आज उपवास, पूजा, पाठ, भगवान नाम-संकीर्तन व रात्रि जागरण का विशेष महत्व
स्वामी कमलानंद गिरि जी ने भीष्म पंचक की पहली तिथि देव उठानी एकादशी कहलाती है।
संवाद सूत्र, श्री मुक्तसर साहिब
स्वामी कमलानंद गिरि जी ने भीष्म पंचक की पहली तिथि देव उठानी एकादशी की कथा सुनाते हुए बताया कि यद्यपि भगवान कभी सोते नहीं हैं, फिर भी भक्तों की भावना के अनुसार भगवान चार महीने विश्राम करते हैं। स्वामी कमलानंद जी ने ये विचार श्री राम भवन में चल रहे वार्षिक कार्तिक महोत्सव के दौरान देवउठानी एकादशी कथा पर प्रकाश डालते हुए कहा।
स्वामी जी ने बताया कि भगवान ने भाद्रपद शुक्ल एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस के साथ युद्ध किया। शंखासुर का वध करने के पश्चात थकावट दूर करने हेतु क्षीर सागर में जाकर प्रभु विश्राम करते हैं। चार माह तक विश्राम कर भगवान कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। इसलिए आज के दिन की एकादशी को हरि प्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता है। स्वामी जी ने कहा कि हरि प्रबोधिनी एकादशी के दिन व्रत और उपवास, पूजा, पाठ, भगवान नाम-संकीर्तन एवं रात्रि जागरण का बहुत अधिक महत्व है। इस तिथि को रात्रि रात्रि जागरण का उतना ही फल है जितना चारों धाम यात्रा करने का होता है। कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन कीर्तन, वाद्य, नृत्य और पुराणों का पाठ करना अनिवार्य है। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर किसी बहती हुई नदी में या कहीं भी जलाशय में स्नान कर, द्वादश अक्षर मंत्र का जप करते हुए अपने घर में आएं और भगवान नारायण की धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, चंदन, फल और अर्घ्य आदि से पूजन कर घंटा, शंख, मृदंग आदि मांगलिक वाद्य यंत्र बजाकर भगवान को प्रसन्न करें।
स्वामी जी ने बताया कि भीष्म पंचक का व्रत प्रबोधिनी एकादशी से प्रारंभ होकर कार्तिक पूर्णिमा तक चलता है। इस व्रत को भीष्म जी ने भगवान वासुदेव से प्राप्त किया था इसलिए इस व्रत का नाम भीष्म पंचक प्रसिद्ध हुआ। इस व्रत को रखने वाले व्यक्ति को अधिक से अधिक समय मौन रहना चाहिए। मौन अवस्था में अंतर्मुखी होकर परमात्मा का ध्यान जरूर करते रहना चाहिए। एकादशी व्रत का अर्थ है उपवास। उप कहते हैं समीप को और वास कहते हैं रहने को। व्रत वाले दिन जो भगवान का कीर्तन, भगवत कथा एवं नाम जप करता है, हृदय में निरंतर परमात्मा का ध्यान चितन करता है, मानो वह भगवान के समीप ही रहता है। महाराज जी ने श्रद्धालुओं से कार्तिक के आखिरी पांच दिनों यानि की भीष्ण पंचक में सवेरे और शाम को मंदिर में और मंदिर के मुख्य द्वार के आस-पास तुलसी आदि में अनेक बत्तियों की ज्योति प्रज्वलित करने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि ऐसा करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं और सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।