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धरोहरों का ‘खजाना’ है बैजू बावरा से नाम पाने वाला बजवाड़ा गांव

महान संगीतज्ञ बैजू बावरा से अपना नाम पाने वाला होशियारपुर का गांव बजवाड़ा पंजाब के उन समृद्ध गांवों में से एक है जो कई ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजे हुए है।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Fri, 09 Aug 2019 04:47 PM (IST)Updated: Sat, 10 Aug 2019 05:03 PM (IST)
धरोहरों का ‘खजाना’ है बैजू बावरा से नाम पाने वाला बजवाड़ा गांव
धरोहरों का ‘खजाना’ है बैजू बावरा से नाम पाने वाला बजवाड़ा गांव

जेएनएन, जालंधर। महान संगीतज्ञ बैजू बावरा से अपना नाम पाने वाला होशियारपुर का गांव बजवाड़ा पंजाब के उन समृद्ध गांवों में से एक है जो कई ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजे हुए है। बजवाड़ा होशियारपुर शहर से मात्र तीन किलोमीटर दूर हिमाचल प्रदेश के ऊना की ओर जाते हुए दाहिनी ओर स्थित है। लगभग 10,000 जनसंख्या वाले इस गांव बजवाड़ा में भले ही धरोहरों का ‘खजाना’ है लेकिन विडंबना यह है कि न तो इसकी संभाल हो रही है और न ही यहां के लोगों को इनके बारे में ज्यादा जानकारी है।

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किसी समय कांगड़ा का प्रवेश द्वार कहलाने वाले इस उपेक्षित गांव से आज दैनिक जागरण आपको रूबरू करवा रहा है, जो गुरु गोबिंद सिंह का ससुराल है; जहां कभी शेरशाह सूरी व महाराजा रणजीत सिंह रहे और जो महात्मा हंस राज जैसे विश्व विख्यात शिक्षाविद् की जन्मस्थली है।

बजवाड़ा गांव का नाम संगीत सम्राट बैजू बावरा के नाम पर रखा माना जाता है। विडंबना यह है कि उनसे संबंधित कोई स्मृति चिन्ह गांव में मौजूद नहीं है। हालांकि बैजू बावरा के बारे में गांव के बुजुर्ग थोड़ा-बहुत जानते हैं, लेकिन नौजवान पीढ़ी को इस महान संगीतज्ञ की ज्यादा जानकारी नहीं है। गांव में कोई नहीं बता पाया कि वह रहते थे कहां थे?

इतिहास के पन्ने पलटने पर पता चलता है कि मुगल काल की 16वीं शताब्दी के अंत में गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्मे बैजनाथ मिश्रा, बैजू बावरा के नाम से प्रसिद्ध हुए। बाद में वह ग्वालियर के महाराजा मान सिंह तोमर के दरबारी संगीतज्ञ रहे। उन्होंने संगीत गुरु स्वामी हरिदास से गुरुकुल में संगीत की शिक्षा ली थी। बैजू ने एक पुत्र गोद लिया था जिसका नाम गोपाल रखा। बैजू ने उसे भी संगीत की शिक्षा दी।

स्वामी हरिदास के ही अन्य शिष्य तानसेन ने स्वामी से बैजू की प्रशंसा सुनी। रीवा के महाराजा रामचन्द्र बघेला द्वारा आयोजित एक संगीत प्रतियोगिता में बैजू बावरा तथा तानसेन का आमना-सामना हुआ। वहां बैजू बावरा ने राग मृंगांजली मृग्रान्जिनी द्वारा मृगों को सम्मोहित किया, मेघ मल्हार गाकर वर्षा करवाई। राग मालकौंस गाकर पत्थरों को पिघला दिया। यह करिश्मा देख कर तानसेन ने उन्हें गले से लगा लिया। पुस्तक जय विलास महल के अनुसार बैजू बावरा ने राग दीपक द्वारा दीपक जलाकर, राग मेघ मल्हार गाकर वर्षा कराने तथा राग बहार गाकर फूलों को खिलाकर संगीत के चमत्कार से सभी को अभिभूत कर दिखाया।

क्या आप जानते हैं कि 1952 में विजय भट्ट द्वारा निर्मित-निर्देशित व भारत भूषण अभिनीत फिल्म ‘बैजू बावरा’ के रीमेक के लिए संजय लीला भंसाली ने राइट्स खरीदे हैं। पुरानी फिल्म में मोहम्मद रफी द्वारा गाया गीत ‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नाले’ आज भी एक मील का पत्थर माना जाता है। 

ऐतिहासिक किले की दास्तान

लंबे समय तक बजवाड़ा पर अफगान शासकों का कब्जा रहा। 18वीं सदी में राजा संसार चंद ने यहां एक किले का निर्माण किया जिसे ‘बजवाड़ा किला’ कहा गया जिस पर बाद में बादशाह शेरशाह सूरी, महाराजा रणजीत सिंह ने अपने अधीन ले लिया। हालांकि कई जगह किले के लिए साइनबोर्ड लगे हैं, लेकिन सड़क का हाल बेहाल है। ऊना रोड से गांव तक जाने के लिए ठीक तरह से रोड का भी प्रबंध नहीं है। सड़क पर बजरी तो पड़ी है, लेकिन अभी उसे लुक का इंतजार है।

 

गांव बजवाड़ा में बनाए गए शेरशाह सूरी के किले को आज भी देखकर अहसास होता है कि वह कभी अपनी खूबसूरती पर कितना इतराता रहा होगा, लेकिन समय की करवट ने किले को अब खंडहर के रूप में बदलना शुरू कर दिया है। किले के आसपास उगी झाड़ियों के बीच किले की ईंटें दिन-ब-दिन खिसकती जा रही हैं। बजवाड़ा का किला का नाम सुनकर या फिर किताबों में पढ़कर अभी भी दूरदराज से कभी कभार इक्का-दुक्का पर्यटक आते जरूर हैं, लेकिन उन्हें पास तक जाने का सौभाग्य नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि झाड़ियों ने किले की ‘किलाबंदी’ कर रखी है।

पुरातत्व विभाग की बेरुखी से अंतिम सांसें गिन रहे किले पर अब केवल कबूतरों का ही बसेरा देखने को मिलता है। किले के सामने रहने वाले 70 वर्षीय तरसेम लाल ने कहा कि वह बचपन से ही इस धरोहर को देखते रहे हैं। कई सरकारें आईं और गईं, परंतु किसी ने इसके रखरखाव के लिए कुछ नहीं किया। गांव की बेटी व पूर्व केंद्रीय मंत्री अंबिका सोनी ने इसके कायाकल्प की कोशिश जरूर की थी, लेकिन कोई भी सार्थक नतीजा नहीं निकला। अत: गांव की पहचान यह किला समय के साथ-साथ धराशाई होता जा रहा है।

माता सुंदर कौर की यादों को सहेजे गुरुद्वारा

माता जीतो जी उर्फ माता सुंदरी जी, बजवाड़ा होशियारपुर वासी भाई राम सरन की सुपुत्री थीं। उनका विवाह 1677 को गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ श्री आनंदपुर साहिब में हुआ। फिर पंजाबी रस्मो रिवाज के अनुसार शादी के बाद उनका नाम माता जीतो से माता सुंदर कौर (माता सुंदरी) हो गया। जब गुरु गोबिंद सिंह ने 1699 को श्री आनंदपुर साहिब में खालसा की सृजना की। माता सुंदरी जी पहली खालसा महिला सजीं। माता सुंदरी ने चार साहिबजादों अजीत सिंह, जोरावर सिंह, जुझार सिंह तथा फतेह सिंह को जन्म दिया।

अक्टूबर 1708 में नांदेड़ साहिब में गुरु गोबिंद सिंह जी के ज्योति जोत समाने के बाद माता सुंदरी ने सिखों का मार्गदर्शन किया। उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह की पांडुलिपियों को एकत्र किया। अपनी मोहर के अंतर्गत संगत को हुक्मनामे जारी किए तथा 1747 में दिल्ली में वह भी ज्योति जोत समा गईं। उनकी स्मृति में उनके जन्म स्थान बजवाड़ा में एक भव्य गुरुद्वारा साहिब का निर्माण किया गया है। यहां मिसल शहीदां तरना दल गुरुद्वारा हरियांबेला होशियारपुर के सेवादार सेवा करते हैं। गुरुद्वारे में माता सुंदर कौर से जुड़ी तमाम यादें आज भी देखने को मिलती हैं। गुरुद्वारे में दूरदराज की संगत माता सुंदर कौर की जन्मस्थली पर सिर झुकाती है व जानकारियां हासिल करती है।

यादगारी गेट

यहां दशम पातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज द्वारा साहिबजादा बाबा अजीत सिंह जी को चमकौर की जंग में जुड़ने के लिए भेजने का दृश्य देखने को मिलता है। साहिबजादा बाबा अजीत सिंह जी का यादगारी गेट भी है। गुरु माता सुंदर कौर जी द्वारा हस्त लिखित जारी हुक्मनामा आज भी यहां पर मौजूद है। हर वर्ष दिसंबर में यहां माता सुंदरी एवं उनके साहिबजादों की स्मृति में भव्य धार्मिक कार्यक्रम आयोजित होता है। कुल मिलाकर ऐतिहासिक गांव बजवाड़ा पुरानी धरोहरें आज भी संजोए हुए है, मगर सरकारी तंत्र में इच्छाशक्ति की कमी से यह उपेक्षा का शिकार जरूर हो गया है। (इनपुटः डॉ. धर्मपाल साहिल व हजारी लाल)

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