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सरकारी सीनियर सेकेंडरी मॉडल स्कूल की इसी इमारत में पढ़े थे पाक के पूर्व तानाशाह जिया-उल-हक

ब्रिटिशकाल की कई इमारतें आज शहर की पहचान हैं। इनमें सरकारी सीनियर सेकेंडरी मॉडल स्कूल छावनी स्थित जनरल डायर की कोठी और नेहरू गार्डन रोड स्थित व्हाइट हाउस शामिल हैं।

By Pankaj DwivediEdited By: Published: Sun, 23 Feb 2020 11:02 AM (IST)Updated: Sun, 23 Feb 2020 03:32 PM (IST)
सरकारी सीनियर सेकेंडरी मॉडल स्कूल की इसी इमारत में पढ़े थे पाक के पूर्व तानाशाह जिया-उल-हक
सरकारी सीनियर सेकेंडरी मॉडल स्कूल की इसी इमारत में पढ़े थे पाक के पूर्व तानाशाह जिया-उल-हक

जालंधर, [जगदीश कुमार]। जालंधर का जहां पौराणिक इतिहास रहा है वहीं, ब्रिटिश राज में भी यह एक अलग पहचान रखता था। ब्रिटिश काल में बनीं अनेक ऐसी इमारतें आज शहर की पहचान बनी हुई हैं। इनमें लाडोवाली रोड पर स्थित सरकारी सीनियर सेकेंडरी मॉडल स्कूल हो, छावनी स्थित जनरल डायर की कोठी हो या नेहरू गार्डन रोड स्थित व्हाइट हाउस नाम से पहचान रखती कोठी। इन इमारतों को देखते समय इतिहास सामने आ जाता है।

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लाडोवाली रोड स्थित सरकारी सीनियर सेकेंडरी मॉडल स्कूल अंग्रेजों के जमाने से चल रहा है। इस इमारत में अब सरकारी कॉलेज ऑफ एजुकेशन चल रहा है, जो आजादी से पहले लाहौर में था। ब्रिटिश सरकार ने 1872 में वर्नाकुलर मिडिल स्कूल शुरू किया था। वर्ष 1882 में इसे अंग्रेजों ने हाई स्कूल में तब्दील कर दिया था। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जिया उल हक सहित ब्रिटिश सरकार चलाने वाले अधिकारियों के बच्चे यहां से शिक्षा ग्रहण करके निकले। गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ एजुकेशन की प्रिंसिपल डॉ. जसविंदर कौर बताती हैं कि सबसे पहले स्कूल की कमान एम शाह मोहम्मद के हाथ में थी। उसके बाद जे. बसटीन इसके हेड मास्टर थे। इसके बाद एंग्लो वर्नाकुलर मिडिल स्कूल बनाया गया, जिसके हेडमास्टर एल शिव दयाल थे। वर्ष 1886 में इसे सरकारी तौर पर चलाना शुरू कर दिया। इसका नाम बदल कर सरकारी वर्नाकुलर हाई स्कूल रखा गया। इसके बाद इसे म्यूनिसिपल एंग्लो वर्नाकुलर हाई स्कूल में तब्दील किया। जे. बसटीन 21 साल सेवाएं देने के बाद दिल्ली ट्रांसफर हो गए थे।

विभाजन के बाद कई शैक्षणिक संस्थान भी लाहौर से तब्दील होकर पूर्वी पंजाब लाए गए थे। उस समय में ही सेंट्रल ट्रेनिंग कॉलेज लाहौर भी वहां से बदलकर दिसंबर 1947 में जालंधर शुरू किया गया था, जिसे पंजाब यूनिवर्सिटी से मान्यता प्राप्त थी। कॉलेज का कैंपस 153 कनाल के विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है, जो कि गुलाम भारत के समय किसी शाही परिवार से संबंधित व्यक्ति की मलकीयत लगता है। इसे स्कूल की इमारत में शुरू किया गया था, जहां रिफ्यूजी कैंप भी चलाए गए थे।

यह विरासती इमारत अपने अंदर पुरानी इमारतसाजी कला का इतिहास समोए बैठी है। यहां नए सिरे से कॉलेज शुरू करने के साथ ही बीटी (बैचलर ऑफ टीचिंग) की डिग्री शुरू की गई, जिसके पहले बैच में 87 के करीब लड़के व सात लड़कियों ने दाखिला लिया था। धीरे-धीरे कॉलेज का नाम बनता गया और महापंजाब के अलावा अन्य राज्यों के बच्चे भी यहां शिक्षा हासिल करने के लिए आगे आने लगे। वर्ष 1956 में तत्कालीन सरकार ने कॉलेज के साथ एक्सटेंशन सर्विस विभाग भी जोड़ दिया। सरकारी सीनियर सेकेंडरी स्कूल को नई इमारत में शिफ्ट कर दिया था। वर्ष 1957 से इस ट्रेनिंग कॉलेज में ओटी (ओरिएंटेंशन इन टीचिंग) कोर्स शुरू किया गया। इसके पांच साल बाद 1962 में सरकार ने यहां जेबीटी का कोर्स भी शुरू कर दिया, जो प्राइमरी स्तर पर अध्यापकों के लिए था। जुलाई 1966 यहां बीएड (बैचलर ऑफ एजुकेशन) की डिग्री शुरू की गई थी, जो अब तक जारी है।

अध्यापक के क्षेत्र में उच्च शिक्षा की बढ़ती मांग को देखते यहां एमएड (मास्टर ऑफ एजुकेशन) की डिग्री भी शुरू की गई। वर्ष 1969 में जब गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी अस्तित्व में आई तो यह कॉलेज जीएनडीयू के अधीन चला गया।

जलियांवाला बाग नरसंहार की याद दिलाती है डायर की कोठी 

जालंधर छावनी स्थित यह कोठी कभी जलियांवाला नरसंहार के लिए जिम्मेदार जनरल डायर की रिहायश थी।

वर्ष 1846 में जब अंग्रेजों ने जालंधर को अपने कब्जे में लिया था तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने अंग्रेज फौजियों को शहर के एक बाग में अस्थायी छावनी डालकर दी थी। वर्ष 1860 में अंग्रेजी सरकार ने कंपनी की फौजों को पक्के तौर पर बैरकों में रखने व अन्य मिलिट्री साजो-सामान की संभाल के लिए रामामंडी, संसारपुर व सोफी के बीच गांव हटवा कर जालंधर छावनी का निर्माण करवाया। वर्ष 1861 में अंग्रेज वायसराय लार्ड मैकाले भारत आया तो अंग्रेजों ने कंपनी बाग में रुकी बर्तानवी फौज को नई बनाई गई छावनी में तब्दील कर दिया। इसी छावनी में 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग के नरसंहार के लिए जिम्मेवार जनरल डायर की रिहायश बनी हुई है, आज यहां भारतीय फौज के अधिकारी रह रहे हैं।

छावनी में रहने वाले बुजुर्ग ललिता प्रसाद कहते हैं कि उनके बुजुर्ग अक्सर इस कोठी के बारे में चर्चा करते थे। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार वर्ष 1919 के जलियांवाला नरसंहार से एक साल पहले ही जनरल डायर जालंधर छावनी में बैठी अंग्रेज हुकूमत की 45वीं इन्फेंटरी ब्रिगेड का ब्रिगेड जनरल बन कर इंग्लैंड से आया था। उसने यहां आकर छावनी के माल रोड पर एक शानदार घर का निर्माण करवाया था। इसके ऊपरी हिस्से पर गुंबद बनवाया था। सफेद रंग की इस विशाल इमारत के प्रांगण में जनरल डायर ने अपने ही हाथों सिल्वर ओक का पौधा लगाया था, जोकि इस समय विशाल पेड़ बन चुका है। वर्ष 1918 के मार्च में जनरल डायर इंग्लैंड से पंजाब पहुंचा था, जिसे जालंधर में इन्फेंटरी ब्रिगेड का पक्के तौर पर कमांडर लगाया गया था। अमृतसर ही उसके अधिकार क्षेत्र में पड़ता था और डायर 29वीं पंजाबी ब्रिगेड का अधिकारी होने के समय से ही जालंधर शहर से पहचान रखता था। कैंट के अंदर कालोनियन हाउस में डायर अपने शुरुआती दिनों में रहा था। 

फ्लैग स्टाफ हाउस भी इसके नजदीक ही स्थित था, लेकिन बाद में उसने कालोनियन हाउस की तर्ज पर इसके नजदीक ही अपनी रिहायश बनाने का मन बनाया था। इस विशाल इमारत का निर्माण बेहद ही अच्छे ढंग से करवाया गया है, जिसके सामने बरामदा बनाया हुआ है। इमारत के बीच एन ऊपर गुंबद बनाया गया। अंदर अलग-अलग कमरे बनाए गए हैं, जिनमें ड्राइंग रूम, डाइनिंग रूम, किचन, बाथरूम व सोने वाले कमरे हैं। डायर ने रायल मिलिट्री कॉलेज सैंधरसट से 1885 में ग्रेजुएशन की। इसके बाद ही रानी की रॉयल रेजीमेंट (पश्चिम सरी) में लेफ्टीनेंट के रूप में नौकरी शुरू कर दी। तीसरे बर्मा युद्ध में भी डायर ने हिस्सा लिया। विश्व युद्ध में उसने सेइस्टान फौज की कमान संभाली व वर्ष 1915 में कर्नल बन गया। एक साल बाद 1916 में उसे ब्रिगेडियर जनरल बना दिया व 1918 में पुन: पंजाब भेजा गया।

व्हाइट हाउस के रूप में जानी जाती है मायर परिवार की विशाल कोठी

जालंधर में रेलवे स्टेशन के पास स्थित मायर परिवार की ऐतिहासिक कोठी को शहर के व्हाइट हाउस के रूप में भी जाना जाता है।

नेहरू गार्डन रोड से रेलवे स्टेशन को जाते दाएं हाथ स्थित विशाल सफेद रंग की इमारत वहां से गुजरने वालों का ध्यान खुद-ब-खुद अपनी तरफ खींचती है। इस बड़ी कोठी को शहर के व्हाइट हाउस के रूप में भी जाना जाता है। सफेद रंग की कोठी का निर्माण शहर के प्रसिद्ध कारोबारी व कारखानेदार प्रेमनाथ मायर ने वर्ष 1945 में शुरू करवाया था। यह विशाल इमारत 180 मरले में तैयार की गई। इसके अंदर-20-22 कमरे हैं, जिनमें ड्राइंग रूम, डाइनिंग रूम, लॉबी व अन्य शामिल हैं। इसकी छतें 20 फुट ऊंची व दीवारें 13 इंच मोटी बनाई गई थीं। इसके सभी कमरों में लकड़ी का काम बेहद शानदार ढंग से किया गया है। दरवाजे तथा खिड़कियों पर कई तरह के डिजाइन बनाए गए हैं, जोकि उस समय की भवन निर्माण कला का नमूना पेश करते हैं। कोठी में आगे की तरफ गार्डन बनाया गया था। पिछली तरफ स्वीमिंग पूल भी है। प्रेमनाथ मायर अपने समय के प्रसिद्ध कारोबारी थे।

वे गंडासे व छुरियों के आयात का काम करते थे, जोकि इंग्लैंड व जर्मन से मंगवाया जाता था। मूल रूप से नूरमहल के रहने वाले मायर परिवार के प्रेमनाथ मायर व उनके भाई अलख प्रकाश मायर कारोबार के कारण जालंधर में बस गए। शुरू में दोनों भाइयों का लाडोवाली रोड पर फाटक पार गंडासे व छुरियों का कारोबार था। प्रेमनाथ मायर के दोहते कुलदीप मायर बताते हैं कि 1947 में जब विभाजन के बाद लोगों को इधर-उधर जाना पड़ा तो प्रेमनाथ मायर ने व्हाइट हाउस को रिफ्यूजी कैंप बना दिया। रेलवे स्टेशन के नजदीक होने के कारण शरणार्थी नजदीकी स्थानों पर ठहरते थे। व्हाइट हाउस में कई महीनों तक शरणार्थी आते-जाते रहे। यहां उनके ठहरने के अलावा खाने-पीने का प्रबंध किया गया था। वर्तमान में मायर परिवार के सदस्य दिल्ली में बस गए हैं और व्हाइट हाउस में कभी-कभार चक्कर लगाते हैं। पिछले कई वर्षों से व्हाइट हाउस बंद पड़ा है। इसकी देखभाल प्रेमनाथ मायर के बेटे वरिंदर मायर करते हैं, जो कि दिल्ली में रहते हैं। कम लोग ही अब इसका इतिहास जानते हैं।

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