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ये है जालंधरः पेशावर जाते समय दिल्ली गेट के सामने रुकते थे दिल्ली के शासक

जालंधर का एतिहासिक दिल्ली गेट फगवाड़ा गेट और सैदां गेट के बिल्कुल बीच में था। यह 20 फीट ऊंचा और 20 फीट चौड़ा था और वर्ष 1960 तक मौजूद था।

By Pankaj DwivediEdited By: Published: Sat, 07 Sep 2019 03:43 PM (IST)Updated: Sun, 08 Sep 2019 09:09 AM (IST)
ये है जालंधरः पेशावर जाते समय दिल्ली गेट के सामने रुकते थे दिल्ली के शासक

जालंधर, जेएनएन। जालंधर के 12 एतिहासिक द्वारों में दिल्ली गेट भी हुआ करता था। यह फगवाड़ा गेट और सैदां गेट के बिल्कुल बीच में था। इसी मार्ग पर 20 फीट ऊंचा और 20 फीट चौड़ा गेट बनाया गया था। इसके निर्माण में वही सामग्री उपयोग में लाई थी, जो उस समय के सभी भवनों और गेटों में प्रयोग होती थी। यह गेट सन 1940 के करीब गिर गया था। इसके गिरने के पीछे कुछ लोग भूमि प्राप्त करने के लोभ को मानते हैं।

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दिल्ली गेट एक ऐसे मार्ग पर स्थित था, जिसके आगे एक बहुत बड़ा घास से भरा हुआ मैदान था। यहां 1836 में एक बार महाराजा रणजीत सिंह के दीवान मोहकम चंद हरिद्वार जाते हुए कुछ दिनों के लिए ठहरे थे। दिल्ली गेट इसलिए भी विख्यात हुआ कि दिल्ली के शासक जब भी पेशावर की ओर जाते थे तो वे इसके सामने जरूर ठहरा करते थे। इसकी वजह यह थी कि नदियों के बीच का यह क्षेत्र सभी सुख-सुविधाएं देने वाला कहा जाता था। इसी स्थान पर अंग्रेजों ने कंपनी बाग बना कर ईस्ट इंडिया कंपनी की यादगार बनाई। दिल्ली गेट का नाम इसलिए रखा गया क्योंकि इसकी भोगौलिक स्थिति के अनुसार गेट का मुख दिल्ली की ओर था।

फगवाड़ा के लिए रास्ता निकलने पर पड़ा था फगवाड़ा गेट का नाम

फगवाड़ा गेट अब वैसा नहीं रहा, जैसा कभी था। अब यहां बहुत बड़ा व्यापारिक केंद्र बन चुका है। फिर भी इसका एतिहासिक नाम आज भी कायम है। फगवाड़ा गेट का नाम इसलिए रखा गया क्योंकि यहां से फगवाड़ा की ओर जाने वाला रास्ता निकलता था। कुछ लोग यहां तक कहते हैं कि इस गेट के निर्माण में फगवाड़ा से सुरक्षा के लिए पलायन करके आए लोगों का बहुत योगदान रहा है।

इस बारे में कुछ इतिहासकार कहते हैं कि जब फगवाड़ा, फग्गू का वाड़ा के नाम से जाना जाता था, तब छठीं पातशाही को मुस्लिम हाकिम के भय से वहां रुकने नहीं दिया गया था। इसी से रुष्ट होकर छठीं पातशाही के अनुयायी जालंधर आ गए। इस गेट की ऊंचाई का अभी ठीक से पता नहीं चल सका है। फिर भी इसकी ऊंचाई 15 से 20 फीट और चौड़ाई 10 से 12 फीट मानी जाती है। इसकी सुरक्षा का दायित्व ठीकरी पहरा की तर्ज पर निभाया जाता था। इस गेट के अंदर मध्यमवर्गीय लोग ही अधिक रहते थे, जो अपने व्यापार के लिए अन्य नगरों में जाया करते थे। इन सभी को कुत्ते और घोड़े पालने का शौक हुआ करता था। आज यह गेट कहीं दिखाई नहीं देता है, परंतु जहां आज बिजली का ट्रांसफार्मर लगा हुआ है, इसे वहीं बताया जाता रहा है। यहां एक रास्ता रस्ता मोहल्ले से होता हुआ रैनक बाजार की ओर जाता है।

खिंगरा गेट से आक्रमणकारियों पर पत्थरों से होता था हमला

यह गेट सर्कुलर रोड पर ढन्न मोहल्ले की चार गलियों के सामने पड़ता है। इसकी ऊंचाई और चौड़ाई 20-20 फुट और गेट के मेहराबों की चौड़ाई अढ़ाई से तीन फुट हुआ करती थी। जब कभी कोई आक्रमणकारी, दस्यु दल या अवांछित लोग इस गेट से प्रवेश करना चाहते तो पहले उनको ललकारा जाता था। दस्यु दल दरवाजे को तोड़ने का प्रयास करने के लिए शस्त्रों का प्रयोग करते थे। तब किले के युवक एवं महिलाएं ऊपर से नुकीले पत्थर फेंककर इनका सामना करते थे। ये पत्थर खिंगर कहलाते थे और खंजर जैसे होते थे। इस तरह जालंधर नगर की संपूर्ण आबादी एक सुरक्षित घेरे में रहती थी। इसको किला यानि दुर्ग की सूरत में निर्मित किया था।

जालंधर स्थित खिंगरा गेट क्षेत्र। यहां निर्मित एतिहासिक खिंगरा गेट वर्ष 1960 में गिर गया था।

खिंगरा गेट के सामने बहुत बड़ा सरोवर हुआ करता था, जो बाद में जोहड़ बन गया। चूंकि इस किले को 18वीं शताब्दी के आसपास एक छोटी सी पहाड़ी पर बसाया था। आज भी यदि कोई व्यक्ति खिंगरा गेट से प्रवेश करे तो उसे किले की ऊंचाई पर बसा यह नगर इतिहास के पन्नों में जैसा दर्ज है, वैसा ही दिखेगा। इस क्षेत्र में रहने वाले दो महंतों का नाम जागरण के कारण ही सामने आता है। एक थे महंत दीवान चंद और दूसरे महंत काहन। सन 1960 में यह गेट गिर गया था।

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