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बचपन के बदलते तेवर

बदले-बदले हैं बचपन के मिजाज। बच्चों की साफ-स्पष्ट सोच हैरान करती है तो तार्किक दृष्टि निरुत्तर कर देती है। मगर जबर्दस्त आइक्यू वाली इस पीढ़ी में ईक्यू की कमी भी दिख रही है। बचपन के मीठे सुर इतने तीखे क्यों होने लगे हैं और ऐसे दौर में पेरेंटिंग की क्या भूमिका होनी चाहिए, इस पर एक नजर इंदिरा राठौर की।

By Edited By: Published: Mon, 03 Nov 2014 03:29 PM (IST)Updated: Mon, 03 Nov 2014 03:29 PM (IST)

अब मैं बडा हो गया हूं, आपकी उंगली पकडकर नहीं चलूंगा.. बच्चा जब पहली बार ऐसे खुल कर बोलता है तो माता-पिता को हैरत होती है। धीरे-धीरे विरोध का स्वर तेज होता है, जिद बढने लगती है, तर्क-कुतर्क शुरू होते हैं। माता-पिता सोचते हैं कि आखिर परवरिश में कहां कमी रह गई जो बच्चे इस तरह मुंहजोर हो रहे हैं। एक हम थे, जो बडों की आंख से डरते थे, एक ये हैं तड-तड जवाब देते हैं..।

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पिछले 20-30 सालों में बच्चों की दुनिया जितनी तेज बदली है, वह हमारी कल्पना से परे है। तीन-चार साल के बच्चे को भी मालूम है कि उसे क्या चाहिए और इसे वह कैसे और कहां से हासिल कर सकता है।

बचपन 30 साल पहले

एक आम दृश्य

घर के बडे से आंगन, छत या खुले मैदान में बच्चों की फौज जमा है। लंगडी टांग, गोल-गोल लट्टू, गुड्डे-गुडिया की शादी, रस्सी कूद और छुपम-छुपाई जैसे खेल चल रहे हैं। छोटे-बडे सब मगन हैं। बडी बच्चियां खेल-खेल में घर के छोटे-छोटे काम भी निबटा रही हैं। बच्चों को नहलाने-धुलाने, कहानियां व लोरियां सुना कर सुलाने जैसे काम दादी-नानी के जिम्म े हैं। संयुक्त परिवार में रहने वाली स्त्रियां मां होने के अलावा पत्नी, बहू, चाची, ताई, भाभी या देवरानी-जिठानी भी हैं। जिंदगी खासी दिलचस्प और शोरगुल भरी है। मिल-जुल कर सारे काम हो रहे हैं। न पढाई की चिंता, न इंटरनेट-मोबाइल के खटराग। नाश्ते, लंच और डिनर से लेकर टीवी (अगर हो तो) देखने का फिक्स टाइम। आउटिंग के नाम पर दीवाली-दशहरा मेला या रामलीला..बस बचपन खुश-मस्त। गर्मी की छुट्टियां हों तो रिश्तेदारों की चहल-पहल या लोटपोट, चाचा चौधरी, चंदामामा जैसी पत्रिकाओं का संग-साथ। छोटी सी दुनिया और छोटी-छोटी ख्वाहिशें.., बचपन तब बडा मासूम और सीधा-सादा हुआ करता।

आज का बचपन

अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, अगर आप अपने बच्चे को बुद्धिमान बनाना चाहते हैं तो उन्हें परी कथाएं सुनाएं। उन्हें ज्यादा बुद्धिमान बनाना चाहते हैं तो ज्यादा परी कथाएं सुनाएं।

मगर आज तो हाइटेक बचपन के हाथ में टीवी रिमोट, मोबाइल, इंटरनेट है। वह हनी सिंह के गानों पर थिरकता है। उसे कपडों, जूतों, गाडियों के ब्रैंड्स के बारे में मालूम है। जादुई ताकत से भरपूर सुपरमैन, बैटमैन या डोरेमॉन उसके हीरो हैं। उसकी दुनिया में रोबोट्स, रेसिंग कारें, प्ले स्टेशंस और विडियो गेम्स हैं। उसके पास है भारी बस्ता, होमवर्क, ट्यूशन, हॉबी क्लासेज, स्पो‌र्ट्स के सामान। वह सूचनाओं का इनसाइक्लोपीडिया है। इसके बावजूद यह बचपन बेहद खाली, बेचैन और उदास है। यह हर चीज से जल्दी बोर हो जाता है। इसे हर पल कुछ नया चाहिए।

आइक्यू है मगर ईक्यू नहीं

अब 4-5 साल का बच्चा भी मुखर है। दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल की टीचर माया कहती हैं, पिछले कुछ वर्षो से बच्चों में सोशल स्किल्स की कमी आ रही है। छोटे-बडे का लिहाज कम हो रहा है। एक बार मैं पहली कक्षा के बच्चे को कर्सिव राइटिंग सिखा रही थी। एक बच्चा जी शब्द को गलत लिख रहा था। मेरे कई बार सिखाने-टोकने के बावजूद वह गलती दोहरा रहा था, साथ ही मेरी झुंझलाहट पर हंस भी रहा था। मेरे डांटने पर बच्चा झट से उठ गया और बोला, मैं मम्मी से शिकायत करूंगा। मुझे इस तरह नहीं डांट सकतीं आप। छह साल के बच्चे की बातें सुन कर मैं दंग रह गई। एकल परिवारों में यही बडी समस्या है कि बच्चों को यह समझ देर से आती है कि उन्हें किससे कैसे बात करनी चाहिए।

दिल्ली स्थित यूनीक साइकोलॉजिकल सर्विस की वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक डॉ. गगनदीप कौर कहती हैं, बच्चों के विचार व प्राथमिकताएं साफ हैं। कपडों, जूतों, खिलौनों या गैजेट्स को लेकर छोटा सा बच्चा भी पसंद-नापसंद जाहिर करता है। अभिव्यक्ति का तौर-तरीका बदल गया है। यह जेनरेशन बुद्धिमान है। बच्चे अपनी बात कहते हैं, मगर दूसरे की बात नहीं सुनना चाहते। अपने इमोशंस की कद्र चाहते हैं, पर दूसरे की भावनाओं का खयाल नहीं रख पाते। इनका आइक्यू तो बढा, मगर ईक्यू स्तर (इमोशनल क्वोशंट) कम हो गया है। गलती करने पर सॉरी कह देते हैं। ये समझदार, फोकस्ड, लेकिन भौतिकवादी हैं। वे टीचर को फेसबुक पर फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भेजते हैं, उनकी पोस्ट या पिक्चर पर कमेंट करते हैं। बडों के साथ जो फासला था, उसे यह पीढी अपने ढंग से पाट रही है। इसके अच्छे-बुरे दोनों ही प्रभाव हैं। बच्चे ऊर्जा से भरे हैं, मगर इसे कैसे-कहां खपाएं, यह ज्ञान उन्हें नहीं है।

खिलौनों से दोस्ती

इस अकेले बचपन के दोस्त हैं बेजुबान खिलौने। वह उनके साथ उठता-बैठता, खेलता-कूदता, झगडता-रूठता है। कई वर्षो से खिलौनों की दुकान चला रहे रोहित बताते हैं, आजकल बच्चे इलेक्ट्रॉनिक गेम्स ज्यादा पसंद कर रहे हैं, जिनसे अकेले खेला जा सकता है। लूडो, सांप-सीढी, कैरम, शतरंज की बिक्री कम हुई है, म्यूजिकल खिलौने, रोबोट्स, गाडी, बाइक्स या पिस्टल्स की सेल बढी है। लडकियां बार्बी चाहती हैं।

मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि लूडो, कैरम जैसे गेम्स बच्चों में टीम भावना जगाते हैं। इससे बच्चे नियमों पर चलना, धीरज रखना और एक-दूसरे की मदद करना भी सीखते हैं। उन्हें हार से निपटने की सीख भी मिलती है।

बदलते बचपन का साहित्य

बच्चों की दुनिया बदल रही है तो उनका साहित्य भी बदलने लगा है। कई बाल पत्रिकाएं गैजेट्स या एलियन जैसे विषयों पर विशेषांक निकालने लगी हैं।

बाल साहित्यकार प्रकाश मनु कहते हैं, अब एकल परिवारों में माता-पिता नौकरी करते हैं। स्कूल से लौटने पर बच्चे को घर खाली मिलता है। बच्चे के अकेलेपन पर मेरी कहानी है पिंकी का जन्मदिन। पिंकी का जन्मदिन है। मम्मी-पापा ऑफिस गए हैं। पिंकी दुखी है मगर तभी उसके खिलौने जिंदा हो जाते हैं। अलमारी में रखे शेर, हिरन, भालू कूदते हैं, पिंकी के साथ नाचते-गाते हैं।

बाल-उपन्यासों में सामाजिक विषय भी उठाए जा रहे हैं। जैसे पर्यावरण सुरक्षा को लेकर देवेंद्र कुमार ने चिडिया और चिमनी और उषा यादव ने फिर से हंसो धरती मां जैसे रोचक बाल उपन्यास लिखे। इनके जरिये बच्चों को सामाजिक मुद्दों से जोडने की कोशिश की जा रही है। टेक्नोलॉजी के बढते प्रभाव पर हरिकृष्ण देवसरे का डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू.घना जंगल.कॉम यादगार उपन्यास है। इसमें जानवरों के जीवन, कामकाज और व्यवहार में उन्होंने जिस टेक्नोलॉजी की कल्पना की है, उससे यह अद्भुत फैंटसी उपन्यास बन गया है। ये जानवर इंटरनेट के इस्तेमाल से जंगल को आदर्श जंगल बनाने की कोशिश करते हैं।

बेशक अभी बाल साहित्य में बडी तब्दीलियां होंगी। हर नई आहट को पहचानना चाहिए। मगर पुरानी परंपरा में जो मूल्यवान है, उसे भी साथ लेकर आगे कदम बढाना चाहिए।

पेरेंटिंग की चुनौतियां

कूटनीतिज्ञ-दार्शनिक चाणक्य का कथन है, बच्चे को शुरू के पांच साल प्यार से पालो, अगले पांच साल डांटो। जब वह 16 की उम्र पर पहुंचे, उसे दोस्त बना लो। बढती उम्र के बच्चे माता-पिता के सच्चे दोस्त होते हैं।

वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक डॉ. गगनदीप कहती हैं, यह कन्फ्यूज पेरेंटिंग का दौर है। एक ओर यह सोच है कि बच्चे माता-पिता को दोस्त समझें। मगर रिश्तों में खुलेपन का अर्थ यह नहीं है कि बडों के प्रति सम्मान खत्म हो जाए। माता-पिता के पास समय कम है, इसकी भरपाई वे बच्चों को सुविधाएं देकर करना चाहते हैं। आज हर चीज स्टेटस सिंबल हो गई है- महंगा स्कूल, महंगे खिलौने और गैजेट्स..। इसका प्रभाव यह है कि बच्चे बाहर से तो शांत दिखते हैं, मगर उनमें सर्वाइवल की क्षमता कम हो रही है। मॉडर्न सोच में भी थोडा हिस्सा भारतीय मूल्यों का जरूर होना चाहिए। त्योहार इकट्ठे मनाना, खाना साथ खाना, बच्चों को अपनी संस्कृति, सभ्यता और संस्कारों से रूबरू कराना जरूरी है। उनका ईक्यू तभी बढेगा जब सामाजिकता बढेगी। बच्चों को हर चीज आसानी से न दें, इससे वे जरूरतों व इच्छाओं में भेद नहीं कर सकेंगे। नैतिक शिक्षा जरूरी है। परंपराओं व आधुनिकता के बीच का रास्ता अपनाएं।

हर नई पीढी ज्यादा तार्किक व योग्य होती है। पुरानी पीढी को उससे शिकायतें होती हैं। मगर पेरेंट्स को समझना होगा कि वे बच्चों की जिंदगी में सबसे पहले हैं और रहेंगे। बचपन के तेवर हर दौर में बदले हैं और हर दौर की पेरेंटिंग मुश्किल और चुनौतीपूर्ण रही है। बाहरी प्रभावों के बावजूद बच्चों पर पहला व गहरा प्रभाव मां-बाप का पडता है। पेरेंट्स की भूमिका कभी कम नहीं होती, हां, परवरिश के नियम और तौर-तरीके बदल जाते हैं।

बचपन का लुत्फ ही खो गया

तब्बू, अभिनेत्री

आज के बच्चों के पास न खेलने की जगह है, न मोहलत। सीमेंट के जंगल में पल रहे हैं वे। हमारा समय बहुत अलग था। न आज के बच्चों की तरह आजादी थी, न इतनी सुविधाएं। हमारे जमाने में पर्दा हुआ करता था। दुपट्टा ओढकर स्कूल जाते थे। जिस रिक्शे से जाते थे, उस पर भी पर्दा होता। हमारे स्कूल में सलवार पहनने की इजाजत नहीं थी। वहां की यूनीफॉर्म स्कर्ट थी, मगर मम्मी ने बहुत अनुरोध करके स्कूल को राजी किया कि मैं सलवार-कमीज पहन सकूं। मैं सीधी-सादी थी, जबकि मेरी दीदी टॉम ब्वॉय। मैं पढाकू थी, अच्छा गाती थी। सभी घर में मेरी तारीफ करते थे, जबकि दीदी को डांट पडती थी। वह अकसर मुझसे पूछती थी कि मैं इतना पढती क्यों रहती हूं?

मैं हैदराबाद शहर में पली-बढी। मम्मी टीचर थीं, दादा-दादी प्रोफेसर्स थे तो घर में हर वक्त पढाई-लिखाई की बातें होती थीं। हमने पढाई के साथ घर के काम भी सीखे। जैसे सफाई, शाम को आंगन में पानी छिडकने, चौकियां लगाने जैसे काम मैं और दीदी फराह खान करते थे। हम तो बचपन में चांदनी रात में आंगन या छत पर सोया करते थे। वैसा लुत्फ अब के बच्चे कहां उठा पाते हैं। वे या तो पढते रहते हैं या फिर थोडा-बहुत खेल लेते हैं। शबाना आजमी मेरी खाला हैं। हम हर साल गर्मी की छुट्टियों में मुंबई आते थे। उन्हीं के यहां एक बार देव साहब ने मुझे देखा तो कहा कि उनकी फिल्म में बाल कलाकार का रोल करूं, मगर मां तैयार नहीं हुई। खैर, शबाना आंटी के समझाने पर मम्मी मान गई। फिल्म इंडस्ट्री में आने के बाद हमें अपने ढंग से जीने की आजादी मिली। मुझे यही लगता है कि बच्चों को आजादी का सही इस्तेमाल करना चाहिए।

हिंसक बना रहे हैं विडियो गेम्स

यूएस की लोवा स्टेट यूनिवर्सिटी में इसी वर्ष हुए एक अध्ययन में पाया गया कि वीडियो गेम्स बच्चों को हिंसक बना रहे हैं। आज लगभग 80 प्रतिशत महानगरीय बच्चे प्रतिदिन कम से कम एक घंटा वीडियो गेम्स खेलते हैं। इनका ज्यादातर कंटेंट वयस्कों वाला होता है। वर्चुअल दुनिया में होने वाला खून-खराबा उनके बाल-मन पर नकारात्मक प्रभाव डालता है, जो धीरे-धीरे उनमें आक्रामकता, बेचैनी, तनाव, हिंसा पैदा करता है और वे असल दुनिया के रिश्तों के प्रति उदासीन या नकारात्मक होने लगते हैं।

साहित्य-कला से जोडें बच्चों को

जावेद अख्तर, गीतकार-शायर

आज के बच्चों का जीवन मुझे इस हिसाब से अच्छा लगता है कि उनके जीवन में टेक्नोलॉजी है, सूचनाएं हैं। जो बातें वे जानते हैं, उनके बारे में हम अपने समय में सोच भी नहीं पाते थे। मगर वे सुंदर चीजों जैसे प्रकृति, कविताओं, कहानियों, शायरी या कहें कि अच्छे साहित्य से दूर हो रहे हैं। पढने-लिखने की प्रवृत्ति कम हुई है, क्योंकि कोर्स की किताबों के अलावा गैजेट्स के बीच उनका समय खपता है। वैसे बच्चों पर परिवार के माहौल का प्रभाव पडता है। परिवार में लिखने-पढने का माहौल होगा तो बच्चे भी ऐसा करेंगे। सवाल यह है कि हम बच्चों को दे क्या रहे हैं? उन्हें जो देंगे, बच्चे वही लेंगे। अभी टीनएजर्स व युवाओं को शायरी या पोएट्री से जोडने के लिए मैंने टाटा स्काई के साथ मिल कर नया कार्यक्रम एक्टिव जावेद अख्तर शुरू किया है। इसमें हम मीर, गालिब या कबीर-रहीम की पुरानी शायरी व दोहों को आधुनिक ढंग से प्रस्तुत करेंगे। हमारा साहित्य हमारी धरोहर है। हमारी नई पीढी को इसका सम्मान करना सीखना चाहिए। भाषा या साहित्य वह गाडी है, जिस पर संस्कृति चलती है। मुश्किल यह है कि मिडिल क्लास ही संस्कृति को आगे बढाने का काम करता है, मगर यही क्लास अपनी जिम्मेदारियां भूल रहा है। बच्चों में सही संस्कार डालने हैं, उन्हें पुरानी धरोहरों, संस्कृति से जोडना है तो भाषा या साहित्य को मुश्किल नहीं, सहज-सरल बनाना होगा, उसे नए संदर्भो और समय के हिसाब से बदलना होगा। ऐसा हुआ भी है, तभी संस्कृति बची रह सकती है।

सुस्ती, जंकफूड और ओबेसिटी

अकसर गोल-मटोल बच्चों को क्यूट या चबी कहा जाता है, मगर पिछले वर्ष हुए एक सर्वे में पाया गया कि मुंबई जैसे महानगरों में ओबीज बच्चों की संख्या बढती जा रही है। ये बच्चे सुस्त जीवनशैली और जंक फूड के आदी हैं। यही वजह है कि उनमें ओबेसिटी के लक्षण दिख रहे हैं। आउटडोर एक्टिविटीज कम होने, बाहर खाने और जंक फूड का चलन बढने के कारण उनमें मोटापा बढ रहा है। बचपन का यह मोटापा उन्हें भविष्य में हाई ब्लड प्रेशर, अवसाद और डायबिटीज जैसी समस्याओं का तोहफा देता है।

सुरक्षित माहौल उन्हें डरपोक बना रहा है

अली अब्बास जफर, फिल्म निर्देशक

पिछले 20-30 सालों में समय बहुत बदल गया है। आज के बच्चे बडे महफूज माहौल में पलते हैं। एक-दो बच्चे होते हैं तो माता-पिता का सारा ध्यान उन पर होता है। हमारे जमाने में तो यह हाल होता था कि हम भाई-बहन दिन भर कहां हैं, यह चिंता भी किसी को नहीं होती थी। हम सारा दिन खेलते-कूदते थे। हां, जब कभी शाम गहरा जाने तक बच्चे नहीं लौटते थे तो माता-पिता को चिंता होती थी और वे ढूंढने की कवायद में जुटते थे। आज के समय में मुझे यह अच्छा लगता है कि माता-पिता बच्चों के दोस्त बन कर रहते हैं। उनसे बहुत सी चीजों पर बातचीत कर लेते हैं। हमारे माता-पिता ने तो कभी पूछा ही नहीं कि हमने पढाई भी की या नहीं। मां-बाप बेचारे अपनी ही दुनिया की चिंताओं में घिरे रहते थे कि घर कैसे चलेगा, बारिश नहीं होगी तो गेहूं-धान कैसे उगेगा..। पढाई को लेकर भी तब उतनी जागरूकता नहीं थी। इसलिए हम पर पढाई का दबाव भी नहीं था। मन होता तो पढते-वर्ना खेलते रहते। आज के बच्चों के पास तो इतनी सारी चीजें या सुविधाएं हो गई हैं कि वे उनका मूल्य ही नहीं समझ पा रहे हैं। बिना मांगे ही उन्हें बहुत कुछ मिल जा रहा है। अब तो इतने विकल्प हैं कि उनमें से किसी एक को चुनने की समस्या उनके सामने आ रही है। इससे उनका फोकस और पैशन खो रहा है।

मशीनों के घर में रहते हैं बच्चे

हिमानी शिवपुरी, अभिनेत्री

मैं उत्तराखंड के देहरादून में पली-बढी। पापा दून स्कूल में टीचर थे। मेरा बचपन प्राकृतिक वातावरण में बीता। हरियाली और सुंदर वादियों की संगत में मेरा बचपन गुजरा। मैं बचपन में काफी रोमांच प्रेमी किस्म की थी। खिलौनों से खेलने के बजाय रिवर राफ्टिंग और ट्रेकिंग में मेरा दिल लगता था। मेरा एक प्रिय खेल भी था। कभी-कभी मैं सारे दोस्तों को इकट्ठा कर लेती और टीचर बन कर उन्हें पढाती और डांटती। दरअसल पापा टीचर थे तो मेरे बाल मन पर उनका असर था शायद। मैं शुरू से थोडा रौबीली थी। सब पर हुक्म चलाती थी। अभिनय की दुनिया में भी मुझे ऐसी ही भूमिकाएं ज्यादा पसंद आई, जिनमें थोडा रौब नजर आए। अभी बिग मैजिक के शो अजब गजब घर जमाई में नानी की भूमिका निभा रही हूं। यह नानी सब पर अपना हुक्म चलाती है। हमारे बचपन में चीजें कम थीं, मगर इसलिए एकाग्रता ज्यादा थी। घर में साहित्यिक माहौल था। तब टीवी-इंटरनेट नहीं था, इसलिए किताबें ही हमारे मनोरंजन का माध्यम थीं। मुझे माखनलाल चतुर्वेदी की कविता पुष्प की अभिलाषा आज भी याद है। अब बच्चों के पास इतनी चीजें हैं कि किसी एक पर वे फोकस नहीं कर पाते। उनके पास हरी-भरी, खुली दुनिया कहां है जो उन्हें अनुभव और कल्पनाएं दे। वे तो बंद कमरों में टीवी-इंटरनेट के आगे पल रहे हैं, तब फिर उनकी सोच के परिंदे कैसे उडेंगे! बच्चों को फिर से शब्दों, किताबों और प्रकृति से जोडना होगा, तभी उन्हें मशीनी बचपन से निजात मिल सकेगी।

रीअल लाइफ से कट रहा है बचपन

सुखविंदर सिंह, गायक

हमारा बचपन बडा स्वस्थ था। आज के बच्चों की तो सेहत ही बेकार हो गई है। उनकी दुनिया विडियो गेम, लैपटॉप, आइपैड आइफोन के इर्द-गिर्द घूमती है। आज 70 प्रतिशत स्कूलों में खेल के मैदान हैं ही नहीं। जिम जरूर खुल गए हैं। लेकिन बच्चों के खलने-कूदने की जगह कम हो गई है। टीवी, लैपटॉप विडियो गेम से चिपके रहने का नतीजा है कि बचपन से ही मोटे फ्रेम वाले चश्मे चढने लगे हैं बच्चों को। विडियो गेम्स बडे हिंसक किस्म के होते हैं, इससे बच्चों में आक्रामकता बढ रही है। मैं सिंगल चाइल्ड हूं। पांच साल का था, तब से कबड्डी, रेस्लिंग, फुटबाल शुरू कर दिया था। हॉकी में भी मुझे दिलचस्पी थी। तो सवाल अकेला होने का नहीं, पेरेंटिंग का भी है। आज ज्यादातर पेरेंट्स कामकाजी हैं। अपनी समस्या से बचने के लिए बच्चों को गैजेट्स पकडा देते हैं। मेरा मानना है कि बच्चों को रोज कम से कम एक घंटा आउटडोर गेम्स के लिए जरूर जाना चाहिए। सिंगल चाइल्ड ओवर प्रोटेक्टेड हैं। उनमें शेयरिंग और एडजस्टमेंट की भावना नहीं होती। ऐसे बच्चों को सोशल इवेंट्स में साथ ले जाना माता-पाता के लिए जरूरी है। मैं आठ साल की उम्र में इंग्लैंड में था। वहीं मेरी म्यूजिकल परवरिश हुई। सिंगिंग मेरा बचपन का ही पैशन है। इसके अलावा मुझे जन्माष्टमी पर झांकी सजाने का बडा शौक था। मैं आज भी झांकी सजाता हूं। मेरे खिलौनों में भी म्यूजिकल चीजें होती थीं।

बचपन में मैं चंपक, लोटपोट, इंद्रजाल कॉमिक्स खूब पढता था। उस समय तो ये सब मनोरंजन के लिए पढता था, लेकिन अब उनको गंभीरता से समझ पाया हूं। मुझे चंदा मामा की कहानी सुनकर ही नींद आती है। मैंने जो कहानियां बचपन में सुनीं, वे आज काम आ रही हैं। मां के सुनाने का अंदाज भी अलग ही होता था। उनकी सुनाई लोरियां आज तक मन ही मन में गुनगुनाता रहता हूं। हम उस समय डीडी न्यूज देखते थे। ज्यादा चैनल्स तो थे नहीं, न हमारे हाथ में रिमोट कंट्रोल था। हमारा कंट्रोल तो हमारे मां-बाप के हाथ में होता था। मुझे लगता है, बच्चों से दोस्ताना रिश्ता तो अच्छा है, लेकिन उसकी सीमा तय होनी चाहिए।

आज बच्चों में बेचैनी बढी है। उन्हें इतने सुरक्षित माहौल में पाला जा रहा है कि न तो उनकी सेहत अच्छी रह पा रही है, न ही उनका विकास ढंग से हो रहा है। जो बच्चे जमीन पर लोटकर बडे ही नहीं होते, उनका इम्यून सिस्टम कमजोर होगा ही। इसके अलावा उनके पढने की आदत भी छूटती जा रही है। इसकी एक बडी वजह मेरी नजर में यह है कि वे कोर्स की किताबों से ही मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। आज के बचपन में जो चीजें मिसिंग हैं, वे हैं उनकी मासूमियत, रीअल लाइफ से उनका कटना और आउटडोर गेम्स। इसी कारण वे अकेले और उदास हो रहे हैं।

इस तेवर को भी स्वीकारना होगा

शरमन जोशी, अभिनेता

आज के बच्चों में जो बदलाव आया है, वह मेरे लिहाज से अच्छा है। नयापन स्वीकार करना चाहिए। आज के बच्चों के सामने इतनी चुनौतियां और काम हैं कि उनका बचपन कहीं गुम हो गया है। उनका सब कुछ घडी की सुई के मुताबिक तय है। पहले स्कूल की पढाई, फिर घर आकर ट्यूशंस और कई तरह की क्लासेज..। खेलने के लिए उनके पास कोई समय नहीं है। वैसे तेवरों की बात करूं तो मैं बचपन में काफी मुंहफट था। कई बार लोग मुझसे नाराज भी हो जाते थे। छोटी सी दुनिया थी हमारी। माता-पिता और हम दो भाई-बहन। माता-पिता प्रोग्रेसिव थे और ज्यादा रोक-टोक नहीं थी। अनुशासन प्यार से सिखाया गया। हम टीवी देखते थे, मगर बहुत ज्यादा नहीं। आउटडोर गेम्स में ज्यादा समय बीतता था हमारा। घर के पीछे बडा प्ले ग्राउंड था जो मुंबई में एक बहुत बडी लग्जरी है। हम वहां पर फुटबाल, क्रिकेट, हॉकी, वालीबॉल खेलते थे। आजकल कंप्यूटर, आइपैड, आइफोन ने बच्चों का दिमाग खराब कर दिया है। मेरे भी दो बेटे हैं। वे आइपैड का इस्तेमाल खिलौने की तरह करते हैं। हमारे जमाने में लैंडलाइन फोन ही होते थे। घर पर फोन आते तो माता-पिता चिंतित हो जाते कि दोस्तों के फोन आने शुरू हो गए हैं। अब मोबाइल फोन हैं तो पेरेंट्स की चिंता कुछ कम हुई है। जिन सवालों के जवाब वे नहीं दे सकते, गूगल कर लेते हैं। मेरे बच्चे तो सवाल पूछते हैं, साथ में यह भी कह देते हैं कि कि जाने से पहले गूगल कर लीजिए और मुझे जवाब देकर जाइए। वैसे मुझे नहीं लगता कि आज के बच्चों की लाइफ में कुछ मिसिंग है। उनके पास हमसे ज्यादा सुविधाएं हैं, बस सही समय और सही जगह पर उन्हें इस्तेमाल करने की समझ विकसित होनी चाहिए, जो पेरेंट्स ही करवा सकते हैं।

सूचनाओं के ढेर में खो गए बच्चे

नील माधब पांडा, फिल्म निर्देशक

आइ एम कलाम जैसी दिल छू लेने वाली फिल्म के निर्देशक नील माधब ओडीशा के सुबरनापुर जिले में एक छोटे से गांव में जन्मे थे। वह बताते हैं, हमारा संयुक्त परिवार था, जिसमें 31 सदस्य थे। हम सात भाई और 12 बहनें थे। मैं भाइयों में सबसे छोटा था। आठवीं कक्षा में आया तो हमारे गांव में पहली बार टीवी आया था। दरअसल उन्हीं दिनों गांव में बिजली आई थी। तब मैं 12 साल का था। हमारे गांव के बच्चे नंगे पांव चलते थे। दस वर्ष की उम्र तक मैंने भी चप्पल नहीं पहनी थी। मनोरंजन के नाम पर हम नदी किनारे रस्सी लगा कर फुटबाल खेला करते थे। उस समय रेडियो पर क्रिकेट कॉमेंट्री और गाने ही मनोरंजन का एकमात्र माध्यम थे। मैं शुरू से कहानी बना कर दोस्तों को सुनाता था। शायद यह गांव की परवरिश का असर था कि जहां मेरी कल्पना को उडने का पूरा मौका मिल सका। इतने अनुभव न होते तो कहानी कहने का शौक भी न पनपता। मेरा दस साल का बेटा है। उसके और अपने बचपन की तुलना भी करना मुश्किल है। अब तो बच्चे समय से पहले ही वयस्क हो गए हैं। उनके पास इन्फॉर्मेशंस के कई जरिये हैं। टीवी चैनल्स, इंटरनेट, आइपैड, वीडियो गेम्स उपलब्ध हैं। इन सबके बीच बच्चों की मासूमियत खो गई है। अब बच्चे बुद्धिमान तो बहुत हैं, मगर उनमें एडवेंचर, फोकस, पैशन नहीं है, जो हमारे बचपन में हुआ करता था।

इंटरव्यू : मुंबई से अमित कर्ण, दिल्ली से इला, इंदिरा


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