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छोटे शहर का बड़ा लेखक हृदयेश

<p>सुप्रसिद्ध कथाकार हृदयेश आज प्रेमचंद की परम्परा के संवाहक और प्रगतिशील जीवन-दृष्टि से सम्पन्न कथाकार माने जाते हैं। उनमें साधारण को असाधारण रूप में व्यक्त करने की अद्भुत कला है। </p>

By Edited By: Published: Tue, 09 Oct 2012 03:59 PM (IST)Updated: Tue, 09 Oct 2012 03:59 PM (IST)
छोटे शहर का  बड़ा लेखक हृदयेश

सुप्रसिद्ध कथाकार हृदयेश आज प्रेमचंद की परम्परा के संवाहक और प्रगतिशील जीवन-दृष्टि से सम्पन्न कथाकार माने जाते हैं। उनमें साधारण को असाधारण रूप में व्यक्त करने की अद्भुत कला है। शाहजहांपुर जैसे छोटे शहर में रहकर भी उन्होंने महानगरों में रह रहे समकालीन कथाकारों के बीच महत्वपूर्ण स्थान बनाकर यह सिद्ध कर दिया है कि केवल रचना की गुणवत्ता ही महत्वपूर्ण होती है और वही उसे छोटे शहर का बडा लेखक भी बना सकती है।

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शाहजहांपुर में 1930 में जन्मे हृदयेश की अब तक लगभग 11 उपन्यास 21 कहानी-संग्रह तथा दो अनुवाद की पुस्तकें आ चुकी हैं- सफेद घोडा काला सवार, किस्सा हवेली, चार दरवेश तथा शब्द भी हत्या करते हैं उनके चर्चित उपन्यास हैं। उनकी रचनायें अनेक भारतीय भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं, कहानियों पर समग्र आ चुका है, मनु कहानी पर टेलीफिल्म बन चुकी है, स्वयं उनपर एक वृत्त-चित्र आ चुका है और कई रचनायें दिल्ली एवं रुहेलखंड विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल रही हैं। पहल सम्मान तथा उ. प्र. हिन्दी संस्थान के दो महत्वपूर्ण पुरस्कार भी उनके खाते में दर्ज हैं। हृदयेश का पाठक-वर्ग देश की सीमायें लांघ चुका है। उन पर कई शोध हो चुके हैं और कुछ अभी हो रहे हैं। पुनर्नवा के लिए चंद्रमोहन दिनेश ने उनसे बातचीत की:-

अपने लेखन के प्रारंभिक दौर में आपको छोटे शहर का लेखक के रूप में जाना और माना गया। तब आपने इस वक्त को किस रूप में लिया? क्या यह उक्ति आपको हाशिये पर रखने जैसी चुनौती लगी?

मेरे पहले कहानी-संग्रह का शीर्षक छोटे शहर के लोग था। राजेन्द्र यादव ने जिन्होंने इस संग्रह को अपने अक्षर प्रकाशन से प्रकाशित किया था, संग्रह में जा रही कहानियों में इसी नाम की एक कहानी की बिना पर इसको मौजूं पाया था। मेरी अधिकांश कहानियों व उपन्यासों का परिवेश छोटे शहर का ही है, जहां मैंने सारा जीवन जिया और बिताया है। मेरे लिए यह सहज और सुविधाजनक था कि मैं यहां के प्रसंगों, घटनाओं, सामाजिक हलचलों, पात्रों, चरित्रों से ही चुनाव करूं। किन्तु ऐसा करते हुए मैंने जो समस्यायें, जिन वास्तविकताओं, सच्चाईयों, सरोकारों को प्रस्तुत किया है वे पूरे देश और काल से संबंधित हैं। छोटे शहर का लेखक की काट में कतिपय आलोचकों ने मेरी रचना-दृष्टि के आधार पर मुझे छोटे शहर का बडा लेखक भी कहा है।

कुछ आलोचक आपको साहित्य का आधुनिक प्रेमचंद या प्रेमचंद जी की परम्परा का लेखक कहते हैं। आप क्या कहेंगे?

हिन्दी का कथा-साहित्य प्रेमचंद के लेखन तक आकर ही नहीं ठहर गया है। भाषा, शिल्प, कहन की दृष्टि से इसने विकास किया है। नयी कथा-भूमि तोडी और जीती गयी है। हां, प्रेमचंद का अपने समय में भी दृष्टिकोण प्रगतिशील और मानवीय रहा है। उन्होंने शोषितों, सताये हुओं, हाशिये पर फेंके गए जनों को न्याय, उनका हक दिलाने के वास्ते उनकी निरन्तर वकालत की है। मेरे लेखन में भी इन जनों के पक्ष में खडा होने के कारण शायद आलोचक मुझे प्रेमचंद की परम्परा से जोड देते हैं।

भोगा हुआ यथार्थ लिखना क्या लेखक के लिए आवश्यक है?

भोगे हुए यथार्थ को प्रस्तुत करने में यथार्थ के रंगों-रेशों तक की प्रस्तुति हो जाती है। इसलिए यह अधिक प्रामाणिक, अधिक विश्वसनीय होती है। किन्तु ऐसा मान लिया जाना कि दलित से संबंधित यथार्थ केवल दलित ही वर्णित कर सकता है या स्त्री से संबंधित यथार्थ केवल स्त्री ही, पूर्णत: सही नहीं है। लेखक अपनी संवेदना की सिद्धि- शक्ति से परकाया प्रवेश करता है। उसके लिए स्वभोगे-यथार्थ की भांति परभोगे- यथार्थ को पकडना, उससे रूबरू होना भी सहज होता है।

साठ वर्षो के विपुल लेखन के बाद आप आज भी यह महसूस करते हैं कि अभी भी बहुत कुछ लिखना शेष है? या अब लेखन को समेटने के लिए प्रयत्नशील हैं?

बढी आयु का दुष्प्रभाव लेखक की लेखन क्षमता, उसकी मानसिकता को ग्रसित करता ही है। 82 वर्ष की आयु में मुझे ऐसा नहीं लगता है कि मैं कोई बडा कार्य अब कर सकूंगा। इसी के साथ कहीं अंदर यह धारणा अडोल है कि जब तक मेरी कलम जिंदा है, तब तक मैं जिंदा हूं। सृजनरत रहना मेरे अपने लिए जरूरी सा हो गया है।

नागार्जुन ने आपको किसी गुफा में तप में लीन तपस्वी जैसा कुछ कहा था। क्या एक सफल और सर्जनात्मक लेखन के लिए आप भी ऐसा ही मानते हैं?

तपस्या को गहरी साधना या अपने लक्ष्य के प्रति जागृत जुनून के अर्थ में लिया जाना चाहिए। सृजनात्मक लेखन में ही नहीं जीवन-कार्य के हर क्षेत्र में संबंधित व्यक्ति की सफलता की कुंजी गहरी साधना या तेज बुखार की तरह चढा यह जुनून ही है।

एक सफल और संवेदनशील रचनाकार के लिए आप किन तत्वों को आवश्यक मानते हैं?

रचना के रचाव में डूब जाना या उससे एकाकार हो जाना।

प्राय: हर प्रसिद्ध रचनाकार अपनी एक कृति के लिए जाना जाता है। अपने संदर्भ में आप अपनी किसी कृति का नाम लेना चाहेंगे?

ऐसी स्थिति रचनाकार को सृजन से अलविदा कहने या उसके जीवन से मुक्त हो जाने के बाद ही आती है। तभी सुधी पाठक और आलोचक एकमत से निर्णय लेते हैं कि समय की छाती पर कील ठोंकने वाली उसकी कौन सी कृति है। बलराम ने मेरे कृतित्व की लोकप्रियता के आधार पर कहा था कि जिन चंद हिन्दी लेखकों से जुडे जन्म और कार्यस्थान जाने जाते हैं, उनमें एक हृदयेश भी हैं।

लेखकीय जीवन में आपने बहुत कुछ पाया है, पहल सम्मान, और उ. प्र. हिंदी संस्थान के दो बडे पुरस्कार। आप पर कई शोध हो चुके हैं और हो रहे हैं। मेरे ख्याल से एक छोटे शहर के लेखक के खाते में इतनी सारी उपलब्धियां दर्ज होना गर्व की बात है। इसके बावजूद अभी तक आप साहित्य अकादमी या ज्ञानपीठ सम्मान से वंचित रहे जबकि आपकी कृतियां कहीं से भी इनके अयोग्य नहीं रहीं। क्या कहना चाहेंगे?

एकबार साहित्य के क्षेत्र में यह मुद्दा बना था कि साहित्य अकादमी के पुरस्कार से मैं क्यों वंचित रखा गया हूं। अति बडे और अति महती सम्मानों के लिए यह जरूरी होता है कि आपका सम्पर्क क्षेत्र सुदृढ हो। मित्र मंडली बडी हो और वे सब आपकी लाबिंग करने के लिए लामबंद हो जाएं। ऐसे सम्मानों के लिए यह भी जरूरी होता है कि आप स्टारडम से जुडे हों यानी आप हाई-प्रोफाइल रखते हों। मैं लो- प्रोफाइल लेखक हूं।

आत्मकथात्मक उपन्यास जोखिम खासा चर्चित हुआ हालांकि कुछ पाठकों ने, उसमें वर्णित लोगों को, कमतर दिखाये जाने के आरोप भी लगाये लेकिन इस उपन्यास पर अनुकूल प्रतिक्रियाएं बहुत अधिक मिलीं। यूं भी आत्मकथा चाहे वह औपन्यासिक रूप में ही क्यों न हो लिखना जोखिम का काम तो है ही। अब आपकी क्या योजनाएं हैं? या संस्मरणों को ही आपके लेखन का अंतिम अध्याय माना जाए?

जहां तक आत्मकथा जोखिम का सवाल है मैंने इसे उपन्यास वाले विन्यास का संस्पर्श दिया था। लगभग सभी यहां-वहां आयी समीक्षाओं में इसकी प्रशंसा की गयी है। हंस के समीक्षक ने कुछ तथ्यों से अवगत न होने के कारण अपना तराजू पासंग वाला बना लिया था। फिर भी वह समीक्षा संतुलित थी। जिस एक तथाकथित समीक्षक ने इसकी आंते-पांते निकाल दीं, उनको इस बहाने मुझसे हिसाब साफ करना था। जोखिम की पाण्डुलिपि पढकर मुझसे मधुरेश ने कहा था कि आपके परिवार वाले आपसे रुष्ट होंगे। कलम के प्रति ईमानदार रहने में ऐसे खतरे उठाये ही जाते हैं। संस्मरणों पर आने को कृपया मेरे लेखन का अंतिम अध्याय न मानिए। अभी हाल में ही मैंने एक कहानी लिखी है। आगे भी कहानियां लिखने का विचार है। अंतिम सांस तक सृजनरत रहना चाहता हूं।

इन्द्र निवास, रोशनगंज,

शाहजहांपुर-242001 (उ. प्र.)


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