फैमिली टाइम, फन टाइम ...भागदौड़ भरी जिंदगी में फॉलो करें ये नियम ताकि हर दिन बने 'फैमिली डे'
जानें फैमिलीज़ कैसे प्लान करें अपने वीकएंड या विशेष अवसर... ताकि परिजनों को मिल सके एक-दूसरे के साथ क्वालिटी टाइम बिताने का बढिय़ा मौका।
[वंदना वालिया बाली] जालंधर। आज की व्यस्त जीवनशैली में हम में से अधिकतर लोग कामकाज की ऐसी आपाधापी में फंसे हैं कि सोमवार सुबह से रविवार रात तक काम खत्म ही नहीं होते। ऐसे में परिवार के साथ क्वालिटी टाइम बिताना भी एक चुनौती से कम नहीं है। ऑफिस या स्कूल की रुटीन, फिर घर की देखरेख, कभी किसी को स्कूल या कॉलेज छोडऩा, तो कभी किसी को डॉक्टर के पास लेकर जाना। सारे सप्ताह भाग-दौड़ में बीत जाता है।
रविवार को एक छुट्टी आती है, तो उस दिन के लिए पेंडिंग होते हैं ढेरों घरेलू काम। जो समय बचता है उसे टीवी या फोन निगल जाते हैं। ऐसे में फैमिली के साथ फन टाइम कहां से लाएं? आखिर फैमिलीज़ कैसे प्लान करें अपने वीकएंड या विशेष अवसर... ताकि उन्हें मिल सके एक-दूसरे के साथ क्वालिटी टाइम बिताने का बढिय़ा मौका। कैसे उनका हर दिन बन सके 'फैमिली डे'? इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढने के लिए दैनिक जागरण ने कुछ परिवारों और विशेषज्ञों से बात कर आपके लिए जुटाए हैं ये सुझाव और टिप्स...। तो आइए जानते हैं-
परिवार का नियम है फोन से दूरी
'किसी भी परिवार की सूत्रधार नारी ही है। उसी से परिवार रचता, बसता, बढ़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि वह अपनी सूझबूझ से वह समय की एडजस्टमेंट कुछ इस हिसाब से करे कि बच्चों व पति के साथ पर्याप्त समय मिल सके। 'अधिकांश परिवारों में महिलाएं यदि कामकाजी भी हैं तो पति से काफी पहले घर लौट आती हैं। उन्हें अपने काम और बच्चों के स्कूल के काम को इस हिसाब से निपटा लेना चाहिए कि जब पति लौटें तो उनके साथ फ्री बैठने का टाइम बच्चों के पास भी हो और उसके अपने पास भी।'
यह सुझाव है डॉ. श्रुति शुक्ला (स्टेट कोऑर्डिनेटर गाइडेंस ब्यूरो तथा एससीइआरटी, पंजाब की डिप्टी डायरेक्टर) का, जो एक काउंसलर होने के साथ-साथ दो होनहार बच्चों (ख्याति तथा अर्जित शुक्ला) की मां भी हैं। पंजाब के एडीजीपी अर्पित शुक्ला की पत्नी डॉ. श्रुति कहती हैं कि फैमिली टाइम को फन टाइम बनाने के लिए सीनियर पीढ़ी को दिल से प्रयास करने चाहिए। खासकर जिन परिवारों में बच्चे बढ़े हो रहे हैं। वे जैसा माता-पिता का व्यवहार देखेंगे, वैसा ही आचरण में अपनाएंगे। मेरे बच्चे जब बड़े हो रहे थे तो हमारे घर में नियम था कि डिनर टाइम केवल परिवार के लिए होगा। उस दौरान किसी का कोई फोन इस्तेमाल न होता था। आज भी जब एक साथ होते हैं तो यही नियम रहता है।
हम इस दौरान दिन भर की अपनी बातें शेयर करते हैं। इन बातों से दिल जुड़ते हैं। माहौल को इस वक्त हल्का फुल्का रखने की कोशिश करते हैं। अर्पित और मुझे यदि किसी समस्या पर विचार-विमर्श करना होता है तो वो हम बाद में वॉक के दौरान करते हैं। डिनर टाइम पर नहीं। कुछ अंतराल बाद परिवार के साथ कोई आउटिंग जरूर प्लान कर लेते हैं। बच्चों और उनके पापा को अडवेंचर पसंद है तो मैं भी उनके साथ वहीं चल देती हूं। इस दौरान हम स्वयं भी बच्चे बन कर एंजॉय करते हैं।Ó
बच्चों के साथ बच्ची बन जाती हूं
'लोगों के लिए परिवार की अहमियत को मैं इसलिए बेहतर समझती हूं क्योंकि जालंधर के चावला नर्सिंग होम के एम्ब्रियो फर्टिलिटी सेंटर में एक फर्टिलिटी कंसल्टेंट होने के नाते हर दिन ऐसे लोगों से मिलना होता है जो शारीरिक परेशानियों के कारण औलाद के लिए अस्पतालों के चक्कर लगाते हैं। उनके लिए बच्चों की अहमियत कहीं अधिक बढ़ जाती है।' यह कहना है डॉ. अनुपमा चोपड़ा का जिन्होंने अपने बच्चों के जीवन के पहले दो साल उन्हें क्वालिटी टाइम देने के लिए कोई जॉब नहीं की।
डॉ. अनुपमा चोपड़ा अपने परिवार के साथ।
उनका कहना है कि 'आजकल लगभग हर फैमिली में दोनों पेरेंट्स वर्किंग हैं। ऐसे में बच्चों को सही परवरिश मिले इसके लिए उन्हें बहुत सोच-समझ कर चलना चाहिए। मेरे दोनों बच्चों, अनन्या तथा रोहन में आयु का बहुत कम अंतर है इसलिए दोनों को एक साथ पढ़ाती हूं और उनसे सवाल भी कुछ ऐसे रोचक ढंग से पूछती हूं कि उन्हें पढ़ाई भी एक खेल ही लगे। उनके मनोरंजन तथा सेहत के लिए एक्सरसाइज का ध्यान रखना था इसलिए जब उन्हें मैंने डांस क्लास ज्वाइन करवाई तो स्वयं भी उसी क्लास में एडमिशन ले ली। इससे बच्चों को मैं उनकी मां कम और दोस्त ज्यादा लगती हूं। हमारी बॉन्डिंग बेहतर हो पाती है। उनके पापा डॉ. राहुल चोपड़ा एक रेडियोलोजिस्ट हैं और शाम को देर से लौटते हैं। इसलिए सप्ताह में उन्हें ज्यादा टाइम नहीं दे पाते लेकिन वीकएंड पर उनकी ही ड्यूटी रहती है बच्चों के साथ खेलने की।
घर में केवल दो घंटे के स्क्रीन टाइम का रूल है। इसमें चाहे वे टीवी देखें या कंप्यूटर पर कोई काम करें। मैं भी अपनी प्रेसेंटेशन्स बच्चों से बनवाती हूं और उसमें भी काफी समय साथ स्पेंड करते हैं हम डिसकशंस करते हुए। यूं तो हमारी न्यूक्लीयर फैमिली है लेकिन बच्चों को ग्र्रैंडपेरेंट्स का प्यार व मार्गदर्शन भी मिले इसके लिए एक सिस्टम बना रखा है कि वे स्कूल से सीधा नाना-नानी के पास जाते हैं और फिर शाम को मेरे साथ वापिस घर लौटते हैं। इसलिए बहुत कुछ उन्होंने अपने बुजुर्गों से भी सीखा है।
रिश्तेदारों से भी है फैमिली
लुधियाना के देवकी देवी जैन मेमोरियल कॉलेज में सोशियोलोजी की असिस्टेंट प्रोफेसर श्वेता अरोड़ा के अनुसार सप्ताह में कम से कम हर रविवार केवल परिवार के लिए होना चाहिए। इसमें चाहें तो साथ-साथ कोई काम करें या किसी रिश्तेदार के घर जाने का कार्यक्रम बनाएं या उन्हें अपने घर बुला लें। आजकल रिश्तेदारों से मिलने का चलन भी घटता जा रहा है, केवल सुख-दुख में ही नहीं उसके अलावा भी उनसे रिश्ते कायम रखें। इसे भी फैमिली ट्रडिशन में शामिल करना जरूरी है।
डॉ. श्वेता अरोड़ा।
जिस परिवार के लिए पैसा कमा रहे हैं उसे समय भी दें
लुधियाना के दयानंद मेडिकल कॉलेज के सायकोलोजी विभाग के प्रमुख डॉ. भोलेश्वर प्रसाद मिश्रा का मानना है कि आज लोगों की प्राथमिकताएं बदल गई हैं। वे पैसा कमाने के पीछे भागते-भागते ये भूल गए हैं कि किस के लिए पैसा कमा रहे हैं। यदि परिवार के लिए समय ही नहीं निकाल पाएंगे तो ऐसी भागदौड़ किस काम की? पैसे की अहमियत बढऩे व रिश्तों की कम होने से परिवार टूट रहे हैं। आपसी मतभेद बढ़ रहे हैं।
यही कारण है कि आज दस साल से कम उम्र के 90 प्रतिशत बच्चे जिद्दी स्वभाव के हैं, झूठ बोलते हैं, वे जानते हैं कि माता-पिता की व्यस्तता का कैसे फायदा उठाना है। इन्हीं वजहों से उनका पढ़ाई पर ध्यान कम होता जा रहा है। माता-पिता का बच्चों समझाने का तरीका भी अधिकतर उपदेश वाला होता है। इससे बेहतर है कि वे उन्हें उनके दोस्त बन कर समझाएं। दोस्त बनने के लिए उनके साथ खेलें, शरारतें भी करें, किचन में एक साथ कुछ नया बनाने का प्रयास करें, ऐसी मस्ती से बच्चे पेरेंट्स से खुल कर बात करने में झिझकते नहीं और पेरेंट्स उनकी बात पर उन्हें सही राह दिखा सकते हैं।
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