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कथाकार शिवमूर्ति के गांव में

<p>सुल्तानपुर आते-आते भिनसार हो गई। वातावरण सुरमई होने लगा। बाईपास इलाहाबाद रोड से 14 कि.मी. पर था गांव-कुरंग। एकदम लबे सडक। सडक के दोनों ओर खूब पसरा हुआ। शिवमूर्ति का घर प्रवेश करते ही, बांए मुडकर है। एक हाकिम साहित्यकार मित्र के सौजन्य से सी.सी. रोड उनके घर तक बनी है। हम पहुंचे तो गांव अंधेरे में डूब चुका था। उनके फार्म-हाउसनुमा घर में लगे इनवर्टर के प्रताप से बाहर दो तीन सी.एफ.एल. बल्ब जगमगा रह थे। काले समुद्र में रौशनी का एक द्वीप था- हमारा शरण्य। </p>

By Edited By: Published: Sun, 11 Mar 2012 06:55 PM (IST)Updated: Sun, 11 Mar 2012 06:55 PM (IST)

सडक आश्चर्यजनक रूप से अच्छी थी, चिकनी काली और गढ्ढामुक्त। गाडी उस पर तैर रही थी। सहसा शिवमूर्ति को कछुआ छाप अगरबत्ती याद आ गई। मुसाफिरखाना बाजार में एक जनरल स्टोर से कॉयल और हिट स्प्रे खरीदे गए। समझ में आ गया कि गांव में मच्छरों से पाला पडेगा।

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सुल्तानपुर आते-आते भिनसार हो गई। वातावरण सुरमई होने लगा। बाईपास इलाहाबाद रोड से 14 कि.मी. पर था गांव-कुरंग। एकदम लबे सडक। सडक के दोनों ओर खूब पसरा हुआ। शिवमूर्ति का घर प्रवेश करते ही, बांए मुडकर है। एक हाकिम साहित्यकार मित्र के सौजन्य से सी.सी. रोड उनके घर तक बनी है। हम पहुंचे तो गांव अंधेरे में डूब चुका था। उनके फार्म-हाउसनुमा घर में लगे इनवर्टर के प्रताप से बाहर दो तीन सी.एफ.एल. बल्ब जगमगा रह थे। काले समुद्र में रौशनी का एक द्वीप था- हमारा शरण्य।

पोर्चनुमा एक जगह बैठ कर चाय पी। बाद में टार्च लेकर वे हमें घर-बार दिखाने चले। बदकिस्मती से वह अमावस की रात थी। चांदनी रात होती तो पाम के ऊंचे वृक्षों से घिरा उनका मखमली लॉन, मौसमी फूलों से भरी क्यारियां, रुपहली आभा से नहाए पाम के वृक्ष हमारा इस्तकबाल करते। टार्च से ही पुष्ट फलों को बडी गरिमा से धारण करने वाले पपीते के गाछ भी दिखे। मछलियों से भरा एक तालाब था, पशुशाला थी जिसमें दो दर्शनीय भैंसें अपने थान पर बंधी थीं। दो बैल थे और एक गाय। बाहर आंगन में एक भरापूरा श्वान परिवार था।

शिवमूर्ति के पिता साधु हो गये थे। उनकी समाधि बगीचे के एक छोर पर बनी है। उसके आगे चारदीवारी में, खेतों की ओर खुलता हुआ एक लोहे का गेट है जिसके पार निकलकर हम टार्च की रौशनी में मेड पर चलते हुए धनिये के खेत में पहुंचे। धनिया की मादक गंध ने दिल और दिमाग को कुछ देर के लिए अपने आगोश में ले लिया। दूसरी तरफ सरसों फूली थी। आगे गेहूं और मटर के खेत थे। प्याज और लहसुन की क्यारियां थीं। .. कुछ दूरी पर पुराना घर है, कच्ची मि˜ी और खपरैल वाला। रसोई में चूल्हे की आंच पर रोटियां सिंक रही थीं। खाने की थाली जैसे सामने वाले खेतों से उगकर आई थी। बम्पर पैदावार थी गोभी यौवनगंधी धनिए से महमहा रही थी, दाल में ट्यूबवैल का पानी रचा बसा तो था मगर दिखाई नहीं दे रहा और शक्कर जैसी मीठी चुकंदर।

नौ बजते-बजते सोने का समय हो गया। ऊपर के कमरे में बनी बाल्कनी पर खडे होकर मैं सोचने लगा कि नींद कैसे आएगी। सामने पूरा इलाका अंधेरे में डूबा हुआ था। पास के घर में लटकी लालटेन भी बुझ चुकी थी। यहां बिजली रात को ग्यारह बजे आती है और सुबह छ: बजे चली जाती है। पूरे ग्राम्यांचल का यही हाल है। रास्ते भर देखता आया था कि गांव-गांव में बिजली के तार खिंच गए हैं। कहीं-कहीं डिश एंटेना भी दिखाई दिए लेकिन क्या फायदा? शहर में तो लोगों को तीन घंटे की बिजली की कटौती भी भारी पडती है। क्रिकेट मैच का फाइनल हो और बिजली चली जाये तो फसाद हो जाता है। गांव के लोग व्यावहारिक रूप से बिन बिजली जी रहे हैं। इक्कीसवीं सदी के ग्रामीण विद्यार्थी लालटेन में पढकर प्रतियोगिताओं के अखाडे में ताल ठोंकने के लिए उतरते हैं।

अगले दिन सुबह सडक पार कुरंग में शिवमूर्ति की कहानियों के कुछ पात्रों से मिलने गए। उनकी बेडिन सखी शिव कुमारी तो नहीं मिलीं, आजकल मुंबई में हैं परंतु उनकी एक बेटी शकुंतला से मुलाकात हो गई। उसे ये ट्यूशन पढाते थे-मास्टर जी! मैं चाय बनाती हूं। उसने आग्रह किया मगर क्षमा मांगकर हम नंदलाल यादव के घर की ओर चले। कसाई-बाडा कहानी का अविस्मरणीय चरित्र अधरंगी इन्हीं के विद्रोही व्यक्तित्व से अनुप्राणित है। अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाते रहे हैं चाहे जो भी हश्र हो। अभी भी इनकी जमीन दबंगों के कब्जे से कहां मुक्त हो पाई है। कुछ आगे एक मि˜ी के जीर्ण- शीर्ण कोठार के सामने अतिशय वृद्ध भगतिन बैठी थीं जिन्होंने गाढे समय में शिवमूर्ति के ढहते घर को खडा करने में हाथ बंटाया था। मैंने देखा कि एक-एक करके पुराने कच्चे ठिकाने ढहते जा रहे हैं और उनको मुंह चिढाते हुए कुछ नए रंगे-पुते पक्के हवादार मकान सीना उठाए खडे हैं। शिवमूर्ति के बालसखा भीष्म प्रताप सिंह ग्राम प्रधान रहे हैं। उनके सडक किनारे बने साफ सुथरे पक्के मकान के सामने प्राथमिक पाठशाला और पंचायत घर के नवनिर्मित भवन हैं। एकदम जगमग। कभी दर्शनीय रही शकुंतला या भगतिन की मलिनता यहां तक आते-आते विलुप्त हो जाती है। उनके यहां दैनिक जागरण पढा और चाय पीकर हम बकौल शिव मूर्ति संसार की सबसे सुंदर औरत को देखने गए। यह सन् 1970 की बात है जब रीता फारिया को विश्व सुंदरी का खिताब मिला था। उसकी प्रति छवि इन्होंने रामनाथ की अम्मा में देखी थी जो अब प्रौढता की सीमा पार करके उत्तर अवस्था में पहुंच चुकी हैं फिर भी कद काठी-नाक नक्श देखकर अनुमान किया जा सकता है। तब तक खबर पाकर ढूंढते हुए आ गए जमुना यादव- कथाकार के स्कूली जीवन के मित्र जिनके साथ अपनी किशोरावस्था में वे उपेन्द्रनाथ अश्क से मिलने इलाहाबाद गये थे। ट्रेन से, बिना टिकट। किसी से मांग कर गिरती दीवारें उपन्यास पढ कर ऐसा ही जोश उमड आया था। वहां कौशल्या जी ने हमें एक-एक परांठा खिलाया था और बहुत देर तक, खाली प्लेट हाथ में लिए हम दूसरा परांठा आने की निष्फल प्रतीक्षा करते रहे थे।

प्रधान जी ने महीन चावल का नमूना दिखाया जो शहर में चालीस रुपये किलो से कम नहीं मिलता होगा मगर सरकारी खरीद में, अहसान लाद कर ग्यारह रुपये चालीस पैसे की दर से लिया जाता है। गोहूं (गेहूं) का हाल तो और भी बुरा है। नौ रुपये किलो में भी जब सरकारी खरीद में नहीं उठता तो बनिये को आठ रुपये में दे आते हैं। खाद का वितरण भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की जीती जागती मिसाल है। खाद के बोरों में अक्सर मिलावट और कंकड-पत्थर मिलते हैं। किसान की लागत नहीं निकल पा रही है। मथुरा यादव हमें बगल के औछी गांव लेकर गए तो रास्ते में नहर थी। नहर की ऊंचाई आसपास के खेतों से बहुत ज्यादा थी। नतीजतन डीजल चालित पम्पों से पानी नहर से निकालकर खेतों में फेंका जा रहा था। नहर की सफाई के ठेके में लेन देन का यह परिणाम भुगतना तो किसानों को ही पड रहा था। डीजल और पम्प दोनों बेवजह कृषि उत्पाद की लागत बढा रहे थे।

औछी में स्वास्थ्य विभाग से सेवानिवृत्ति पर मिली राशि से पक्का मकान और मंदिर बनवाया है पं. शिवनारायण दुबे ने जो इंटरमीडिएट (विज्ञान) तक शिवमूर्ति के सहपाठी रहे। यादें खंगालते हुए बताया कि ये कहीं से विराटा की पद्मिनी उपन्यास पा गए तो बीच परीक्षा, रातभर उसे ही पढते रहे। सबेरे कैमिस्ट्री का पेपर था। दुबे जी ने एक ब्लाटिंग पेपर पर प्रश्नों के उत्तर लिखकर इन्हें पहुंचाए तो पास होने का जुगाड बना। ये तो निकल गए और दुबे जी का रिजल्ट विदहेल्ड हो गया। उनके बडे भाई उन दिनों भी धर्मयुग और कादम्बिनी जैसी पत्रिकाएं मंगाते थे जिन्हें पढकर शिवमूर्ति की साहित्यिक अभिरुचि का विकास हुआ। एक पांडे जी थे जिनके घर में अच्छा खासा पुस्तकालय था। चंद्रकांता संतति वगैरह उन्हीं के सौजन्य से हस्तगत हुई।

दुबे जी के यहां मटर की घुघनी और तिल के लड्डू खाकर खिलावन नाऊ के घर जाने के लिए गांव की गलियों से गुजरे तो औसत ग्रामीण परिवारों की बदहाली और दीनता का अहसास हुआ। गंदे और फटे पुराने कपडों में खेलते बच्चे। एक गली में एक फटेहाल बूढा, गाय-भैंसों के थान के पास जमीन पर बैठा सामने की थाली में पतले घोल की तरह भरा, चावल-दाल-रोटी के मिश्रण को अंजुलि भर-भर कर सडप रहा था। उच्छिष्ट का सदुपयोग। यही उसके हिस्से का सुख था। उसकी लाठी बगल में लेटी थी।

खेलावन की मां कम से कम 90 वर्ष की होंगी। दिखाई सुनाई मुश्किल से देता था। उन्होंने शिवमूर्ति और लगभग सभी ग्राम सखाओं की जन्मनाल काटी है। शिवमूर्ति की तीन बेटियों की भी, जो गांव में ही जन्मीं। स्कूल के दिनों में खिलावन अपनी साइकिल के डंडे पर बिठाकर शिवमूर्ति को 15 कि.मी. दूर इंटर कालेज तक ले जाते थे क्योंकि साइकिल में कैरियर नहीं था।

पास में ही है अपेक्षाकृत विकसित गांव- दुर्गापुर। संभवत: अम्बेडकर गांव रहे होने की वजह से। पक्की नालियां बनी हैं, कुछ शौचालय भी। एक निहायत पस्त कद काठी की पानी की टंकी भी। यहां हम हरेराम वर्मा जी से मिलने गए थे जिन्होंने शिवमूर्ति को उनकी चर्चित कहानी छलांग का कथ्य अनायास भेंट कर दिया था। वे उनसे पूछने गए थे कि लडके को बी.टेक पढने के लिए भेजूं या उतने पैसे में लडकी की शादी निपटा दूं? इसका उत्तर देना आसान नहीं था फिर भी वर्मा जी ने बेटे को इंजीनियरिंग पढने के लिए भेजा। अब बी.टेक. पास लडका प्रतियोगी परीक्षा में बैठने की तैयारी कर रहा है। फूड प्रिजर्वेशन से स्नातक बिटिया ने हमें आंवले का बेहतरीन मुरब्बा और रसायन रहित देसी गुड खिलाया। वर्मा जी के आंगन में गन्ना पेरने का कोल्हू और गुड बनाने का सरंजाम धोया-पोंछा सा रखा था।

हम लोग इस विकसित गांव का स्कूल देखने गए। तीन पक्के कमरों में 6ठी, 7 वीं और 8 वीं कक्षाएं चल रही थीं। एक प्रधानाध्यापक और तीन अध्यापक थे। छात्राओं की संख्या अधिक थी और उनमें पढने के लिए ललक थी। पुष्टाहार बनाने की सामग्री कार्यालय में रखी थी। एक लडकी से कुछ प्रश्न किए। वह वाचाल और चुस्त थी, उसे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री का नाम पता था लेकिन प्रधानमंत्री का नहीं। हमने बताया तो बोली- कभी सुना नहीं। अब आपने बताया है तो याद रखूंगी। स्कूल से निकले तो एक व्यक्ति अनुनय करने लगा- जरा इनकी बात भी सुन लीजिए। कोई सुनवैय्या नहीं है। देखा मंझोले कद की एक सुगढ काया और रूखे बालों वाली युवती सामने बुत की तरह खडी थी। सूनी उदास और मौन आंखें। हमदर्द ने बताया कि वह विधवा, तीन बच्चों की मां है। एकदम बेसहारा। स्कूल में पोषाहार बनाने का काम मिला तो बच्चों को रोटी का निवाला नसीब होने लगा था। पिछले दिनों सहसा, बिना कोई कारण बताए उसे निकाल दिया गया। तब से आपकी फरियाद लिए मारी-मारी फिर रही है। आप लोग कुछ कहें-सुनें तो..। हमने लाचारी जाहिर की तो सहसा वह बोल उठी- मास्टर की चाची को रख लिया है उन लोगों ने। अर्थात इंसाफ मिलने की संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आरही थी। भले ही शिवमूर्ति एक और कथा रच डालें।

कुरंग, औछी और दुर्गापुर इन तीनों गांवों और इनके इर्दगिर्द लहलाते खेतों में एक अनोखी बात देखी। हर कोने पर, हर मोड पर, घर के आगे पीछे फूलों के पौधे अनिवार्य रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते मिले। जब हम शकुंतला के घर से संसार की सबसे सुंदर स्त्री के पास जा रहे थे तो गली के मोड पर बहुत गहरे रंग के बडे-बडे फूलों वाली गुलाब की एक झाडी भी इठलाती मिली। और जवा कुसुम- वे तो कदम-कदम पर थे।

[राजेंद्र राव]


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