Move to Jagran APP

समय की नब्ज पर है पकड़ जिनकी

बेहद तेज है वक्त की रफ्तार।लोग इसके साथ कदम मिलाकर चलने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन जीवन में आगे बढ़ने के लिए केवल इतना ही काफी नहीं। आज जरूरत है समय के मिजाज को परखते हुए उसी के अनुकूल अपनी रणनीति और योजनाएं बनाने की। क्या वाकई समाज बदल रहा है, क्यों जरूरी है बदलाव के इस रुख को पहचानना और इस बदलाव का इस्तेमाल बेहतरी की दिशा में कैसे किया जाए? कुछ विशेषज्ञों और मशहूर शख्सीयतों के साथ इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढ रही हैं विनीता।

By Edited By: Published: Wed, 01 Jan 2014 12:53 AM (IST)Updated: Wed, 01 Jan 2014 12:53 AM (IST)
समय की नब्ज पर है पकड़ जिनकी

जीत उसी की होती है, जो समय की नब्ज को बखूबी  पहचानता है। केवल आज ही नहीं, बल्कि कल के बारे में भी सोचता है। हालांकि, यह सच है कि हमारे सामने भविष्य की कोई स्पष्ट तसवीर नहीं होती। फिर भी अतीत और वर्तमान के अनुभवों के आधार पर हम भविष्य में आने वाले बदलाव का अंदाजा तो लगा ही सकते हैं। वास्तव में यही दूरदर्शिता व्यक्ति को कामयाबी के रास्ते पर आगे बढने के लिए प्रेरित करती है।

loksabha election banner

असर उदारीकरण का

आर्थिक उदारीकरण ने पूरी दुनिया को करीब लाने का काम किया है। भारतीय समाज भी इससे अछूता नहीं है। जहां एक ओर मल्टीनेशनल कंपनियों ने युवाओं को रोजगार के बेहतर अवसर प्रदान किए, वहीं उन्हें दुनिया में आ रहे हर नए बदलाव से रूबरू होने का अवसर मिला। चाहे शिक्षा हो या टेक्नोलॉजी, भाषा हो या संस्कृति। हर स्तर पर लोग बडी सहजता से अनुभवों और विचारों का आदान-प्रदान कर रहे हैं। स्वाभाविक है इससे हमारे समाज में भी लोगों के अनुभवों और जानकारियों का दायरा तेजी से बढ रहा है। इस संबंध में समाजशास्त्री डॉ. ऋतु सारस्वत कहती हैं, हम बडे सामाजिक बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं। निस्संदेह शिक्षा और जागरूकता के मामले में हम तेजी से बढ रहे हैं, पर इसका दूसरा पहलू यह भी है कि शुरुआत में हर बदलाव हमें बेहद सुखद लगता है, लेकिन एक पीढी, यानी लगभग पचास-साठ साल बाद लोगों को उस बदलाव की खामियां नजर आने लगती हैं। मिसाल के तौर पर भारतीय समाज दिनोंदिन आत्मकेंद्रित और व्यक्तिवादी होता जा रहा है। आज लोगों के लिए सिर्फ भौतिक उपलब्धियां ही सब कुछ हैं, लेकिन कुछ समयबाद एक ऐसा दौर भी आएगा जब लोगों को मन के सुकून की तलाश होगी। ऐसे में लोग दोबारा सादगीपूर्ण जीवनशैली एवं आध्यात्मिकता की ओर वापस लौटेंगे।

सोशल मीडिया बना मददगार

सूचना तकनीक के क्षेत्र में आने वाले क्रांतिकारी परिवर्तन ने भौगोलिक दूरियों को मिटा दिया है। किसी भी कोने में बैठकर पूरी दुनिया से जुडे रहने की सुविधा ने लोगों की जानकारियों में इजाफा करने के साथ उनके संपर्क का दायरा भी विस्तृत बना दिया है। इसका फायदा उठाकर लोग एक-दूसरे के अनुभवों से बहुत कुछ सीखने-समझने की कोशिश कर रहे हैं। रुडकी के एग्रीकल्चर एक्सपर्ट अजय शर्मा खुद भी फार्मिग करते हैं। सोशल नेटवर्किग  साइट्स  के माध्यम से उन्होंने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले अपने ही फील्ड के कई लोगों से दोस्ती कर ली है। वह बताते हैं, अकसर हम विडियो चैटिंग के माध्यम से अपनी कार्य-प्रणाली से जुडी समस्याओं के बारे में बातचीत करते हैं। ऐसे में एक-दूसरे के अनुभव हमारे लिए मददगार साबित होते हैं। मसलन, सिंगापुर के एक वैज्ञानिक मित्र ने मुझे बताया कि हम कम खर्च में भी अपने पर्यावरण को हर-भरा कैसे बना सकते हैं। ऐसे अनुभवों से हमें कृषि एवं पर्यावरण से संबंधित दूरगामी योजनाएं बनाने में भी मदद मिलती है।

तलाश नए और बेहतर की

इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय समाज तेजी से बेहतरी की ओर बढ रहा है। हर क्षेत्र में लोग कुछ नया और बेहतर करने की कोशिश में जुटे नजर आते हैं। इसके लिए वे नई संभावनाएं तलाशने और नए प्रयोग करने से भी नहीं हिचकते। हिंदी फिल्में इसकी सबसे अच्छी मिसाल हैं। यहां के कुछ निर्देशकों ने समय की नब्ज को बहुत पहले ही पहचान लिया था। उन्हें अंदाजा हो गया था कि कुछ वर्षो बाद दर्शक लव-स्टोरी, ऐक्शन और नाच-गाने वाली फॉम्र्युला फिल्मों से ऊब जाएंगे। इसीलिए उन्होंने वास्तविक जीवन स्थितियों, चरित्रों और घटनाओं पर फिल्में बनाने की शुरुआत की। तभी तो लंच बॉक्स  पान सिंह तोमर और इंग्लिश-विंगलिश जैसी फिल्मों को केवल आलोचकों ही नहीं, बल्कि दर्शकों की भी भरपूर सराहना मिली। इन फिल्मों के निर्देशकों ने यह साबित कर दिया कि कम खर्च  में बिना ग्लैमर  का छौंका लगाए भी उम्दा फिल्में बन सकती हैं। केवल फिल्मों की ही बात नहीं है, बल्कि हर क्षेत्र में लोग बेहतरी की तरफ बढ रहे हैं। यहां तक कि लापरवाही और लेट-लतीफी के लिए बदनाम कई सरकारी विभाग भी कंप्यूटर और इंटरनेट का इस्तेमाल करके अपनी कार्यप्रणाली को पहले की तुलना में दुरुस्त बना रहे हैं। कुल मिलाकर लब्बोलुआब  यह है कि सभी को यह बात समझ आ गई है कि बेहतरी की दिशा में आगे बढने के लिए बदलाव की आहट को पहचानना बहुत जरूरी है।

प्रोफेशनल उतार-चढाव

वक्त  के साथ प्रोफेशनल  और व्यावसायिक क्षेत्र में भी तेजी से बदलाव आ रहा है। अब लोग ऐसी बातों को लेकर काफी सजग हो गए हैं। इस संबंध में फोटोग्राफर राजेंद्र कुमार वाधवा  कहते हैं, बदलते समय के साथ खुद को अपडेट  रखने के लिए मैं अपने फील्ड से जुडी पत्र-पत्रिकाएं पढता हूं। इंटरनेट  पर फोटोग्राफी की नवीनतम तकनीकों के बारे में जानने की कोशिश करता हूं। 90  के दशक में मुझे यह आभास हो गया था कि अब डिजिटल फोटोग्राफी का जमाना आने वाला है। इसीलिए मैंने मुंबई जाकर वहां के प्रतिष्ठित इंस्टीट्यूट से फोटोग्राफी की ट्रेनिंग ली। हमेशा कुछ न कुछ नया सीखने की कोशिश में जुटा रहता हूं। मुझे ऐसा लगता है कि कडी प्रतियोगिता के इस युग में मजबूती से टिके रहने के लिए हमें पहले से ही खुद  को तैयार करने की जरूरत है। इस संबंध में करियर  काउंसलर  जतिन  चावला कहते हैं, किसी भी परिवर्तन के बारे में सोचकर घबराने के बजाय हमें उसके सकारात्मक पक्ष के बारे में सोचना चाहिए। नई कार्यशैली और तकनीकों को अपनाना आज की जरूरत है। जो व्यक्ति बदलाव की आहट को जितनी जल्दी पहचान लेता है, उसके लिए कामयाबी की राह उतनी ही आसान हो जाती है।

जीवनशैली भी नहीं है अछूती

प्रोफेशनल लाइफ ही नहीं, हमारे निजी जीवन में भी आहिस्ता-आहिस्ता बहुत कुछ बदल रहा है। भले ही हम इसे अति व्यस्त महानगरीय जीवनशैली की विवशता कहें या पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण पर सच्चाई तो यह है कि अब केवल महानगरों ही नहीं, बल्कि छोटे शहरों के मध्यवर्गीय परिवारों के रहन-सहन और खानपान में काफी बदलाव आ चुका है। कल की दबी-सहमी सी हाउसवाइफ आज की कॉन्फिडेंट होम मैनेजर बन चुकी है। आधुनिक भारतीय स्त्री इस बदलाव को न केवल खुले दिल से स्वीकार रही है, बल्कि इसके लिए उसने खुद  को बहुत अच्छी तरह तैयार भी किया है। घरेलू उपकरणों की सुविधाओं ने स्त्रियों के कामकाज के तरीके को व्यवस्थित और आसान बना दिया है। पहले घर की साफ-सफाई और कुकिंग  के लिए उन्हें बहुत ज्यादा  वक्त देना पडता था, लेकिन अब उनका यह काम कुछ ही घंटों में निबट जाता है। कंप्यूटर और इंटरनेट ने होममेकर्स  के जीवन को और भी आसान बना दिया है। चाहे बिजली का बिल चुकाना हो या ट्रेन की टिकट बुक करानी हो.. पहले की तरह इन कार्यो के लिए लंबी लाइन में खडे होकर उन्हें घंटों इंतजार नहीं करना पडता। अब उनके पास इतना वक्त होता है कि वे अपने परिवार की सेहत और फिटनेस  पर पूरा ध्यान दे पाती हैं। इतना ही नहीं उनके पास अपने लिए भी थोडा वक्त होता है, जिसका इस्तेमाल वे अपनी रुचि से जुडे कार्यो के लिए करती हैं।

सबसे अच्छी बात यह है कि ऐसा करते हुए उनके मन में यह ग्लानि नहीं होती कि मैं परिवार के बजाय खुद को ज्यादा  समय क्यों दे रही हूं?

वक्त  के साथ बदलते रिश्ते

भारतीय स्त्रियां शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता की राह पर तेजी से आगे बढ रही हैं। शिक्षा से उनकी सोच में खुलापन  आया और उन्होंने हर रिश्ते को स्वतंत्र नजरिये से देखना शुरू किया। आज से दो-तीन दशक पहले की पीढी आत्मसम्मान के साथ हर रिश्ते की गरिमा बनाए रखने का गुर सीखने लगी थी। बहू सास को पूरा सम्मान देती थी, लेकिन जब उनकी किसी बात से बहू की भावनाएं आहत होतीं तो वह विनम्रतापूर्वक उन्हें यह भी जता देती थी कि आपकी ऐसी बातों से मुझे दुख पहुंचा है। कल की वही बहू आज सास बन चुकी है। उसे यह मालूम है कि नई पीढी की भावनाओं को समझते हुए उसके साथ सही तालमेल कैसे बनाना है। आज वह बहू को अपने ढंग से जीने की पूरी आजादी देती है और खुद  भी नए जमाने के साथ कदम मिलाकर चलती है। केवल स्त्रियां ही नहीं, बल्कि पारिवारिक रिश्तों को लेकर पुरुष भी बेहद संजीदा हो गए हैं। अब उन्हें एहसास होने लगा है कि परिवार की खुशहाली  के लिए हमें भी हर रिश्ते की अहमियत समझनी होगी। खास तौर से पिता के रूप में बेटियों के प्रति पुरुषों का रवैया काफी उदार हो गया है।

पेरेंटिंग की बदलती परिभाषा

समय के साथ जटिल होती जीवन स्थितियों ने बच्चों की परवरिश को काफी चुनौतीपूर्ण बना दिया है। इसके लिए आज के पेरेंट्स  पहले से ही खुद  को मानसिक रूप से तैयार कर रहे हैं। संयुक्त परिवार तेजी से टूट रहे हैं। एकल परिवारों में बच्चों को वह लाड-प्यार और संरक्षण नहीं मिल पाता, जो संयुक्त परिवारों में रहने वाले बच्चों को आसानी से मिल जाता था। ऐसे हालात के लिए भारतीय अभिभावकों ने खुद  को मानसिक रूप से तैयार कर लिया है। चाहे कितनी भी व्यस्तता क्यों न हो, वे अपने बच्चों के लिए कुछ घंटे का क्वॉलिटी टाइम जरूर निकालते हैं। उस दौरान वे केवल अपने बच्चों पर ही ध्यान देते हैं। यह तो हुई छोटी उम्र की बात, लेकिन पहले की तुलना में आज के टीनेजर्स  की परवरिश ज्यादा मुश्किल हो गई है। भौतिक सुख-सुविधाओं की चकाचौंध से इन बच्चों की जीवनशैली भी प्रभावित हो रही है। हर फील्ड में सर्वश्रेष्ठ बने रहने के दबाव की वजह से वे छोटी उम्र में ही डिप्रेशन  जैसी मनोवैज्ञानिक समस्याओं के शिकार हो रहे हैं। अपने बच्चों को ऐसी मुश्किलों से बचाने के लिए आज के पेरेंट्स  उनके साथ दोस्ताना ढंग से पेश आते हैं।

सक्रिय होती पुरानी पीढी

भारतीय बुजुर्गो ने उम्र की दूसरी पारी को स्वस्थ और खुशहाल  बनाने की तैयारी काफी पहले से शुरू कर दी थी। आज के वरिष्ठ नागरिक आधुनिक जीवनशैली की खूबियों-खामियों से पूरी तरह वाकिफ हैं। उन्हें मालूम है कि नई पीढी की तेज रफ्तार जिंदगी के साथ तालमेल बिठाने में उन्हें दिक्कत आएगी। इसलिए वे अपनी आर्थिक सुरक्षा का पूरा इंतजाम रखते हैं। इतना ही नहीं, वे मिडिलएज से ही अपनी सेहत के प्रति विशेष सजगता बरतते हैं ताकि उम्र ढलने के बाद उन्हें कोई समस्या न हो। सबसे सुखद बदलाव तो यह है कि आज के बुजुर्ग कंप्यूटर और इंटरनेट जैसी आधुनिक तकनीक का भी पूरा फायदा उठाने लगे हैं।

यह सच है कि बदलाव की इस सुखद बयार को हम जीवन के हर क्षेत्र में महसूस कर रहे हैं, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हवा के रुख  के साथ सूखे बेजान पत्ते की तरह यूं ही बहते चले जाना हमारे जीवन का मकसद नहीं हो सकता। यह सामाजिक संक्रमण का दौर है। ऐसे में सजगता और संतुलन बहुत जरूरी है। यहां हमारी भागीदारी सिर्फ उसी बदलाव में होनी चाहिए, जो समाज को बेहतरी की ओर ले जाए।

रिस्क लेने से नहीं डरता

आमिर खान, अभिनेता

मैं हमेशा नए प्रयोग में यकीन रखता हूं। इसीलिए मैंने लगान बनाई। वह फिल्म मेरे करियर  का माइलस्टोन  है। उस फिल्म ने मुझे बहुत कुछ दिया। उस समय तक मेनस्ट्रीम  सिनेमा में ऐसी गहरी सोच वाली फिल्में नहीं बनती थीं। उस फिल्म से मुझे यह महसूस हुआ कि एक्सपेरिमेंट के साथ बडे पैमाने पर नए विषय की फिल्म भी दर्शक पसंद कर सकते हैं। उस फिल्म ने हमारे दिमाग की खिडकियां खोल दीं। लगान ने मुझे निर्माता के रूप में पहचान दिलाई। दरअसल, मैं निर्माता बनना ही नहीं चाहता था, लेकिन फिल्म की स्क्रिप्ट इतनी पसंद आई कि मुझे अपना इरादा बदलना पडा। उस फिल्म के साथ एक बडी चिंता यह भी थी कि ऐसी फिल्म को कौन प्रोड्यूस  करेगा? निर्देशक आशुतोष गोवारीकर  को उस फिल्म के लिए जब कोई निर्माता नहीं मिला तो अंतत: मैंने ही उसे प्रोड्यूस  किया। मैंने सोचा कि एक ही जिंदगी मिली है तो रिस्क लेने से क्या डरना? लोगों ने गजनी और फना के बारे में भी कहा कि मुझे ये फिल्में नहीं करनी चाहिए थी। फिर भी मैंने दोनों फिल्में इसलिए कीं, क्योंकि दोनों की स्क्रिप्ट मुझे बहुत अच्छी लगी। मैं हमेशा अपने दिल की सुनता हूं। जो अच्छा लगता है, वही करता हूं। मैं जानता हूं कि फना की तुलना रंग दे बसंती से नहीं की जा सकती। ऐसे ही गजनी की तुलना तारे जमीं पर से नहीं हो सकती। जब हम मनोरंजन की बात करते हैं तो हर तरह के दर्शकों की रुचि के अनुकूल मनोरंजन की किस्में भी अलग-अलग होती हैं। मेरे टीवी शो सत्यमेव जयते  का भी उद्देश्य यही था। मैं दर्शकों को अलग किस्म का मनोरंजन देना चाहता था। उन्हें उपदेश देना मेरा मकसद हरगिज नहीं था। मैं तो सिर्फ ऐसी बातें करना चाह रहा था, जो सभी के दिलों को छू जाएं। जब बात सीधे दिल पर लगे तो उसका असर होता है। मैं एक ऐसा शो चाहता था, जिसके माध्यम से लोगों से जुड सकूं। आम नागरिक के तौर पर मैं क्या महसूस करता हूं, लोगों को यही बताने के लिए मैंने सत्यमेव जयते बनाया, जिसने दर्शकों को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया।

जरूरत है ईमानदार कोशिश की

आकाश सिन्हा, सीईओ,  ओमनीप्रेजेंट रोबोट  टेक्नोलॉजीज 

मुझे ऐसा लगता है कि अगर हमारे मन में अपने काम को लेकर पैशन  हो तो कामयाबी निश्चित रूप से मिलती है। 2002 में जब मैं रोबोटिक्स  इंजीनियरिंग की पढाई के लिए अमेरिका गया था, उस वक्त युवाओं के बीच कंप्यूटर और इंटरनेट का क्रेज था। मेरे साथ के कुछ लडकों ने यही सोच कर अपना स्ट्रीम चेंज कर लिया कि रोबोटिक्स  में अच्छा भविष्य नहीं है, लेकिन रोबोट्स  मुझे बचपन से ही बहुत आकर्षित करते थे। इसलिए मैं अपने इरादे पर अडिग रहा। यह सच है कि पढाई पूरी करने के बाद मुझे अपने करियर की शुरुआत एक छोटी सी कंपनी से करनी पडी, लेकिन वहां भी मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। जिस तरह आज हर जगह मोबाइल और इंटरनेट छाया हुआ है, उसी तरह आने वाला वक्त रोबोट्स  का होगा। आजकल हमारी कंपनी डीआरडीओ  के साथ मिलकर भारतीय सेना के लिए ड्रोन  (एरोप्लेन या हेलीकॉप्टर  के आकार के उडने वाले छोटे रोबोर्ट्स, जो एक किलोमीटर की दूरी से किसी भी वस्तु को पहचान लेते हैं, लेकिन जमीन पर खडे व्यक्ति को इनकी आकृति स्पष्ट दिखाई नहीं देती ) बनाने का काम शुरू कर दिया है। देश के सीमावर्ती और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में इनका बेहतर इस्तेमाल किया जा सकेगा। इसके अलावा घर की सफाई के साथ उसकी सुरक्षा का ध्यान रखने वाला रोबोट भी जल्द ही तैयार हो जाएगा। मेरे खयाल से हर फील्ड में कुछ न कुछ नया करने की गुंजाइश हमेशा होती है। जरूरत है सिर्फ खुली  सोच और ईमानदार कोशिश की।

पसंद है लीक से हटकर काम करना

एकता कपूर, निर्माता

हम पांच और सास भी कभी बहू थी जैसे पारिवारिक धारावाहिकों से मैंने अपने काम की शुरुआत की थी, पर मेरे मन में हमेशा कुछ नया और अलग करने की ललक बनी रहती है। दस साल बाद दर्शक क्या देखना पसंद करेंगे इसका अंदाजा मुझे पहले से ही होता है। मुझे लीक से हट कर सीरियल और फिल्में बनाना अच्छा लगता है, लेकिन मैं अपने पारंपरिक मूल्यों और संस्कृति का हमेशा खयाल रखती हूं। भले ही मैंने कई फिल्में भी बनाई हैं, पर टीवी मेरा पहला प्यार है। इसलिए मैं स्मॉल स्क्रीन का साथ नहीं छोड सकती। अपने धारावाहिकों के माध्यम से मुझे सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करना अच्छा लगता है। आज भी हमारा समाज नि:संतान स्त्रियों को हेय दृष्टि से देखता है। मेरा नया धारावाहिक ये हैं मोहब्बतें इसी संवेदनशील मुद्दे पर आधारित है। जहां तक बदलाव की बात है तो इस मामले में मैं दिमाग से ज्यादा दिल की सुनती हूं। मेरा मानना है कि अगर परिवर्तन की आवाज अंतरात्मा से आए तो वह सार्थक होता है।

हर हाल में रंग लाती है मेहनत राजकुमार हिरानी,  निर्देशक

मैंने डायरेक्टर बनने का सपना 16  सालों तक संजो कर रखा था, पर कभी लगा ही नहीं कि मैं कोई स्ट्रगल  कर रहा हूं। मुन्नाभाई एमबीबीएस  एक ऐसी फिल्म थी, जिसने एक साथ कई लोगों की जिंदगी बदल दी। इसने फिल्मी दुनिया की सभी पारंपरिक मान्यताओं को तोडा। सबसे दिलचस्प बात तो यह थी कि कोई भी वितरक फिल्म खरीदने  को तैयार नहीं था, लेकिन दोस्तों को जब भी मैं उसका प्रिंट दिखाता तो वे यही कहते कि यार, बडी अच्छी पिक्चर है। रिलीज के दिन दोपहर एक-डेढ बजे असिस्टेंट का फोन आया। उसने कहा, सर हमें पब्लिक का रिएक्शन  देखना चाहिए। हम पांच-छह लोग पहुंच गए थिएटर में। तब मुझे कोई जानता भी नहीं था। जब गेटकीपर से पूछा कि कैसी है फिल्म ?..तो उसने अंगूठा उलट दिया। उसकी यह प्रतिक्रिया अप्रत्याशित थी। मैं शत-प्रतिशत कलेक्शन  की उम्मीद तो नहीं कर रहा था, लेकिन50  प्रतिशत के लिए तो श्योर था। खैर, जब हॉल के भीतर पहुंचा तो फिल्म में कैरमबोर्ड वाला सीन चल रहा था। लोग हंस रहे थे, तालियां बजा रहे थे, एकाध को तो सीट पर उछलते हुए भी देखा। मैंने सोचा कि गेटकीपर ऐसे क्यों बोल रहा था? फिल्म तो लोगों को पसंद आ रही है। फिर मेरी समझ में आया कि वह बॉक्स ऑफिस की बात कर रहा है। फिर हम गीता थिएटर, मराठा मंदिर और न्यू अंपायर भी गए। बोमन न्यू अंपायर के पास रहते थे। मैंने उन्हें भी फिल्म देखने के लिए वहीं बुला लिया। वह उनकी पहली फिल्म थी। इसलिए बोमन इमोशनल होकर रोने लगे। जब हम शाम को बाहर निकले तो नौ बजे का शो हाउसफुल था। हमारे डिस्ट्रीब्यूटर  श्याम श्रॉफ  का फोन आया। उन्होंने कहा कि फिल्म की माउथ पब्लिसिटी बहुत अच्छी है। इसीलिए उसने बेहद फास्ट पिकअप किया। बाद में फिल्म ने अवॉर्ड और रिवॉर्ड की झडी लगा दी। इन बातों का लब्बोलुआब यही है कि कडी मेहनत और उम्दा कंटेंट  का कोई तोड नहीं। अगर आप लोगों को लॉजिकल फिल्म देते हैं तो वे उसे स्वीकारेंगे ही। इसीलिए हमेशा नया करने की कोशिश होनी चाहिए।

जरूरी है कार्यशैली में बदलाव

पूजा कोठारी, डायरेक्टर  स्टोरमोर.इन

किसी भी फील्ड में आगे बढने के लिए भविष्य की जरूरतों को पहचानना बहुत जरूरी है। पहले मैं इंक नामक एक अमेरिकी पत्रिका के भारतीय संस्करण के संपादक पद पर कार्यरत थी। दरअसल उस पत्रिका के स्तंभकार नार्म ब्राड्स्की न्यूयार्क की बडी कंपनियों के पुराने दस्तावेजों को सुरक्षित रखने का बिजनेस चलाते थे। जब मुझे यह बात मालूम हुई तो मैंने इसके बारे में अपने कलीग अमित विल्सन और नितिन धवन को बताया। भारत में अब तक ऐसे काम की शुरुआत नहीं हुई थी। इसलिए हम तीनों की इच्छा हुई कि क्यों न हम इसी क्षेत्र में अपने काम की शुरुआत की करें। पहले हमने अस्पतालों, बैंकों और निजी कंपनियों के दस्तावेजों को सुरक्षित रखने का काम शुरू किया। हमें अंदाजा नहीं था, पर लोगों को हमारा यह प्रयास काफी पसंद आया। फिर जिन कंपनियों के लोग हमारे पास सामान लेकर आते थे, उन्होंने ही हमें सुझाव दिया कि कंपनियों की तरह क्या आप हम लोगों का जरूरी सामान सुरक्षित नहीं रख सकते? इस तरह स्टोरमोर.इन का जन्म हुआ। अब हम केवल कागजात ही नहीं, बल्कि लोगों के घरों के जरूरी सामान भी सुरक्षित रखते हैं। मिसाल के तौर पर अगर किसी व्यक्ति को कुछ महीनों के लिए विदेश जाना हो, वह अचानक अपना सारा सामान बेच नहीं सकता। ऐसी स्थिति में हम उसके घर से सारा सामान पैक करवा के अपने पास मंगा लेते हैं। इससे थोडे से पैसे खर्च करने के बाद वह व्यक्ति पूरी तरह निश्चिंत हो जाता है। मुझे ऐसा लगता है कि अगर हम समय की जरूरतों के अनुरूप अपनी कार्यशैली में बदलाव लाएं तो यह सिर्फ हमारे लिए ही नहीं, बल्कि समाज के लिए भी बेहतर साबित होगा।

पहचान ली थी बदलाव की आहट

इशिता  स्वरूप, सीईओ 99 लेबल्स

किसी भी क्षेत्र में अगर हमें कुछ अच्छा करना है तो उसके लिए दूरदर्शिता बहुत जरूरी है। एमबीए करने के बाद मैंने कुछ समय तक जॉब भी किया, लेकिन उस दौरान हमेशा मुझे ऐसा लगता रहा कि मैं नौकरी के लिए बनी ही नहीं हूं। इसलिए मैंने जॉब छोड कर 1995  में अपनी एक सहेली के साथ मिलकर डोमेस्टिक  बीपीओ  की शुरुआत की थी, लेकिन इससे हमें कोई खास  फायदा नहीं हुआ तो हमने वह काम बंद कर दिया। मेरे पिता सरकारी जॉब में हैं और मम्मी टीचर हैं। उन्हें पहले से ही मेरी कामयाबी पर संदेह था। वे मुझसे बहुत नाराज हुए, पर मैंने भी हार नहीं मानी। नए सिरे से काफी रिसर्च करने के बाद 2006  में मैंने ऑनलाइन  शॉपिंग  की वेबसाइट  99 लेबल्स की शुरुआत की। इस बिजनेस का कॉन्सेप्ट  यह था कि हमने प्रमुख भारतीय और विदेशी ब्रैंड्स  के साथ संपर्क करके उनसे कहा कि वे अपना एक्सट्रा स्टॉक हमें सस्ते में बेच दें। फिर उन खरीदी  गई चीजों की हम ऑनलाइन  सेल लगाते हैं। उस वक्त भी लोगों ने मुझे बहुत मना किया कि भारतीय ग्राहकों को बाजार में घूमने की आदत होती है। इसलिए उन्हें ई-शॉपिंग पसंद नहीं आएगी, लेकिन मैं अपनी जिद पर अडी रही क्योंकि मुझे समय के साथ आने वाले बदलाव का आभास हो रहा था। यहां मध्यमवर्ग की आमदनी बढ रही है और लोगों के पास समय की कमी है। इस वजह से अब उन्हें ई-शॉपिंग सुविधाजनक लगने लगी है। मेरा मानना है कि अगर हम धैर्य के साथ मेहनत करें तो हमें आगे बढने से कोई भी ताकत रोक नहीं सकती।

सीखा है अपने अनुभवों से

नीरज पांडे, पटकथा लेखक एवं निर्देशक

मुंबई आने से पहले मैं यहां किसी को नहीं जानता था। कॉलेज  के दिनों में अंग्रेजी साहित्य मेरा प्रिय विषय था। मुझे ऐसा लगा कि मैं अच्छी कहानियां लिख सकता हूं। इसलिए दिल्ली छोडकर मुंबई चला आया। शुरुआत में गुजारे के लिए यहां कुछ दिनों तक नौकरी की। फिर फिल्म ए वेडनसडे  बनाई। फिल्म हिट हुई और प्रशंसा के साथ पुरस्कार भी मेरी झोली में आए। ट्रेनिंग के लिए किसी संस्थान में नहीं गया और न ही मैं सिनेमा का एबीसीडी जानता था। हां, मुझे इतना जरूर पता था कि मैं अच्छी कहानियां लिखता हूं और उन्हें रोचक ढंग से सुना भी सकता हूं। मैंने सिर्फ अपने अनुभवों से सीखा है। लोग चाहे कुछ भी करें या कहें इससे मुझे कोई फर्क नहीं पडता। मैं अपने काम से बेइंतहां प्यार करता हूं और जब कोई इंसान सच्ची लगन से काम करता है तो उसका रिजल्ट हमेशा अच्छा ही होता है।

इंटरव्यू : मुंबई से अजय ब्रह्मात्मज, अमित कर्ण एवं दुर्गेश सिंह, दिल्ली से विनीता

विनीता


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.