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यह है जालंधरः अंग्रेजों ने सन 1847 में करवाया था जालंधर का बंटवारा

महाराजा रणजीत सिंह ने दीवान मोहकम चंद को जालंधर में अपना प्रतिनिधि बनाया था। 1814 में उनकी मृत्यु के बाद उनका बेटा मोती राम और फिर राम दयाल 1845 तक प्रतिनिधि रहे।

By Pankaj DwivediEdited By: Published: Sat, 31 Aug 2019 01:16 PM (IST)Updated: Mon, 02 Sep 2019 10:23 AM (IST)
यह है जालंधरः अंग्रेजों ने सन 1847 में करवाया था जालंधर का बंटवारा
यह है जालंधरः अंग्रेजों ने सन 1847 में करवाया था जालंधर का बंटवारा

जालंधर, जेएनएन। जालंधर का सिख पंथ के पांचवें, छठे और नौवें गुरु से बहुत गहरा संबंध रहा था। गुरु अर्जुन देव जी का आनंद कारज माता गंगा जी के साथ सन 1583 में गांव मंजकी, जालंधर में ही संपन्न हुआ था। पांचवीं पातशाही की शहादत के बाद गुरु हर गोबिंद जी गुरुगद्दी पर आसीन हुए। उन्होंने अमृतसर से जालंधर की ओर प्रस्थान किया। इस दौरान करतारपुर के निकट पेदा खां व काले खां के जुल्म से साधारण जनता को निजात दिलाने के लिए जंग लडऩी पड़ी। दोनों करतारपुर में मारे गए। वहां से गुरु जी जालंधर आ गए और बस्ती शेख के एक स्थान पर कुछ दिन निवास किया। यह स्थान आज भी बस्ती शेख में छेवीं पातशाही के गुरुद्वारा के रूप में मौजूद है।

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नौवीं पातशाही गुरु तेग बहादुर जी का विवाह जालंधर के एक सिख परिवार के भाई लाल चंद और माता बिशन कौर की पुत्री माता गुजर कौर से चार फरवरी 1633 को करतारपुर में संपन्न हुआ था। फैजलपुरिया सिख मिसल के प्रधान खुशहाल सिंह ने जालंधर में सन 1766 में एक किला बनवाया, जिसे आजकल कोट किशन चंद कहते हैं। वह यहां शासन करने लगे। उनके बाद उनका बेटा बुद्ध सिंह किले का वारिस बना। महाराजा रणजीत सिंह ने उसे युद्ध में हरा कर जालंधर पर अपना अधिकार कर लिया।

महाराजा रणजीत सिंह ने दीवान मोहकम चंद को सन 1811 में अपना प्रतिनिधि बना दिया। सन 1814 में दीवान मोहकम चंद की मृत्यु के बाद उनका बेटा मोती राम और उनके बाद राम दयाल सन 1845 तक जालंधर में खालसा राज के प्रतिनिधि के तौर पर कार्य करते रहे। सन् 1839 में महाराजा रणजीत सिंह का निधन हो गया। वर्ष 1845 में महारानी जिंदा सत्तासीन हुईं।

जालंधर के सपूतों ने 1857 की पहली जंग में लिया था भाग

व्यापारी के रूप में 17वीं शताब्दी में भारत आए अंग्रेज 19वीं शताब्दी तक अपनी सेना खड़ी करके शक्तिशाली हो चुके थे। सन 1857 में उनके विरुद्ध हिंदुस्तान की आजादी के लिए पहली लड़ाई लड़ी गई तो उसमें जालंधर के करीब डेढ़ सौ युवक शामिल हुए। यह युवा अंग्रेजी सेना में कार्यरत थे। इतिहासकार बताते हैं जालंधर के वीर सपूतों के विद्रोह के चलते अंग्रेज आजादी की पहली जंग को दबा पाने में सफल नहीं हो सके तो इन वीर सपूतों को कुएं में धकेल कर शहीद कर दिया गया। अपना वर्चस्व बनाने के लिए अंग्रेजों ने जालंधर में  कंपनी बाग बनाया, जो आज भी निगम के सामने मौजूद है।

अंग्रेजों ने शहर में मुस्लिमों को मस्जिदों का निर्माण करने के लिए उत्साहित किया। कोट मोहम्मद अमीन के समीप स्थित मस्जिद पंजपीर भी उसी दौर की मानी जाती है। कपूरथला के शासकों ने कंपनी बहादुर से समर्थन पाकर जालंधर में विक्रमपुरा, चरणजीतपुरा आदि जगहों पर अपने महल बनवा लिए थे। कपूरथला नरेशों ने अंग्रेजों के साथ एक अजीब संधि की, जिससे चारदीवारी और बारह गेटों में सीमित जालंधर कपूरथला रियासत के अधीन आ गया। बाहर का क्षेत्र अंग्रेजों के कब्जे में चला गया। अंग्रेजों ने धार्मिक भावनाओं को अपने विरुद्ध भड़कने से रोकने के लिए कपूरथला के हिंदू राजाओं को यह पांच देवियों का क्षेत्र सौंप दिया।

महाराज रणजीत सिंह के साथ की संधि अंग्रेजों ने तोड़ी

महाराजा रणजीत सिंह के देहावसान के बाद पंजाब शोक से उभरा भी नहीं था कि वर्ष 1845 में अंग्रेजों ने सतलुज नदी पार करके पंजाब पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह से सतलुज नदी के किनारे रोपड़ के समीप संधि की थी कि अंग्रेज पंजाब में नहीं आएंगे। इसके बाद भी ईस्ट इंडिया कंपनी ने उस संधि को तोड़ दिया। ब्रिटिश सेना और खालसा फौज में भयंकर युद्ध हुआ। कारण कुछ भी रहा हो खालसा फौज विजयश्री प्राप्त न कर सकी। पंजाबी के एक प्रसिद्ध कवि शाह मुहम्मद ने लिखा है- शाह मुहम्मदा इक सरकार बाजों, फौजा जित के अंत नूं हारियां ने। सन 1847 में अंग्रेजों ने पंजाब पर अपना अधिकार कर लिया और जालंधर को दो भागों में बांट दिया गया। एक भाग कपूरथला के शासकों के अधीन हुआ और दूसरा ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन आ गया।

सतगुरु राम सिंह ने भी अंग्रेजों के खिलाफ उठाया झंडा

सन 1846 में सर जॉन लारेंस जालंधर का पहला आयुक्त बनाया गया। इसी वर्ष जालंधर के समीप अंग्रेजी सेना के लिए छावनी बनाई गई। सन 1857 में जब मंगल पांडे ने अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत का बिगुल फूंका तब जालंधर के 150 युवक, जो आठवीं पैदल सेना का भाग थे, वे भी अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ उठ खड़े हुए। इसी वर्ष नामधारी विचारधारा के जनक सतगुरु राम सिंह ने भी अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ झंडा उठा लिया और भैणी साहिब में एक भीड़ को संबोधित भी किया। ऐसे समय में कपूरथला के राजा रणधीर सिंह के छोटे भाई बिक्रम सिंह रियासत की एक सेना की टुकड़ी के साथ अंग्रेजों की सहायता के लिए जालंधर आए। सात जून 1857 को अंग्रेजों की छावनी में गोलीबारी आरंभ हो गई। कुछ अंग्रेज अधिकारी मारे भी गए। तब महाराजा रणधीर सिंह और बिक्रम सिंह ने अंग्रेजों की रक्षा के लिए अपनी सेना का प्रयोग किया।

(प्रस्तुति - दीपक जालंधरी। लेखक जालंधर के पुराने जानकार और स्तंभकार हैं। इन्होंने जालंधर पर काफी रिसर्च करके जानकारियां जुटाई हैं)

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