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150 साल से गांव चट्ठा ननहेड़ा में खड़े हैं 102 जंडके वृक्ष

जागरण संवाददाता, संगरूर : पंजाब में आस्था, सभ्याचार व धरती का हिस्सा रहे जंड के वृक्ष बेशक

By JagranEdited By: Published: Mon, 18 Jun 2018 03:19 PM (IST)Updated: Mon, 18 Jun 2018 06:22 PM (IST)
150 साल से गांव चट्ठा ननहेड़ा में खड़े हैं 102 जंडके वृक्ष

जागरण संवाददाता, संगरूर : पंजाब में आस्था, सभ्याचार व धरती का हिस्सा रहे जंड के वृक्ष बेशक आज अधिकतर गांवों में अंतिम सांसें गिर रहे हैं और किसी इक्का-दुक्का गांव में ही जंड के वृक्ष देखने को मिलते हैं, लेकिन मालवा के जिला संगरूर के गांव चट्ठा ननहेड़ा में एक या दो नहीं, बल्कि 102 वृक्ष एक ही जगह पर मौजूद हैं। गांव चट्ठा ननहेड़ा का उदासीन डेरा के महंत पूर्णानंद इन वृक्षों को संभालकर पर्यावरण संरक्षण में अपना अहम योगदान प्रदान कर रहे हैं। यूं कहा जा सकता है है कि महंत पूर्णा नंद की इन वृक्षों में ही जान बसती है। इन वृक्षों पर कुल्हाड़ी चलाना तो दूर वह इन वृक्षों पर किसी को नाखून तक लगाने नहीं देते हैं। करीब डेढ़ सदी पुराने जंड के वृक्षों की बीड़ इस डेरे की विरासत बन चुकी है।

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20वीं सदी के 6वें दशक तक पंजाब के खेतों, गावों के घरों व सांझी जगहों पर जंड के वृक्ष आम तौर पर देखे जाते थे, परंतु मुर्बाबदी के समय विभिन्न वृक्षों के साथ-साथ यह वृक्षों भी कटाई की भेंट चढ़ गए। केवल गांवों की सांझी जगह पर खड़े वृक्ष ही कटाई से बच पाए। इसके बावजूद गांव चट्ठा ननहेड़ा में उदासीन संप्रदाय से संबंधित डेरा बाबा रोड़े राम के महंत पूर्णानंद आज भी दो एकड़ से अधिक जमीन पर लगे 102 जंडों की बीड़ को अपने बच्चों की भांति संभाले हुए हैं। महंत पूर्णानंद ने बताया कि यह डेरा काफी प्राचीन है। पटियाला रियासत में डेरे की स्थापना के समय में इन वृक्षों को यहां लगाया गया था। डेरे के साथ-साथ यह वृक्ष भी प्राचीन होते गए हैं। समय-समय पर डेरे के नए महंत बनते रहे, लेकिन हर किसी ने इन वृक्षों को बेहतर प्यार से संभाला, जिसकी बदौलत अब तक 102 जंड के वृक्ष सुरक्षित हैं। डेरे के किसी भी महंत ने आजतक इन वृक्षों को काटने के बारे में नहीं सोचा है और न ही किसी भी कीमत पर इन्हें काटने नहीं दिया जाएगा। इन वृक्षों को संभालना इस डेरे का मुख्य उद्देश्य है, क्योंकि डेरे व इन वृक्षों का आपस में अटूट रिश्ता है। इन वृक्षों के नीचे ही जौ, बाजरा व हरा चारा बीजा जाता है, जिसका इस्तेमाल गोशाला की गायों को चारे के तौर पर किया जाता है। इन वृक्षों की होती है पूजा

पुरानी मान्यता अनुसार जंड के वृक्षों को अकाल (सूखा पड़ने) का देवता भी माना जाता है, क्योंकि सूखा पड़ने पर बेशक सभी वृक्ष सूख जाते हैं, परंतु जंड़ की जड़ बेहद गहरी होने के कारण यह सूखता नहीं है। इस वृक्ष पर लगने वाली फलियां (खोखे) को लोग फलों के तौर पर खाते हैं। अकाल पड़ने पर लोग इसके इसकी झाल, पत्ते व फलियों को सुखाकर चक्की में पीस लेते थे। इसके बाद इसमें किसी भी अनाज का आटा मिलाकर रोटियां सेककर इसका सेवन करते थे। इस वृक्ष की आयु करीब दो सदियों तक से भी अधिक होती है। इस वृक्ष की लोग पूजा भी करते हैं। परिवारों की सुखशांति के लिए लोग इस पर पूजा करते जाते हैं, जिसके मद्देनजर कई गांवों में आज भी यह इक्का-दुक्का वृक्ष मौजूद हैं, लेकिन गांव चट्ठा ननहेड़ा में मौजूद 102 जंड के पेड़ गांव की विरासत बन चुके हैं।


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