भागवत कथा से धुंधकारी को मोक्ष प्राप्त हुआ : पंडित विजय
ग्यासपुरा के शिव नगर में मानव सेवा संघ के तत्वावधान में चल रही श्रीमद् भागवत कथा के दूसरे दिन अयोध्या से पधारे पंडित विजय भाई पांडेय ने आत्म देव धुंधली और धुंधकारी की कथा सुनाई।
संसू, लुधियाना : ग्यासपुरा के शिव नगर में मानव सेवा संघ के तत्वावधान में चल रही श्रीमद् भागवत कथा के दूसरे दिन अयोध्या से पधारे पंडित विजय भाई पांडेय ने आत्म देव धुंधली और धुंधकारी की कथा सुनाई। इसमें उन्होंने बताया, आत्मदेव जोकि एक वेद पाठी ब्राह्मण व विद्वान थे, लेकिन उनके यहां कोई पुत्र नहीं था। वह एक दिन जंगल में जा पहुंचे जहां उन्हें साधु के दर्शन हुए। साधु ने एक फल दिया जिसे आत्म देव की पत्नी धुंधली ने गाय को खिला दिया। कुछ समय के बाद गाय ने एक बच्चे को जन्म दिया जिसका पूरा शरीर मनुष्य का था, केवल कान गाय के थे। इसके चलते उसका नाम गोकर्ण रखा गया। एक धुंधली का पुत्र जोकि उसकी बहन का था उसका नाम धुंधकारी रखा गया। उसकी मुक्ति के लिए गोकर्ण महाराज ने भागवत कथा का आयोजन किया। भागवत कथा सुनकर धुंधकारी को मोक्ष की प्राप्ति और प्रेत योनि से मुक्ति मिली। आगे की कथा में नारद के पूर्व जन्म का वर्णन किया। इससे पहले विशेष तौर पर पहुंचे वरिष्ठ उद्योगपति हरिविजय मिश्रा को सिरोपा भेंट कर सम्मानित किया। मौके पर मुख्य जजमान गीता सिद्धू, दिनेश मिश्रा, दया शंकर शुक्ला, प्रभाशंकर तिवारी, राज बहादुर पाल, भूषण सिंह, राम प्रकट यादव, पं. संजय शुक्ला, पंकज दूबे, संतोष उपाध्याय, डा. राजेश, सोनू मौजूद रहे।
'जैन धर्म में जैन विचारों ने मनुष्य को महान बनाया' संस, लुधियाना : एसएस जैन स्थानक हैबोवाल में आगमज्ञाता गुरुदेव अरुण मुनि ठाणा-6 सुखसाता विराजमान हैं। सोमवार के संदेश में गुरुदेव अरुण मुनि ने कहा कि जैन धर्म में जैन विचारों ने मनुष्य को सबसे महान बना दिया है। इस धर्म में मनुष्य की अपनी स्वतंत्रता सर्वोपरि है। जैन धर्म में हिसा को पराजित करने में तीन 'अ' का महत्व है। ये अहिसा, अनेकांतवाद और अपरिग्रह हैं। तीनों एक दूसरे से जुडे़ हैं। वे अलग नहीं हो सकते।
जैन गुरु ने कहा कि दुनिया के सभी धर्मो ने अपने चिन्ह तय किए हैं। इसमें कुछ हथियारों के रूप में हैं तो कुछ आकाश में चमकने वाले चांद-सूरज के रूप में। 24 तीर्थकरों में से एक भी तीर्थकर ऐसा नहीं, जिनके पास धनुष हो, बाण हो, गदा हो या त्रिशूल हो। इंसान ने सुविधा के लिए घोड़े, हाथी, गरुड़, मोर और न जाने किन-किन को अपनी सवारी बनाया, लेकिन जैन तीर्थकर तो किसी को कष्ट नहीं देना चाहते हैं। वे अपने पांव के बल पर सारी दुनिया को लांघते हैं और प्रकृति के भेद को जानने की कोशिश करते हैं। रहने को घर नहीं, खाने को कोई स्थायी व्यवस्था नहीं, लेकिन फिर भी दुनिया के कष्टों का निवारण करने के लिए अपनी साधना में कोई कमी नहीं आने देते हैं।