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जिंदगी मिलेगी दोबारा

हम अपने ढंग से जीना चाहते हैं, पर जिंदगी अपनी ही रौ में भाग रही होती है। इसके साथ ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्ते पर गिरते-संभलते चलने का अलग ही मजा है। जब भी हम गिरते हैं तो यह खुद आगे बढ़ कर हमारा हाथ थाम लेती है, चोट चाहे कितनी ही गहरी क्यों न हो, यह हमें दोबारा संभलने का मौका देती है।

By Edited By: Published: Fri, 06 Jun 2014 02:11 PM (IST)Updated: Fri, 06 Jun 2014 02:11 PM (IST)
जिंदगी मिलेगी दोबारा

हम अपने ढंग से जीना चाहते हैं, पर जिंदगी अपनी ही रौ में भाग रही होती है। इसके साथ ऊबड-खाबड पथरीले रास्ते पर गिरते-संभलते चलने का अलग ही मजा है। जब भी हम गिरते हैं तो यह खुद आगे बढ कर हमारा हाथ थाम लेती है, चोट चाहे कितनी ही गहरी क्यों न हो, यह हमें दोबारा संभलने का मौका देती है। जो लोग इस मौके को पहचान लेते हैं, वे हारी हुई बाजी जीत कर शून्य से शिखर तक पहुंच जाते हैं। कुछ लोगों में ऐसी क्या खास बात होती है जो उन्हें हर हाल में आगे बढने का हौसला देती है? क्या सब कुछ खत्म होने के बाद भी नई शुरुआत की जा सकती है? मशहूर शख्सीयतों और विशेषज्ञों के साथ यहां कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब ढूंढ रही हैं विनीता। 111 अब क्या करें, कहां जाएं, अचानक ऐसा कैसे हो गया, कोई रास्ता दिखाई नहीं देता..ऐसी नकारात्मक बातें किसी को भी अच्छी नहीं लगतीं, लेकिन हम सभी के जीवन में कभी न कभी ऐसा दौर जरूर आता है, जब हम अपने आप से यही सवाल पूछ रहे होते हैं। ऐसा लगता है कि सब कुछ खत्म हो गया, लेकिन कुछ भी खत्म नहीं होता। अगर दिल में जीने की तमन्ना हो तो टूटी-बिखरी जिंदगी को भी फिर से संवारा जा सकता है।

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नियति को नकारना नामुमकिन

हम सब भविष्य के लिए बहुत अच्छी प्लानिंग करते हैं। हो सकता है कि कुछ लोगों की ऐसी योजनाएं पूरी तरह सफल होती हों, लेकिन सभी के साथ ऐसा नहीं होता। हम जिंदगी को अपनी मर्जी से चलाने की पूरी तैयारी किए बैठे होते हैं और नियति हमारी इस नादानी पर मुस्कराती हुई हमारे लिए कुछ और ही तय कर रही होती है। जरूरी नहीं कि नियति हमारे लिए हमेशा बुरा ही सोचे, कई बार यह हमारी जिंदगी का रुख बदल देती है। हमारे साथ जो कुछ भी घटित हो रहा होता है, उस पर हमारा कोई वश नहीं होता।

इसलिए अगर हमारे साथ कुछ बुरा भी होता है तो उसके लिए दुखी होने के बजाय हमें यही सोचना चाहिए कि शायद इसी में मेरी भलाई छिपी होगी। सच है कि हम नियति को बदल नहीं सकते, लेकिन अपने सकारात्मक प्रयासों से सामने आने वाली मुश्किलों को दूर करने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। इस संबंध में दिल्ली के व्यवसायी भूपिंदर सिंह (परिवतिर्तत नाम) कहते हैं, नियति के आगे हार मान लेने से कुछ भी हासिल नहीं होता। देश के विभाजन के वक्त मैं छठी कक्षा में पढता था। मेरे पिता जी हमें साथ लेकर दिल्ली आ गए। मेरी पढाई छूट गई और मैं पिताजी के साथ मिल कर फुटपाथ कंघी और रुमाल बेचने लगा, लेकिन हमारे परिवार ने हिम्मत नहीं हारी। दिन-रात मेहनत करके पहले कपडों की छोटी सी दुकान और फिर गारमेंट्स की एक फैक्टरी खोली। सब कुछ अच्छा चल रहा था, लेकिन दोबारा 1984 में दंगे भडक उठे और भीड ने हमारी फैक्ट्री में आग लगा दी। सब कुछ खत्म हो गया। हम दोबारा सडक पर आ गए, पर हमारे भीतर जीने जज्बा था। इसलिए टूटने के बावजूद हमारी जिंदगी बिखरी नहीं, हमने उसे फिर से संवार लिया।

धुंधले आईने का अक्स

यह जिंदगी शीशे की तरह साफ है। हां, कभी-कभी मुश्किलों की आंधियां इस पर अकेलेपन और उदासी का ऐसा गर्द-गुबार जमा देती हैं कि इसमें हमें अपना ही अक्स दिखाई नहीं देता। ऐसे में बेहतर यही होगा कि हम इस शीशे को खुद ही साफ कर लें। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ.अशुम गुप्ता कहती हैं, कई बार हालात ऐसे होते हैं कि व्यक्ति उदासी और हताशा से अकेले ही जूझ रहा होता है। ऐसे में उसे सचेत ढंग से अपने लिए खुद ही प्रयास करना होता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे सेल्फ इंस्ट्रक्शनल टेक्नीक कहा जाता है। उदासी भरी मनोदशा से बाहर निकलने में यह तकनीक बहुत मददगार साबित होती है।

जब साथ न दे सेहत

सेहत हमारी जिंदगी का ऐसा अहम पहलू है, जिसे नजरअंदाज करके हम ज्यादा देर तक खुश नहीं रह सकते क्योंकि मशीनों की तरह हमारे शरीर को भी पूरी देखभाल की जरूरत होती है, लेकिन कई बार पूरी सजगता बरतने के बावजूद बिन बुलाए मेहमान की तरह बीमारियां पास चली ही आती हैं। अगर समस्या ज्यादा गंभीर हो तो व्यक्ति का मनोबल गिरने लगता है। ऐसे में सकारात्मक सोच के साथ हिम्मत बनाए रखना बहुत जरूरी है। लगभग 28 साल पहले दिल्ली की हरमाला गुप्ता श्वसन-तंत्र के कैंसर से ग्रस्त थीं, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। विदेश जाकर उपचार कराया और स्वस्थ होने के बाद अपने ही जैसे कैंसर के दूसरे मरीजों की मदद के लिए कैन सपोर्ट नामक स्वयंसेवी संस्था चलाने लगीं। वह कहती हैं, अगर हम पहले ही हिम्मत हार जाएंगे तो बीमारी बहुत जल्दी हावी हो जाएगी। मेरे डॉक्टर का कहना है कि मजबूत इच्छाशक्ति की वजह से ही मेरी हीलिंग ज्यादा तेजी से हुई और अब मैं पूरी तरह स्वस्थ हूं। अपने अनुभव से मैंने यही सीखा है कि मुश्किलों से उबरने का मौका हमें खुद ही ढूंढना पडता है।

दर्द अपनों से बिछडने का

अपनों से बिछडने का गम हमें गहरे सदमे में डाल देता है। कई बार ऐसा लगता है कि सब कुछ खत्म हो गया, लेकिन दोबारा जीने की कोशिश तो करनी ही पडती है। गुडगांव के दंपती ईशा और शेखर के जीवन की कहानी भी कुछ ऐसी है। जब ईशा का बेटा मात्र ढाई साल का था, तभी हार्ट-अटैक की वजह से उनके पति का निधन हो गया। इसके बाद ससुराल वालों ने उन्हें प्रताडित करना शुरू कर दिया। अंतत: उन्हें मजबूर होकर अपने माता-पिता के पास वापस लौटना पडा। ईशा बताती हैं, वैसे तो मैं सीए हूं, लेकिन शादी के बाद मैंने जॉब छोड दिया था। मायके लौटने के बाद मैंने नए सिरे से काम शुरू किया। उसी दौरान मेरी बुआ ने शेखर जी से मेरी मुलाकात करवाई। वह पेशे से ग्रािफक्स डिजाइनर हैं। दवाओं के रिएक्शन की वजह से उनकी पत्नी का निधन हो गया था। उन्हीं दिनों उन्होंने पेरेंट्स विदाउट पार्टनर्स नामक सामाजिक संस्था का गठन किया था, जो सिंगल पेरेंट्स के बच्चों की परवरिश में सहयोग देती थी। हम दोनों एक जैसी परेशानियों से जूझ रहे थे। हमें ऐसा लगा कि हम एक-दूसरे का दुख-दर्द अच्छी तरह बांट सकते हैं। तब तक मेरा बेटा आदि चार साल का हो चुका था और उनका बेटा जारूल (अब मेरा भी) 12 वर्ष का था। शादी का निर्णय लेने से पहले हमने दोनों बच्चों को सरल भाषा में अपनी जटिल जीवन स्थितियों के बारे में समझाया और उनकी सहमति से सादगीपूर्ण तरीके से पुनर्विवाह कर लिया। मेरा मानना है कि जिंदगी हमें ऐसी मुश्किलों से उबरने का मौका जरूर देती है, पर सकारात्मक विचारों के आगमन के लिए मन का दरवाजा खुला रखना भी जरूरी है।

रिश्तों की उलझती डोर

व्यस्तता की वजह से हमारे रिश्तों की सहजता खत्म होती जा रही है। चाहे दांपत्य हो या पारिवारिक-सामाजिक रिश्ता.. कहीं भी पहले जैसी गर्मजोशी नजर नहीं आती। तनाव का स्तर इतना बढ गया है कि बेहद मामूली बातों पर भी लोगों को गुस्सा आ जाता है। अहं की भावना इतनी बढ गई है कि कोई भी व्यक्ति अपनी गलतियों के लिए माफी मांगने या रिश्तों को सुलझाने की कोशिश नहीं करता। जिंदगी की तरह रिश्ते भी अनमोल हैं या यूं कहें कि इनके बिना हमारी जिंदगी अधूरी है। तो फिर छोटी-छोटी बातों पर नाराज हो कर अपने रिश्तों को खो देना कहां की समझदारी है? कोई भी इंसान पूरी तरह परफेक्ट नहीं होता। किसी भी रिश्ते को जीवंत बनाए रखने के लिए यह बहुत जरूरी है कि हम उसे उसकी खूबियों और खामियों के साथ सहर्ष अपनाएं। एक बार अपने ईगो को दूर रखकर तो देखें, आपको आसपास के लोग बहुत प्यारे लगने लगेंगे।

बढती भावनात्मक चुनौतियां

आज लोगों के पास ढेर सारा काम है और समय बहुत कम है। इसलिए उन्हें कई तरह की भावनात्मक चुनौतियों का सामना करना पडता है। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अशुम गुप्ता आगे कहती हैं, आज लोगों के पास पर्सनल लाइफ के लिए समय नहीं है। अपनी प्राथमिकताओं को लेकर लोगों के मन में हमेशा अंतद्र्वद्व चलता रहता है। इसी वजह से शहरी आबादी का बडा हिस्सा इमोशनल क्राइसिस के दौर से गुजर रहा है, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि आज की तेज-तर्रार युवा पीढी को शांत और ठहरी हुई लाइफ बोरिंग लगती है। ज्यादातर युवाओं का मानना है कि भावनात्मक चुनौतियां हमें आगे बढने को प्रेरित करती हैं। इनकी वजह से हमारी सोच का दायरा विस्तृत होता है और व्यक्तित्व को मजबूती मिलती है।

देर नहीं हुई अब भी

पुरानी पीढी के कुछ लोग यह सोच कर उदास हो जाते हैं कि हम तो अपनी जिंदगी जी चुके, अब हमसे बदलाव की उम्मीद करना बेकार है। वैसे भी, अब हमें अपना जीवन संवारने का कौन सा नया मौका मिलने वाला है? .गलत। ऐसा सोचना बिलकुल गलत है। चिकित्सा सुविधाओं की बढती उपलब्धता ने बुजुर्गो के जीवन को पहले की तुलना में न केवल आरामदेह बनाया है, बल्कि अब उनकी औसत आयु भी बढ रही है। उनके लिए कोई देर नहीं हुई है। वे भी युवाओं की तरह जिंदगी का पूरा लुत्फ उठा सकते हैं। जिंदगी उन्हें भी अपने बचे-खुाचे अरमान पूरे करने का मौका दे रही है। पुराने जमाने की तुलना में अब उनके सामने ज्यादा आरामदेह जीवन स्थितियां और अतिरिक्त समय है। इसीलिए बुजुर्गो की सोच में सकारात्मक बदलाव दिखने लगा है और अब वे जिंदगी को पूरी जिंदादिली से जीने में यकीन रखते हैं। चाहे मोबाइल और इंटरनेट के लेटेस्ट एप्लिकेशंसस सीखने का मामला हो या अपने वार्डरोब को मॉडर्न और ट्रेंडी बनाने की चाहत। आज के बुजुर्ग अपने हर शौक को पूरा करते हुए जीवन के हर पल को एंजॉय करना सीख रहे हैं।

बदल रही है तसवीर

पिछले कुछ दशकों तक लोगों की सोच में स्थायी िकस्म का ठहराव दिखाई देता था। पहले लोग दुख को ईश्वर की इच्छा मानकर उसे चुपचप झेल रहे होते थे। अगर किसी के जीवन में कोई दुखद घटना घट जाए तो पूरा समाज उसे दुखी व्यक्ति के रूप में स्वीकार लेता था। लोगों के मन में उसकी ऐसी स्थायी उदास छवि बस जाती थी कि वह चाह कर भी दूसरों के सामने हंस नहीं पाता था। वह जहां भी जाता, लोग उसके साथ सहानुभूति जताते। उसके पास इसे स्वीकारने के सिवा कोई दूसरा चारा भी तो नहीं था। स्त्रियों के मामले में स्थिति और भी भयावह थी। तभी तो भारतीय सिनेमा की विधवा स्त्री को सफेद साडी और सिलाई मशीन के दायरे से बाहर निकलने में पचास साल से भी ज्यादा समय लगा।.. लेकिन अब ऐसा नहीं है। लोगों की सोच में तेजी से सकारात्मक बदलाव आ रहा है। फिल्मों और टीवी का भी इसमें बहुत बडा योगदान रहा है। चाहे नागेश कुक्नूर की फिल्म डोर हो या विकास बहल की क्वीन दोनों फिल्मों की नायिकाएं दुखों को भूलकर अपने लिए खुशी तलाशती नजर आती हैं। यह बदलाव केवल फिल्मों ही नहीं, बल्कि हमारे जीवन में भी हर कहीं दिखाई दे रहा है। अगर जिंदगी हमें रुलाती है तो हंसने का भी पूरा मौका देती है। अगर हम उस मौके को पहचान नहीं पाते तो यह हमारी नासमझी है।

फास्ट ट्रैक पर जिंदगी

अति व्यस्त जीवनशैली में चाहे लाख बुराइयां हों, पर इसकी एक खूबी सभी बुराइयों पर भारी पड जाती है। वह है- इसकी तेज रफ्तार। आज जीवन की रफ्तार इतनी तेज है कि हमारे पास उदास होकर बैठने के लिए पल भर की भी फुर्सत नहीं है। व्यस्तता इस मायने में भी बहुत अच्छी होती है कि यह नकारात्मक विचारों को हमारे आसपास फटकने नहीं देती। अगर कभी किसी वजह से हमारा मूड खराब भी हो जाए तो हम उस मन:स्थिति को ज्यादा देर तक झेलना बर्दाश्त नहीं कर पाते। इसलिए हम अपना ध्यान दूसरी ओर बंटाने की कोशिश करते हैं। अब लोग जीवन के हर पल को खुश होकर जीना चाहते हैं। हालांकि, व्यस्तता के बीच से खुशियों के पल ढूंढना भी कोई आसान बात नहीं है, पर जो लोग सचमुच खुश रहना चाहते हैं, उन्हें खुशियां मिल ही जाती हैं।

कला संतुलन साधने की

आज की अति व्यस्त जीवनशैली में कामयाबी की पहली शर्त है- संतुलन। वह भी मामूली संतुलन नहीं, सिर पर कई तरह की जिम्मेदारियों का बोझ उठाकर तनी हुई रस्सी पर सीधा चलने वाला संतुलन चाहिए आज की जिंदगी में। जिस व्यक्ति को यह कला आती है, उसे आगे बढने से दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती। इस संबंध में समाजशास्त्री डॉ. ऋतु सारस्वत कहती हैं, यह भारतीय समाज के लिए बेहद चुनौती भरा दौर है। आज की जिंदगी हमसे बहुत कुछ मांगती है। चाहे पर्सनल लाइफ हो या प्रोफेशनल। हर जगह लोगों की अपेक्षाएं बढती जा रही है। हमारी जिंदगी कई अलग-अलग खानों में बंटी है और सबके बीच संतुलन बनाकर चलना ही सबसे बडी चुनौती है। खुद को भावनात्मक रूप से संतुलित बनाने के लिए अपने भीतर सहजता से बदलाव लाना जरूरी है। कोई भी इंसान एक साथ सभी को खुश नहीं रख सकता। ऐसी कोशिश करने वाले लोग अकेले पड जाते हैं। इसलिए रिश्तों के साथ संतुलन बनाते समय अपनी खुशियों को प्राथमिकता देना जरूरी है।

संजो लें कुछ खुशनुमा यादें

जीवन अपनी रफ्तार से चल रहा है। जिस तरह उदासी भरे दिन आते हैं, उसी तरह इसका खुशनुमा दौर भी आता है। तकलीफों को तो हम लंबे समय तक याद रखते हैं, लेकिन खुशनुमा पलों को बहुत जल्दी भूल जाते हैं। अगर हम इसके अच्छे पलों को अपनी यादों के एलबम में संजो कर रखें और अकसर उसके पन्ने पलटते रहें तो उदासी हमारे कभी नहीं फटकेगी। जीवन के बारे में कहीं लिखा था कि यह स्वादिष्ट आइसक्रीम की तरह है। या तो इसे हाथों में पकडकर यूं ही बैठे रहो या इसके स्वाद का लुत्फ उठाओ। दोनों ही स्थितियों में इसका पिघलकर खत्म होना तय है, तो फिर क्यों न धीरे-धीरे इसका रसास्वादन करते हुए इसके हर पल को खुशनुमा बनाने की कोशिश की जाए।

टूट चुकी थी मैं

श्रद्धा कपूर, अभिनेत्री

मैंने अपने जीवन में नाकामी का बहुत बुरा दौर देखा है। एक वक्त ऐसा भी था, जब मेरे पास अचीवमेंट के नाम पर सिर्फ दो फ्लॉप फिल्में थीं। उस दौरान मैं अंदर से टूट चुकी थी और मैंने ख्ाुद को अपने कमरे में कैद कर लिया था। तब मेरी मां ने मुझे बहुत समझाया। उन्होंने मुझे जबरन डांस क्लासेज और जिम भेजना शुरू किया। मां ने मुझसे कहा कि तुम सिर्फ मेहनत करो और बाकी सब ईश्वर पर छोड दो। उनकी इन बातों का मुझ पर इतना पॉजिटिव असर हुआ कि मैं अपनी नाकामियों को भूलकर सिर्फ अपने काम पर ध्यान देने लगी। फिर आशिकी-2 की सफलता के रूप में मुझे मेरी मेहनत का फल मिल गया। अपने अनुभवों के आधार पर अब मैं यह सीख गई हूं कि अगर कभी नाकामी मिले भी तो हमें हार नहीं माननी चाहिए क्योंकि जिंदगी हमें उससे बाहर निकलने का मौका जरूर देती है। आज आलम यह है कि मेरे पास बडे बैनर की कई फिल्में हैं और मुझे पूरी उम्मीद है कि मेरी कामयाबी का ग्राफ हमेशा ऊपर की ओर बढता रहेगा।

दोबारा चांस मिलता है

अनुष्का शर्मा, अभिनेत्री

मैं मूलत: देहरादून की रहने वाली हूं। मेरे पापा आर्मी में हैं। इसलिए मुझे देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने का मौका मिला है। जब पापा की पोस्टिंग बंगालुरू में थी तो वहां मैंने रैंप मॉडलिंग की शुरुआत की थी। इसके बाद जब मुझे फिल्म रब ने बना दी जोडी में काम करने का मौका मिला, तो मैं अपने पेरेंट्स के साथ मुंबई शिफ्ट हो गई। मैंने ज्यादातर रैंप मॉडलिंग की है। इसलिए मुझे एक्टिंग और डांस की ज्यादा जानकारी नहीं थी। तब मैंने श्यामक डावर से डांस की ट्रेनिंग ली। नियमित रूप से जिम भी जाने लगी। स्क्रिप्ट रीडिंग के लिए भी काफी मेहनत की। पहली फिल्म तो अच्छी चली, लेकिन इसके बाद बदमाश कंपनी और लेडीज वर्सेस रिकी बहल और पटियाला हाउस से मेरी कामयाबी का ग्राफ नीचे गिरता गया। रही-सही कसर मटरू की बिजली का मन्डोला ने पूरी कर दी। लगातार मिलने वाली नाकामियों के बावजूद मैं पूरी लगन से काम करती रही। मैं इस इंडस्ट्री में नई हूं और मेरा कोई फिल्मी बैकग्राउंड नहीं है। इसलिए रोल के चुनाव के मामले में मुझे कहीं से कोई गाइडेंस नहीं मिल पाती। अगर मुझे कहानी और रोल पसंद आता है तो मैं फिल्म के लिए हां कर देती हूं। मेरा मानना है कि अगर हमारी कोशिश में ईमानदारी हो तो हमें नाकामियों से घबराना नहीं चाहिए। कभी-कभी न कभी जिंदगी हमें आगे बढने का चांस जरूर देती है।

जिद से मिली जीत

शशांक व्यास, टीवी कलाकार

हर इंसान को अपनी लडाई खुद ही लडनी पडती है। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि 275 से भी ज्यादा ऑडिशन देने के बाद मुझे बालिका-वधू में पहला ब्रेक मिला। मैं अपने पिता जी को परेशान नहीं करना चाहता था। इसलिए शुरुआती दौर में अपना गुजारा चलाने के लिए मैं छोटे-छोटे काम भी कर लेता था। मसलन किसी सीरियल के एक छोटे से सीन में भीड का हिस्सा बनना, सिर्फ एक वाक्य का डायलॉग बोलना आदि। इसकेलिए मुझे हजार-दो हजार रुपये मिल जाते थे। इन छोटे-छोटे कामों से भी मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलता था, लेकिन इस दौरान बहुत निराश भी होती थी। ऐसा लगता था आखिर यह सिलसिला कब तक चलेगा? फिर भी एक्टर बनने की जबर्दस्त चाहत की वजह से मैं लगातार प्रयास कर रहा था। मैं बचपन से ही बहुत जिद्दी रहा हूं। मुझे ऐसा लगता है कि हमें जिद की भावना को पॉजिटिव तरीके से इस्तेमाल करना चाहिए। जिंदगी सभी को समान रूप से आगे बढने का मौका देती है। अगर स्पष्ट नजरिया और आगे बढने का जज्बा हो तो हमारे कदम खुद-ब-खुद मंजिल की ओर बढने लगेंगे।

हर बार मौका देती है जिंदगी

सारा खान, टीवी कलाकार

यह सच है कि हमें एक ही जिंदगी मिली है और यह हमारे लिए बेशकीमती है। दिन और रात की तरह अच्छे और बुरे दौर का भी आना-जाना लगा रहता है। जब भी हमें ठोकर लगती है, यह हमें संभलने का मौका जरूर देती है, लेकिन जिंदगी की इस खूबसूरत नेमत को पहचान कर इसे अपनाने का हुनर हमारे भीतर होना चाहिए। जो लोग इसे पहचान लेते हैं, वे हमेशा कामयाब होते हैं और जो इस इसकी कद्र नहीं करते, जिंदगी उन्हें मौका देना बंद कर देती है। मैं जिंदगी को हमेशा पॉजिटिव नजरिये से देखती हूं। इसलिए अगर कभी मेरे साथ कुछ बुरा भी होता है तो यह सोचकर उसे सहजता से स्वीकार लेती हूं कि अल्लाह को यही मंजूर है और शायद इसमें भी मेरी भलाई छिपी होगी। पिछले साल मेरी कार का बहुत बुरा एक्सीडेंट हुआ था, गाडी की हालत देखकर ऐसा लग रहा था कि इसमें बैठने वाले सभी लोग खत्म हो गए होंगे। एक्सीडेंट के वक्त घबराहट की वजह से मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा गया और पल भर के लिए मेरी सासें थम गई, लेकिन ताज्जुब की बात यह थी कि गाडी में बैठे किसी भी शख्स को खरोंच तक नहीं आई। उस रोज वाकई मुझे ऐसा लगा कि किस्मत ने मुझे दोबारा जीने का मौका है दिया है।

दोबारा चमकी किस्मत

रणवीर सिंह, अभिनेता

ऐक्टिंग और डायरेक्शन की डिग्री लेने के बाद शाद अली का असिस्टेंट डायरेक्टर बन गया। मैंने सोच लिया था कि छोटे रोल नहीं करूंगा और छब्बीस साल की उम्र तक अच्छे रोल का इंतजार करूंगा। चौबीस साल की उम्र में मुझे यशराज फिल्म्स की फिल्म बैंड बाजा बारात के लीड रोल के लिए फोन आ गया। यह फिल्म दर्शकों को बेहद पसंद आई। दूसरी फिल्म लेडीज वर्सेज रिकी बहल भी अच्छी थी, पर बॉक्स ऑफिस पर पिछली फिल्म की तरह जोरदार प्रदर्शन नहीं कर पाई। उसी बीच मेरी कमर में गहरी चोट लग गई। दो वर्षो तक मैं गुमनामी में रहा। चलने-फिरने में असमर्थ हो गया था। अकेले बैठकर हमेशा सही सोचता रहता कि करियर की शुरुआत में ही सब कुछ खत्म हो गया। फिर मैंने खुद को संभालने की कोशिश की। तीन महीने तक मेरा ट्रीटमेंट चला, मैंने एक्सरसाज के साथ खानपान का पूरा ध्यान रखा, ताकि मेरा वजन न बढ जाए। अंतत: मेरी मेहनत रंग लाई। लुटेरा, गोलियों की रासलीला राम-लीला और गुंडे के साथ मेरी शानदार वापसी हुई।

हौसले से मिलती है ताकत

जब मैं बहुत छोटी थी, तभी पापा की डेथ हो गई थी। मम्मी ने बडी मुश्किलों के साथ छोटे-मोटे काम करके हम तीन भाई-बहनों की परवरिश की। उन दिनों बडे सपने देखने की हिम्मत नहीं होती थी। तब तो मैं यही सोचती थी कि बारहवीं पास करके किसी तरह कोई मामूली सी नौकरी मिल जाए तो, जिंदगी सफल हो जाए। कॉलेज के दिनों में शौकिया तौर पर स्टेज शोज किया करती थी। राजीव ठाकुर, सुदेश जी और कपिल शर्मा मेरे गुरु रह चुके हैं और कॉलेज में वे मुझे एक्टिंग सिखाते थे। उन दिनों टीवी चैनल्स पर लॉफ्टर शोज की शुरुआत हो रही थी और उन्हीं लोगों ने मुझसे भी मुंबई आने को कहा। गरीबी और बदहाली के दलदल से बाहर निकलने के लिए जिंदगी मुझे एक मौका दे रही थी और मैं उसे किसी भी हाल में छोडना नहीं चाहती थी। इसलिए मैं अपनी मम्मी के साथ मुंबई आ गई और जी जान से मेहनत करने लगी। आखिर मेरी मेहनत सफल हुई। अगर हमारे मन में हौसला हो तो मुश्किलों से लडने की ताकत अपने आप जाती है।

इंतजार नहीं किया मौके का

अनूप सोनी, टीवी कलाकार

हम सभी के जीवन में कोई न कोई ऐसा दौर जरूर आता है, जब सब कुछ बिगडता नजर आता है। फिर भी ऐसी ही मुश्किलों के बीच से कोई न कोई हल जरूर निकल आता है। जहां तक मेरे निजी अनुभवों का सवाल है तो एनएसडी दिल्ली से अभिनय का कोर्स पूरा करने के बाद 1996 में दूसरे कलाकारों की तरह मैं भी मुंबई पहुंचा। वहां जाने से पहले ही मैंने तय कर लिया था कि चाहे कितनी ही मुश्किलें क्यों न उठानी पडें, मैं हार नहीं मानूंगा। इसलिए वहां जाने के बाद शुरुआती दौर में मैंने वॉयस ओवर किया। इसके अलावा मैंने एक्टिंग स्कूल में नए कलाकारों को ट्रेनिंग देने का भी काम किया। मैं किसी काम को छोटा नहीं समझता। शुरुआती दिनों में मैंने कभी भी किसी बडे मौके का इंतजार नहीं किया, सामने जो भी काम आया उसे पूरा करता चला गया। मुझे ऐसा लगता है कि जिस तरह आग में तपने के बाद सोना खरा सोना तैयार होता है, उसी तरह चुनौतियां और मुश्किलें हमारे व्यक्तित्व को मजबूत बनाती हैं। शुरुआत में कई बार नाकामी भी मिली, पर मैंने हार नहीं मानी। संघर्ष के दिनों ने मुझे हर तरह के हालात में एडजस्ट करना सिखा दिया।

इंटरव्यू : अमित कर्ण एवं विनीता

विनीता


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