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अतीत के आईने से ...जब स्कूटर वाले नेताजी से हार गए थे जयपुर के महाराजा

देश की राजनीति में आजादी के बाद से भी राजपरिवारों का दखल रहा है। इनमें जयपुर का राजपरिवार भी शामिल है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 05 Apr 2019 09:58 AM (IST)Updated: Fri, 05 Apr 2019 09:58 AM (IST)
अतीत के आईने से ...जब स्कूटर वाले नेताजी से हार गए थे जयपुर के महाराजा

जयपुर, नरेंद्र शर्मा । देश की राजनीति में आजादी के बाद से भी राजपरिवारों का दखल रहा है। इनमें जयपुर का राजपरिवार भी शामिल है। पूर्व राजमाता गायत्री देवी (अब दिवंगत) यहां से स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर सांसद रही। लेकिन उनके बेटे महाराजा भवानी सिंह (अब दिवंगत) चुनावी रण में सामान्य प्रत्याशी से हार गए थे। उन्हें यह हार जयपुर से पहली बार संसदीय चुनाव लड़ रहे गिरधारी लाल भार्गव से मिली थी। वह पहली बार चुनावी मैदान में थे और उनके सामने थे राजपरिवार के महाराजा भवानी सिंह।

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गिरधारी लाल भार्गव सामान्य पृष्ठभूमि से आते थे और उनका एक नारा ‘जिसका कोई न पूछे हाल, उसके संग गिरधारी लाल’ बहुत मशहूर था। यह चुनाव एक राजा और आम आदमी के बीच था। भार्गव जहां अपने स्कूटर पर अपना प्रचार करते थे, वहीं भवानी सिंह के चुनावी अभियान में शानदारों कारों का काफिला चलता था। लेकिन यही लोकतंत्र की ताकत है जिसने एक आम आदमी को राजघराने को चुनौती देने की हिम्मत दी। जनता ने जीत का आशीर्वाद राजा को न देकर आम आदमी को दिया।

गिरधारी लाल सांसद बन गए। भवानी सिंह की बेटी दीया कुमारी का कहना है कि यह चुनाव पूरे राजपरिवार के लिए एक सबक था। गिरधारी लाल की सफलता का चक्र यहीं नहीं रुका। वह 1991, 1996, 1998, 1999 और 2004 का भी संसदीय चुनाव जीते। आठ मार्च 2009 को उनका निधन हो गया, लेकिन 1989 के चुनाव की यादें लोगों के जेहन में आज भी ताजा हैं।

भार्गव के बेटे मनोज का कहना है कि उनके पिता सांसद रहते हुए भी बस में जयपुर से दिल्ली तक सफर करते थे। उन्होंने कभी कार या जमीन नहीं खरीदी। 

पहुंचते थे हर शादी में :

भार्गव लोगों के सुख-दुख में शामिल होने वाले नेता थे। उन्होंने ही कई सालों तक लावारिस शवों की अस्थियों का विसर्जन किया। उन्हें जानने वालों का कहना है कि भार्गव चाहे चुनाव में व्यस्त रहे या फिर संसद में रहे, लेकिन वह निमंत्रण पर शादियों पर जरूर पहुंचते थे। भले ही आधी रात हो चुकी हो। ऐसी कोई शादी नहीं होती थी, जिसका कार्ड उन्हें न मिला हो और वह न पहुंचे हो। यही वजह थी, लोग उन्हें अपना समझते थे। 

भवनी सिंह भी समझ गए थे आम आदमी की ताकत :

अपने सामने आदमी को खड़ा देख भवानी सिंह भी समझ गए थे कि उनके लिए चुनाव जीतना इतना आसान नहीं है। उन्होंने गिरधारी लाल को मात देने के लिए आम जनता से जुड़ने का प्रयास किया। और गिरधारी लाल भार्गव के नारे के खिलाफ एक नारा दिया- ‘म्हे थांका और थे म्हारा’ यानी ‘हम आपके और आप हमारे’। हालांकि भवानी सिंह के सभी दावे फेल हो गए और लंबे प्रचार के बाद भी इस ऐतिहासिक चुनाव में भवानी सिंह करीब 84 हजार 497 वोटों से हार गए।  


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