुनिया कितनी बेरंग होती। मैं कुछ समय बाद नानी बन जाऊंगी, लेकिन अभी से एक्साइटेड हूं। बेटी का पूरा खयाल रख रही हूं। इस समय अपनी मां की बातें याद आ रही हैं। मेरी बेटी इशिता का उन्होंने बहुत खयाल रखा। वह अकसर पिता से कहती थीं, देखो मेरी उम्र 85 वर्ष हो चुकी है, फिर भी मुझे इन लोगों की चिंता सताती रहती है। बच्चे स्ट्रेस देकर हमारा स्ट्रेस दूर कर देते हैं। वे बडे होते हैं तो कई चिंताएं भी घेरती हैं, लेकिन जब वे जीवन में सफल हो जाते हैं तो खुशी भी होती है। बच्चों की शैतानियों से हम चिढते नहीं। वे हमारे खिलौने जैसे होते हैं, जो हमें हर दुख-तकलीफ से उबार देते हैं, हर मुश्किल से जूझने की ताकत और ऊर्जा देते हैं। पहले मैं जब परेशान होती थी तो बेटी का चेहरा देखती। उसकी मासूम मुस्कान मेरा तनाव दूर कर देती थी। मेरे खयाल से संयुक्त परिवारों में ब"ो ज्यादा अनुशासित होते हैं। मैं भी बडे परिवार में पली-बढी हूं। आपसी सामंजस्य बेहतर हो तो बूढे भी खुश रहते हैं और बच्चे भी। ऐसे परिवारों में बच्चों को भरपूर प्यार मिलता है। गांधी फिल्म बनाने वाले रिचर्ड एटनबरो तक संयुक्त परिवार को हिंदुस्तान की सबसे बडी ताकत मानते हैं।

एक्सपर्ट सलाह

जीवन के इस पडाव पर एकाएक उपजे खालीपन के एहसास को एंप्टी नेस्ट सिंड्रोम कहा जाता है। जिंदगी के कई वर्ष बच्चों को समर्पित करने के बाद मां ख्ाली सी हो जाती है। यह दौर मेनोपॉज का भी होता है। चिडचिडाहट, थकान व तनाव का एहसास होता है। बच्चों की शादी हो जाए, खासतौर पर घर में बहू आए तो सामंजस्य बिठाना भी एक चुनौती होता है। यह दौर तब बेहतर होगा जब जिम्मेदारियों से बाहर निकलें, दोस्तों-रिश्तेदारों से मिलें, सामाजिक कार्य करें और पार्टनर से अच्छे रिश्ते बनाएं।

डॉ. वंदना तारा, क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट, मूलचंद मेडिसिटी, नई दिल्ली

रिश्ता मां-बच्चे का

दुनिया का सबसे अनोखा रिश्ता है मां और बच्चे का। मां के लिए बच्चे से बडा कोई धर्म नहीं होता। लगभग पूरी दुनिया के लोग मानते हैं कि मां के साथ उनका सबसे करीबी रिश्ता है। कई सर्वेक्षण भी यही कहते हैं।

पिछले वर्ष पीएंडजी कंपनी की ओर से 12 देशों में कराए गए एक सर्वेक्षण में लोगों ने माना कि मां से उनका रिश्ता सबसे ख्ाूबसूरत है। सर्वे में ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, इंडोनेशिया, जापान, मलेशिया, न्यूजीलैंड, फिलिपींस, दक्षिणी कोरिया, थाइलैंड, सिंगापुर और वियतनाम जैसे एशियाई देश शामिल थे। सर्वे में चीन और भारत सबसे ऊपर रहे, जहां 96 प्रतिशत लोगों ने माना कि मां से उनका बहुत मधुर रिश्ता है। उत्तरदाताओं में सभी स्त्रियां थीं, जिन्हें जीवन के हर पडाव पर मां से सही सलाह मिली। वियतनाम और फिलिपींस के लोग हमेशा मां की सलाह नहीं लेते। जबकि भारतीय मां के संरक्षण व अभिभावकीय सलाह के लिए उनका सम्मान करते हैं। लगभग सभी मानते हैं कि मां परिवार की धुरी है। 95 फीसदी लोगों ने माना कि उनकी मां ने उनके लिए त्याग किए, यह भी माना कि उनकी मां कभी अपने बारे में नहीं सोच पातीं, अपने लिए शॉपिंग नहीं कर पातीं, छुट्टियों में घूमने नहीं जा पातीं और उनका सामाजिक जीवन भी सीमित है। प्रतिभागी मांओं ने माना कि उनकी पहली प्राथमिकता बच्चे और परिवार है। भारत, इंडोनेशिया, फिलिपींस, थाइलैंड और वियतनाम की मां को बच्चों से यही अपेक्षा है कि वे पढाई में अच्छे निकलें, ऑस्ट्रेलियाई मां बच्चों के साथ बाहर खेलना-कूदना पसंद करती है। जापानी लोग मां के खाना बनाने, घरेलू कामकाज करने पर उनकी तारीफ करते हैं तो चीनी लोगों को मां तब अच्छी लगती है जब वह उन्हें बाहर ट्रीट देती है।

जीवन में नया जोश आ गया

यशोधरा ओबेराय

मैं चौथे पडाव पर हूं मगर सास होने के नाते अतिरिक्त जिम्मेदारी मैंने महसूस नहीं की। बहू दूसरे घर से आती है। हम पहले से इसी घर में रहते हैं। कभी हम भी बहू थे। इसलिए सास की जिम्मेदारी है कि नई लडकी को तकलीफन हो। वह अकेला न महसूस करे और परिवार में जल्दी घुल-मिल जाए। बहू को अपने परिवार के बारे में बताए। मैं भाग्यशाली हूं कि मुझे प्रियंका मिली। वह इतनी जल्दी मेरी बेटी बन गई कि कभी लगा ही नहीं कि सामंजस्य की समस्या हो सकती है। प्रियंका को अपने परिवार से बहुत अच्छे संस्कार मिले हैं। हमारे बीच कभी विवाद नहीं हुआ। विवेक की शादी के बाद मैंने दोनों से पूछा था कि अगर तुम अलग रहना चाहो तो रह सकते हो। लेकिन प्रियंका ने कहा कि उसे हमारे साथ और सपोर्ट की जरूरत हमेशा रहेगी। हमारी पसंद अलग है-विचार अलग हैं, लेकिन कई मामलों में सोच एक जैसी भी है। जहां हमारे विचार अलग होते हैं, वहां हम खयाल रखते हैं कि अपनी राय से दूसरे को नाखुश न करें। प्रियंका तो पूरे हक के साथ अपनी बात मेरे सामने रखती है। वह मेरी बेटी मेघना की तरह ही मुझसे मांगती भी है, यही बात मुझे पसंद है।

मैं थोडे-थोडे अंतराल से ही नानी-दादी बनी हूं। जीवन में एक नया जोश आ गया है। खालीपन भर गया है। ज्यादा समय बच्चों के साथ बीतता है। वैसे पेरेंटिंग को लेकर आजकल नानी-दादी की सलाह कौन लेता है भला! अब गूगल बाबा है न! पहले वहीं से जानकारियां एकत्र की जाती हैं। गूगल बाबा की सलाह के बाद ही हमसे कन्फर्म किया जाता है। मुझे यही लगता है कि छोटी-छोटी बातों से अपनी खुशियां क्यों कम करें, मिल कर जीवन का मजा लें। हंसते रहें-साथ रहें और सफर में आगे बढते रहें।

एक्सपर्ट सलाह

संयुक्त परिवारों में नानी-दादी कभी रिटायर नहीं होती थीं। हमेशा परिवार में कुछ न कुछ होता रहता था। एकल परिवारों के कारण खालीपन का एहसास ज्यादा है। समय के हिसाब से खुद को बदलें। परिवार इकट्ठा हो तो कुछ बातों का ध्यान रखें। नानी-दादी के रूल्स का माता-पिता विरोध न करें और माता-पिता के रूल्स का विरोध नानी-दादी न करें। इससे बच्चों को भी बडे-बुजुर्गो की अहमियत पता चलेगी। दोनों पीढियों की बेस्ट चीजें लें, तभी ऐसी पीढी तैयार होगी जिसमें मूल्य व परंपराएं भी होंगी और आधुनिकता भी।

गगनदीप कौर, क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट

मां कभी भूलती नहीं..

अकसर मां को ब"ो के छुटपन की बातें याद करते देखा-सुना जाता है। यह सच है कि मां को बच्चे की हर छोटी-बडी बात याद रहती है, बच्चे की हर जरूरत पता रहती है। एक शोध कहता है कि मातृत्व की भावना के अलावा भी कुछ है, जो बच्चे के प्रति मां के लगाव को गहरा करता है। मां बनने के बाद स्त्रियों की स्मरण-शक्ति बढ जाती है। यह शोध अमेरिका में मियामी के एक विश्वविद्यालय में किया गया। शोध के मुताबिक प्रेग्नेंसी के दौरान स्त्रियों में कई मानसिक बदलाव आते हैं। पहले के शोधों में पाया गया था कि मां बनने के बाद स्त्रियों का मस्तिष्क पांच फीसदी तक सिकुडता है, छह महीने बाद सामान्य अवस्था में लौटता है। नए शोध के अनुसार मस्तिष्क के सामान्य होने की प्रक्रिया में मां के मस्तिष्क में सकारात्मक बदलाव आता है और याद्दाश्त में इजाफा होता है।

इंटरव्यू : मुंबई से अजय ब्रह्मात्मज, अमित कर्ण

इंदिरा राठौर


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