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अपना गौरव आप सहेजें

भौतिकतावादी विकास के लिए भले हम बार-बार पश्चिम की ओर देखते हों, लेकिन विचार और संस्कार के लिए पश्चिम हमेशा पूरब की ओर ही देखता रहा है। प्राकृतिक आपदाएं और बाहरी हमले भी हमारी यह पहचान मिटा नहीं सके। लेकिन क्या आज हम अपनी इस पहचान के प्रति सचेत हैं? इसे सहेजने के लिए क्या करने की जरूरत है? प्रमुख हस्तियों के साथ इन प्रश्नों के हल तलाशने का इष्ट देव सांकृत्यायन का एक प्रयास।

By Edited By: Published: Sat, 01 Feb 2014 02:18 PM (IST)Updated: Sat, 01 Feb 2014 02:18 PM (IST)
अपना गौरव आप सहेजें

अपना गौरव आप सहेजें भौतिकतावादी विकास के लिए भले हम बार-बार पश्चिम की ओर देखते हों, लेकिन विचार और संस्कार के लिए पश्चिम हमेशा पूरब की ओर ही देखता रहा है। प्राकृतिक आपदाएं और बाहरी हमले भी हमारी यह पहचान मिटा नहीं सके। लेकिन क्या आज हम अपनी इस पहचान के प्रति सचेत हैं? इसे सहेजने के लिए क्या करने की जरूरत है? प्रमुख हस्तियों के साथ इन प्रश्नों के हल तलाशने का इष्ट देव सांकृत्यायन का एक प्रयास। 11111 सांस्कृतिक विरासत से हमारा आशय केवल खंडहरों, गाथाओं और स्मारकों तक सीमित नहीं है। विरासत के दायरे में पूर्वजों से प्राप्त भौतिक संपत्ति ही नहीं, वह सब शामिल होता है जो हमें हमारी परंपरा से मिलता है। धन, संपत्ति, संस्कार, प्रतिष्ठा, पीढी दर पीढी संचित होती चली आ रही ज्ञानराशि और अनुभवों की थाती भी। यह थाती चाहे एक परिवार की हो, या क्षेत्र, या फिर राष्ट्र की। गौरव का मुकुट भले किसी एक व्यक्ति के सिर बंधे, लेकिन उसे उस सिर तक पहुंचाने में अकेले उसके प्रयास और भाग्य ही नहीं, उस समग्र संस्कृति और सभ्यता का हाथ होता है, जिसे वह जीता आया होता है और जिसकी वह निर्मिति होता है। इतना ही नहीं, वह द्वेष और क्लेश भी उस परंपरा और परिवेश की ही देन होता है, जो सब कुछ पाने के बाद भी उसके भीतर कहीं बहुत गहरे चुभता और टीसता रहता है। यही टीस उसे अपने समाज और संस्कृति के आदर्शो और मानदंडों के पुनर्मूल्यांकन तथा उसमें सकारात्मक परिवर्तन के सार्थक प्रयासों के लिए विवश करता है। यह सब और कुछ नहीं, एक व्यक्ति के आत्मानुशीलन जैसी ही बात है। सतत आत्मालोचन की यही प्रक्रिया किसी संस्कृति और सभ्यता को विकासोन्मुख और निरंतर प्रवहमान बनाती है।

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हर समाज में हैं धारणाएं

आत्मालोचन की इसी प्रक्रिया का नतीजा है जो आज हम कन्या शिशुओं या स्त्री भू्रण हत्या के खिलाफ अभियान चला रहे हैं, जाति-रंग-लिंग या समुदाय के आधार पर भेदभाव की प्रवृत्ति को अलविदा कहने को आकुल हैं, दहेजप्रथा के उन्मूलन के लिए आंदोलन चल रहे हैं, स्त्रियों को संपत्ति से लेकर पारिवारिक व्यवस्था तक में बराबरी का हक देने की बात चल रही है और छोटे या बडे स्तर पर ऐसे ही कई अन्य प्रयास चल रहे हैं। ऐसी कई कुरीतियां अब खत्म हो चुकी हैं, जो हमारे समाज में कभी मूलबद्ध समझी जाती थीं और कई इतिहास का हिस्सा बनने की ओर बढ रही हैं। कुरीतियां केवल हमारे ही समाज में हों, ऐसा नहीं है। सच्चाई यह है कि दुनिया का ऐसा कोई समाज नहीं है, जिसमें कभी कोई कुरीति न रही हो और जो आज भी कुरीतियों से ग्रस्त न हो। यूरोप के कई देश कभी दास प्रथा जैसे अभिशाप से ग्रस्त रहे हैं। रंगभेद से तो अमेरिका भी लंबे समय तक जूझता रहा है। कई अजीबोगरीब प्रथाएं यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में अभी तक चली आ रही हैं। लगभग सभी तरह के अंधविश्वास और शुभ-अशुभ की धारणा भी हर समाज में मौजूद है।

अपने प्रति पूर्वाग्रह

ये रूढियां लगभग हर समाज में अपने ही प्रति कुछ पूर्वाग्रहों का कारण बनी हुई हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे हमारे अपने समाज में। फर्क बस इतना ही है कि कुछ ने अपने को अपेक्षाकृत कम रूढिग्रस्त मान रखा है और कुछ ने अधिक। हालांकि यह मानना भी सिर्फ मानने तक ही सीमित है। ये धारणाएं बिलकुल वैसी ही हैं, जैसे कि अंधविश्वास। क्योंकि रूढियों को नापने का कोई बैरोमीटर किसी समाज के पास नहीं है। उनके कम या ज्यादा होने से कोई फर्क नहीं पडता। बुनियादी बात बस इतनी सी है कि रूढियां हैं। फिर भी यह मान्यता हर समाज में अपने ही प्रति पूर्वाग्रहों का कारण बनी है। इन रूढियों और कुछ पूर्वाग्रहों का ही नतीजा है जो कुछ लोग अपनी सांस्स्कृतिक विरासत को कमतर आंकते हैं और इसके ही चलते कुछ देशों की सांस्कृतिक विरासत की बडी राशि नष्ट हो गई। कुछ विरासतों के विनाश के कारण तो स्वयं उनके सर्जक एवं धारक समाज ही हैं और कुछ के बाहरी आक्रांता। बात अफसोस की है, लेकिन सच्चाई यही है कि हमारा अपना समाज भी इसी श्रेणी में आता है। अपनी सांस्कृतिक विरासत को स्वयं नष्ट करने वालों में हम भी शामिल हैं। इसका कारण कुछ तो हमारी परंपरागत मान्यताएं रही हैं और कुछ अपनी थाती के प्रति संचेतना का अभाव भी। आश्चर्य न करें, लेकिन यह सच है कि हमारी मान्यताएं हमारी सांस्कृतिक विरासत के क्षरण का महत्वपूर्ण कारण हैं। यह गौर करने की बात है कि हमारी सभ्यता में किसी भी व्यक्ति के निधन के साथ ही उसकी स्मृति से जुडी सभी चीजों को किसी न किसी प्रकार छोड देने की परंपरा रही है। क्योंकि हम सभी सांसारिक वस्तुओं-उपलब्धियों को नश्वर मानते रहे हैं। सांसारिक स्मृति चिन्हों के प्रति वैराग्य का यह भाव हमारे समाज में आज भी बहुत गहरे स्तर पर मूलबद्ध है। निश्चित रूप से इसके बडे लाभ भी रहे हैं और व्यक्ति के प्रति वैराग्य का यही भाव समाज के स्तर तक विस्तार पाता गया। नतीजा यह रहा कि हमारे समाज में संग्रहालय जैसी कोई अवधारणा ही नहीं रही। यह धारणा हमारे यहां पश्चिम से आई। इसी धारणा के फलस्वरूप हमने अपने यहां पहले से मौजूद पुरातात्विक महत्व के स्मारकों को सहेजना सीखा। हमने जाना कि प्राचीन किलों, महलों, कलात्मक महत्व की गुफाओं, जंगलों, झरनों और मंदिरों से लेकर सभी तरह के निर्माण हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण हैं। कार्बन डेटिंग की पद्धति को जानने के बाद हमने समझा कि ये खंडहर कैसे हमारे लिए जीवंत दस्तावेजों का काम करते हैं और कैसे ये हमारी संस्कृति-सभ्यता के विकास की चरणबद्ध प्रक्रिया के पन्ने खोलते हैं।

संचेतना का अभाव

यह जानने के बाद हमने अपनी भावी पीढियों के लिए इन्हें सहेजने ही नहीं, विश्व विरासत की श्रेणी में दर्ज कराने की कोशिशें भी शुरू कीं। आज यूनेस्को की विश्व विरासत की श्रेणी में भारत की तीस से ज्यादा चीजें दर्ज हैं। यह हमारे लिए गौरव की बात है कि भौतिक रूप में हमारी विरासत यहीं तक सीमित नहीं है। इससे भी अधिक धरोहरें अभी इस श्रेणी में दर्ज किए जाने के इंतजार में हैं। इनके अब तक इस श्रेणी में दर्ज न हो पाने के कारण के रूप में भी यहां फिर वही दो वजहें सामने आती हैं- संचेतना का अभाव व पूर्वाग्रह। संचेतना की स्थिति तो यह है कि अपनी ही विरासत के प्रति न तो हमारी सरकारें सचेत हैं और न आम जनता ही। सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के लिए हमारा बजट प्रावधान तो नाकाफी है ही, देखरेख का काम भी पूरी तरह नौकरशाही तौर-तरीकों का शिकार है। हमारी अपनी संचेतना की हालत यह है कि शायद ही कोई ऐसी पुरातात्विक धरोहर हो, जहां हम अपनी प्रेम या कुंठा की इबारत दर्ज न कर आए हों। हैरत तो तब होती है जब हम देश के लिए शहीद हुए जवानों से जुडे स्मारकों पर दिल में चुभे तीर की तस्वीर के साथ सामान्य स्त्री-पुरुष के प्रेम का घोषणापत्र देखते हैं और किसी प्राचीन स्मारक पर समकालीन राजनेता के प्रति जबरिया उकेरा गया घृणा का दस्तावेज। तब अपनी सांस्कृतिक विरासतों और उनके महत्व के प्रति सचेत किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के मन में यह प्रश्रन् उठना स्वाभाविक है कि क्या अपनी विरासत के प्रति यही हमारी संवेदना है।

अनुशीलन परंपरा का

यकीन मानें, इसके लिए दोषी परंपरा नहीं, हम स्वयं हैं। वस्तुत: हमने अपनी परंपरा का ठीक तरीके से अनुशीलन करना सीखा ही नहीं। गौर करें तो पाएंगे कि अपने दिवंगत पूर्वजों से संबंधित सभी चीजें नष्ट कर देने का यह अर्थ बिलकुल नहीं कि हम उन्हें याद नहीं रखना चाहते। यह हमारी ही परंपरा में है कि कोई भी मांगलिक कार्य दिवंगत पूर्वजों को प्रतीकात्मक रूप से आमंत्रित किए बिना संपन्न नहीं होता। हर साल एक पूरा पखवारा हमने केवल पूर्वजों की स्मृति के लिए ही सुरक्षित कर रखा है। यह सिर्फ कर्मकांड नहीं, फेसबुक-ट्विटर के स्टेटस अपडेट्स से लेकर अखबारों के विज्ञापन तक बताते हैं कि हम उन्हें याद ही नहीं करते, श्रद्धासुमन भी अर्पित करते हैं। इन याद करने वालों में च्यादातर युवा शामिल हैं, जिनके मेसेज बताते हैं कि हमारी बात दिवंगत पूर्वजों तक पहुंचे या न पहुंचे, पर हम उन्हें मिस बहुत करते हैं।

याद रखने का यह हमारा अपना ढंग है और यह ढंग सतत चिंतन और लंबे अनुभवों की देन है। अतीत के अनुभव बताते हैं कि न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया लंबे समय तक प्राकृतिक कोप और युद्धों के चलते अकसर आपदाओं का शिकार होती रही है। इन आपदाओं ने हमसे हमारी भौतिक संपदाएं बार-बार छीनी हैं। इतनी बार कि अपने पूर्वजों और उनके गौरव को याद रखने के भौतिक चिन्हों पर से हमारा भरोसा ही उठ गया। स्वयं अपने देह तक की नश्वरता को हमने सहज स्वीकार कर लिया है। इस गहन स्वीकार भाव ने ही हमें अपनी विरासत को सहेजने का वह उपाय दिया, जिसे हम स्मृति कहते हैं। इस स्मृति को अधिक से अधिक प्रगाढ करते जाने के उपाय हमने निकाले अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों के रूप में। जिसे आज का पुरातत्व विज्ञान इंटैंजिबल हेरिटेजेज का नाम देता है।

स्मृति में विरासत

इस थाती को स्मृति रूप में सहेजने के दो ही सर्वोत्तम माध्यम थे- एक तो अपनी जीवनशैली का हिस्सा बनाना और दूसरा सूत्र रूप में याद कर लेना। जिन चीजों को हमने अपनी जीवनशैली का हिस्सा बना लिया उनका बहुत बडा हिस्सा आज भी हमारे परिवारों में सुरक्षित है। जीवनशैली के सृजन में हमारे समाज में हमेशा से स्त्रियों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही है। उन्होंने सभी महत्वपूर्ण चीजों को संस्कारों और उनसे जुडे रीति-रिवाजों का हिस्सा बना दिया। चाहे वह उपनयन संस्कार के अवसर पर शिक्षा और सादगी का महत्व बताने वाले लोकगीत गाने की बात हो या विवाह के अवसर पर हल्दी का उबटन लगाने की। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति तक हमारे देश में अगर बची हुई है तो स्त्रियों के ही चलते। इन्हें दादी-नानी के नुसखों के ही नाम से जाना जाता है, दादा-नाना के सूत्रों के नाम से नहीं। अपनी परंपरा के प्रति स्त्रियों की प्रतिबद्धता का इससे बेहतर प्रमाण और क्या होगा कि अत्याधुनिक परिवारों में भी खास अवसरों पर स्त्रियां अपने परंपरागत परिधानों में ही देखी जाती हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि दादा-नाना द्वारा सहेजे गए वे सूत्र छूटने लगे हैं जिन्हें सहेजना पुरुषों की जिम्मेदारी थी। लोक की धारा में जाएं तो पाते हैं कि हमारे पूर्वजों ने मौसम विज्ञान से लेकर आयुर्वेद तक के सारे महत्वपूर्ण सूत्र तुकबंदियों में सहेज रखे थे और त्योहारों से जुडे लोकगीतों में इन्हें धुन भी दे दी थी। अफसोस कि अब गांवों तक में त्योहारों पर लोकगीतों की जगह डीजे लेता जा रहा है और इस शोर में हमारे बहुमूल्य सूत्र जाने कहां खोते चले जा रहे हैं। हमारे कुछ युवा इस मामले में तब सचेत हुए जब उन्होंने देखा कि नीम से लेकर बासमती तक के औषधीय गुणों के पेटेंट अमेरिका के नाम हो गए। जबकि है यह हमारी अपनी ही कई पीढियों के अनुभवों का निचोड। कुछ युवाओं ने हमारी संस्कृति के ऐसे तत्वों की विडियो रिकॉर्डिग और उनके इंटरनेटीकरण की शुरुआत तो कर दी है, लेकिन क्या अपनी विरासत को सहेजने के लिए इतना ही प्रयास काफी होगा! हम इन्हें सहेज सकें, इसके लिए जरूरत इस बात की है कि हम इन्हें अपनी सामान्य आदत और दिनचर्या में लाएं। फिर-फिर अनुशीलन कर इसे अपनी जीवनशैली का हिस्सा बनाएं।

छूटी है अपनी कहानी कहने की परंपरा

अनुभव सिन्हा

आठवें दशक के आस-पास हिंदी फिल्मों ने अलग राह चुनी। ये फिल्में कहीं न कहीं विदेशी फिल्मों के प्रभाव में थीं। सबसे पहले ब्रूस ली की फिल्में देश के छोटे-मझोले शहरों तक पहुंचीं। देखा गया कि हमारे फिल्ममेकर विदेशी कंटेंट और स्टाइल से मुतास्सिर हुए। उसकी वजह से अपनी कहानी कहने की परंपरा छूट गई। लगभग तीन दशकों तक भटकने के बाद फिर से हिंदी फिल्में देश में लौट रही हैं। कमर्शियल और आउट ऑफ बॉक्स फिल्मों में यह रुझान बढ रहा है। कुछ लोग दर्शकों को जिम्मेदार ठहरा कर हाथ झाड लेते हैं। मैं दर्शकों से अधिक फिल्मकारों को जिम्मेदार मानता हूं। अच्छी बात है कि इधर जागरूकता बढी है। बस एक ही खयाल रखना होगा कि हम ऐसी फिल्में बनाएं तो उसकी रिलीज सुनिश्चित करें। हमें सेंसर बोर्ड को ताकत देनी होगी। सेंसर प्रमाण पत्र मिलने के बाद हर फिल्म अबाधित तरीके से थिएटर में चलनी चाहिए।

व्यंजन से सेहत का रिश्ता

विदेशी व्यंजनों का स्वाद लेना खराब बात नहीं है। खासकर इस वैश्वीकरण के दौर में इनके स्वाद से पहले से परिचित होना कई बार बहुत उपयोगी साबित होता है। लेकिन हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि हमारे अपने खाद्य पदार्थ और व्यंजन ही हमारे अपने परिवेश और प्रकृति के अनुरूप हैं। इसीलिए वे हमारी सेहत के लिहाज से भी सबसे उपयुक्त हैं। हमें यह बात भूलनी नहीं चाहिए कि हमारे लगभग सभी विशिष्ट व्यंजन खास त्योहारों से जुडे हैं और त्योहार प्रकृति से। अलग-अलग मौसम में पडने वाले त्योहारों एवं अवसरों और उनसे जुडे व्यंजनों का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है।

लोक संस्कृति में है युवाओं की रुचि

मालिनी अवस्थी

अपने सांस्कृतिक इतिहास पर नजर डालें तो पाते हैं कि पिछले तीस वर्षो में हम जितने बदले हैं, उतने उसके पहले के तीन सौ सालों में भी नहीं बदले थे। हमारी पूरी दिनचर्या और जीवनशैली बदल गई है। हमारी सांस्कृतिक विरासत की स्थिति इसी से तय होती है। दरअसल हमारी परंपरागत जीवनशैली का हर तत्व हमारी विरासत का हिस्सा है। अगर यह आपकी आदत में शामिल है तो इसे सहेजना बहुत आसान है, लेकिन अगर ऐसा नहीं है, यानी आप सहेजने के लिए इसे सहेज रहे हैं तो उतना ही मुश्किल। संगीत के संदर्भ में बात करें तो ठुमरी-दादरा जैसी चीजें, जिन्हें उपशास्त्रीय कहा जाता है, ये लोकसंगीत का ही विस्तार हैं। हमारी पारंपरिक विधाओं में, चाहे वो पूर्वी हो या चैती या फिर कजरी- इनमें ऐसी मोहक लय है कि शास्त्रीय संगीत ने अपना लिया। लेकिन अब उसे और आगे ले जाने के लिए जरूरी है कि हम उनके संबंध में नई पीढी से एक रेशनल कनेक्ट बनाएं। जब तक उन्हें मालूम नहीं होगा कि इन चीजों की अहमियत क्या है, वे कैसे जुडेंगे? मैं खुद अपनी प्रस्तुतियों में यह कोशिश करती हूं। यह सही है कि लोकसंगीत का एक बडा हिस्सा आज बाजार के हवाले है और वह एक तरह से अपनी पहचान खो रहा है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाजार ही उसे विस्तार भी दे रहा है। मुझे यह देख कर खुशी होती है और बडी उम्मीद बंधती है कि नई पीढी इसके प्रति जागरूक हो रही है। परंपरागत कलाकारों की बहुत सारी प्रस्तुतियां आज आपको इंटरनेट पर मिल जाएंगी और उसे इंटरनेट पर सर्वसुलभ बनाने का काम बुजुर्गो ने नहीं, युवाओं ने ही किया है।

लौंटेंगे अपनी परंपरा की ओर

डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

आज की पीढी के फिल्मकारों का संबंध अपनी भाषा और संस्कृति से छीजता जा रहा है। मेरा मानना है कि भाषा और संस्कृति से लगाव के बाद ही हम सांस्कृतिक छवियों और प्रतिमाओं को फिल्मों में ला सकते हैं। गौर करें तो इन दिनों विदेशों से आई हर प्रकार की मायथोलॉजिकल और हिस्टोरिकल फिल्में दर्शक पसंद कर रहे हैं। यह अच्छी बात है, लेकिन दर्शकों का यही उत्साह भारतीय मिथकों और ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की तरफ नहीं होता। निर्देशकों की निष्क्रियता और दर्शकों की संकीर्णता से भारतीय जननायकों पर फिल्में नहीं बन पातीं। इधर कुछ कोशिशें कामयाब हुई हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि भविष्य में हम अपने देश के सांस्कृतिक इतिहास और परंपरा की ओर लौटेंगे। अगर ईमानदारी और आदर के साथ फिल्में बनाई जाएं तो किसी भी प्रकार का विवाद नहीं हो सकता। दुख की बात है किछोटे पर्दे पर चल रहे ऐतिहासिकधारावाहिकों में डिस्क्लेमर दिया जाता है कि इस धारावाहिक का ऐतिहासिकतथ्यों से कोई संबंध नहीं है। वास्तव में यह ऐतिहासिकचेतना की अवहेलना और लाभ से प्रेरित शुद्ध मनोरंजन की कोशिश है।

दादी-नानी के नुसखे

आज महानगरों में रह रहे एकल परिवारों की मजबूरी है कि मामूली सर्दी-जुकाम के लिए भी उन्हें िफजिशियन के पास भागना होता है या अपने अल्पज्ञान के आधार पर एंटीबायोटिक दवा लेनी पडती है। एक पीढी पहले तक हम अपने बडे-बुजुर्गो के बताए नुसखे अपना कर घर में मौजूद मसालों और जडी-बूटियों का प्रयोग करके ही राहत पा जाते थे। मौसम के अनुरूप अपने खानपान में मामूली बदलाव करके हम इनसे बच भी सकते थे। आज भी कई परिवारों में ये नुसखे स्मृति के रूप में संरक्षित हैं। जरूरत इस बात की है कि लिपिबद्ध कर संरक्षित किया जाए, ताकि भावी पीढियां भी इनका लाभ उठा सकें। हर दौर में हुआ है परंपरा का पुनर्मूल्यांकन प्रो. क्रिस्टोफर लिंगल ग्वाटेमाला स्थित यूनिवर्सिडाड फ्रांसिस्को मैरोकिन में अर्थशास्त्र के विजिटिंग प्रोफेसर क्रिस्टोफर लिंगल की कृति सिंगापुर्स ऑथोरिटेरियन कैपिटलिच्म: एशियन वैल्यूज, फ्री मार्केट इल्यूजंस एंड पोलिटिकल डिपेंडेंसी खास चर्चा का विषय रही है। पिछले दिनों एशिया लिबर्टी फोरम में दिल्ली आए प्रो. लिंगल से एक संक्षिप्त मुलाकात के दौरान मिले विचार:

परंपरा और आधुनिकता के बीच एक तरह का संघर्ष हमेशा और हर समाज में चलता आया है। हर समाज की नई पीढी अपनी परंपरा का पुनर्मूल्यांकन करती रही है। उसमें वह कुछ चीजों को अपने साथ लेकर आगे बढती रही है और कुछ को छोड देती रही है। इस तरह हर संस्कृति की विरासत के कई तत्व नष्ट भी हो गए होंगे, लेकिन पुनर्मूल्यांकन की इसी प्रवृत्ति के चलते कई बार छूटी हुई विरासतें फिर से वापस अस्तित्व में आ जाती हैं। वे विरासतें जिन्हें किसी दौर का युवा वर्ग अपने लिए उपयोगी पाता है। कई बार उपयोगी चीजें छूट भी जाती हैं, परंपरा और आधुनिकता के बीच सार्थक संवाद स्थापित न हो पाने से। इसके लिए हमें सबसे पहले तो यह संवाद बनाना होगा और परंपरा को जिंदा रखने वाले कलाकारों को बेहतर जीवनस्तर देना होगा। इस दिशा में एक बेहतर प्रयास ग्वाटेमाला में हुआ। वहां कुछ युवाओं ने लोक कलाकारों और शिल्पियों को इंटरनेट के जरिये सीधे विश्व बाजार से जोड दिया। वे बिचौलियों के चंगुल से छूटे और उन्हें अपने काम का उचित दाम मिलने लगा तो उनका जीवन स्तर अपने आप सुधर गया। इसी तरह पुरातात्विक स्मारकों के संरक्षण का काम अगर निजी क्षेत्र को सौंप दिया जाए तो मुझे पूरा यकीन है कि आपको चौंकाने वाले परिणाम मिलेंगे।

संगीत में परिवेश

मनोरंजन और उत्साह के लिए फास्ट म्यूजिक सुनना अच्छी बात है, लेकिन मन को सुकून तो हमेशा शांतिपूर्ण संगीत से मिलता है। वैज्ञानिक प्रयोगों से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि शास्त्रीय संगीत चाहे पूरब का हो या पश्चिम का, उसमें असाध्य माने जाने वाले रोगों के भी इलाज की क्षमता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में तो दोनों ही तरह की खूबियां हैं। यहां प्रहर और ऋतु ही नहीं, अवसर के अनुकूल भी राग-रागिनियां हैं। लोक संगीत और नृत्य भी इससे भिन्न नहीं है।

आवश्यकता है अपनी परंपरा के विस्मृत सोपानों का अनुशीलन कर उन्हें पुनर्जीवित करने की।

खुरचते हैं अपनी ही पहचान

नवीना जाफा, इतिहासविद

विरासत केवल वही नहीं है, जो ठोस रूप में हमारे सामने है। इसमें वह सब शामिल है, जिससे दुनिया में हमारी पहचान बनती है। हम दुनिया को जैसे देखते हैं, जिस तरह सोचते हैं, हमारा खान-पान, मातृभाषा, रहन-सहन, हमारी पूरी जीवनशैली हमारी विरासत का हिस्सा है। जब हम अपनी विरासत के संरक्षण की बात करते हें तो जाहिर है कि केवल उस ठोस संपत्ति की बात नहीं करते जो पुरातत्व महत्व की संपदा घोषित है, हमारा जोर हमारी परंपरा से मिली पूरी जीवनशैली के संरक्षण पर होता है। इसी से हमें हमारे अस्तित्व की सार्थकता और उसकी विलक्षणता का पता चलता है। ठोस चीजों के तो संरक्षण की संस्कृति ही पश्चिम से आई है। हमारे यहां न तो संग्रहालय होते रहे हैं और न ऐतिहासिक स्मारकों को सहेजने की विधियां रही हैं। लेकिन अब जब ये विधियां हमारे पास हैं तब भी हमारा जनमानस इसके लिए पर्याप्त सचेत नहीं हो पाया है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा मरम्मत करा कर संरक्षित की गई जगहों पर भी लोग अपनी दास्तानें उकेरने से बाज नहीं आते। लोग यह नहीं समझ पाते कि इस तरह से वे केवल ऐतिहासिक विरासत को ही नहीं, बल्कि स्वयं अपनी पहचान को खुरच रहे हैं। इस मामले में केवल सरकारी प्रयास काफी नहीं है। जरूरत इस बात की है कि लोगों को जागरूक करें। एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता की हैसियत से मैंने इस दिशा में बहुत प्रयास किए हैं, लेकिन इतने बडे देश में केवल एक व्यक्ति का प्रयास कितना कारगर हो सकता है? इसके लिए और लोगों को भी स्वेच्छा से आगे आना चाहिए और आम आदमी को अपनी सांस्कृतिक विरासत तथा उसके महत्व के प्रति जागरूक बनाना चाहिए। मातृभाषाओं का संरक्षण इसके लिए बेहद जरूरी है। क्योंकि अपनी संस्कृति के अदृश्य तत्वों को हम केवल मातृभाषाओं के जरिये ही सहेज सकते हैं।

कहानी की कंगाली से है समस्या

कमलेश पाण्डेय, पटकथाकार

हमारी फिल्मों से दमदार कहानियां गायब होती जा रही हैं। लेखकों को अब भी उनका ड्यू नहीं मिल रहा। कहानी की प्राथमिकता नजरअंदाज हो रही है। हमारी फिल्मों से आत्मा ही गायब हो रही है। संस्कार, जननायकों के प्रति संचेतना इसलिए गायब हो रही है, क्योंकिक्वॉलिटी लेखकों को साइडलाइन कर दिया गया है। मुझे नहीं मालूम पिछले एकदशकमें वैसी किस्म की फिल्में बनीं हैं, जिनमें सरोकार व जननायकों वाली बात रही हो। प्रसार माध्यम भी इसमें दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। हमने अपनी भूमिका महज दर्शक तक सीमित कर रखी है। हम कला की प्रोन्नति के लिए हिस्सेदार की भूमिका नहीं निभा रहे हैं। हम संगीत सुनना पसंद करते हैं, पर उसके निर्माण में भागीदार नहीं बन रहे हैं। हमारी संवेदना घटती जा रही है। पहले यह बात नहीं थी। लोकनृत्य होता था तो सारा गांव शामिल होता था। सांस्कृतिक प्रक्रियाएं जीवन का अनिवार्य अंग थीं। अब वैसा कुछ नहीं है। व्यक्तिगत स्तर पर किए गए कार्य को हम अपवाद मानेंगे, वह नियम नहीं है।

संस्कार देता साहित्य

कल्पनाशीलता की जैसी ऊंची उडान भारतीय वांग्मय में दिखती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। खास बात यह है कि यह कल्पनाशीलता कोरी कल्पना नहीं है। विद्वानों की मानें तो यह तत्कालीन यथार्थ का पुनर्सृजन है जो हमें ऐसे समय में राह दिखाता है, जब हमें कुछ नहीं सूझता। हमारे पूर्वजों ने लंबे समय तक इसे अपनी स्मृति में संजोकर रखा। कागज और छपाई के आविष्कार के साथ स्मृति के भरोसे रहने की आवश्यकता तो जाती रही, पर आवश्यकता पडने पर यह काम तभी आएगा जब हम समय-समय पर इसका अनुशीलन करते रहेंगे।

इंटरव्यू : दिल्ली से इष्ट देव, मुंबई से अजय ब्रह्मात्मज, अमित कर्ण

इष्ट देव सांकृत्यायन


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