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कभी शहरों में थे समय के पहरेदार और अब बदलते वक्त में हुए खामोश

पंजाब के शहरों में कभी समय के पहरेदार रहे घंटाघर अब बदलते वक्‍त के साथ खामोश हो गए हैं। ऊंचे-ऊंचे इन घंटाघरों की टनाटन से शहरों का जनजीवन जगता- सोता और चलता था।

By Sunil Kumar JhaEdited By: Published: Sat, 29 Dec 2018 06:08 PM (IST)Updated: Sun, 30 Dec 2018 01:11 PM (IST)
कभी शहरों में थे समय के पहरेदार और अब बदलते वक्त में हुए खामोश

जालंधर, जेएनएन। समय न कभी रुकता है और न थकता है। हर गुजरा पल एक इतिहास छोड़ जाता है। पंजाब के शहरों में कभी समय के पहरेदार रहे घंटाघर भी आज खामोश हो गए हैं और इतिहास बनने की ओर अग्रसर हैं। ये घंटाघर कभी शहरी जिंदगी में अहम स्‍थान रखते थे। हर घंटे के बाद इनकी आवाज लोगों को समय का भान कराते थे। इन वॉच टॉवरों से घंटे की आवाज लोगों को सुलाती और जगाती थी तो कामकाज के दौरान समय भी बताती थी। लेकिन, अब ये अप्रसांगिक हो गए हैं।

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शहरों में लोगों को समय बताने के लिए ऊंचे बुर्जों पर विशाल घडियां लगाई गई थी। हन घंटा घरों पर लगी घड़ी दूर से ही लोगों को समय बता देती थी। ये इतना सटीक होती थीं कि शहर में समय का पैमाना हाेती थीं और लोग इससे अपनी कलाई घड़ी का समय मिलाते थे। शहर में ये घंटाघर सबसे अहम लैंडमार्क भी हाेते थे। पंजाब के कई शहरों में आज भी ये घंटाघर मौजूद हैं और खास खुद में इतिहास समेटे हुए हैं। कुछ खस्ताहाल हैं तो कई खामोश हो गई हैं, मानों चुपचाप खड़े होकर बदलते वक्त को देख रही हैं।  


लुधियाना का 98 सीढिय़ों वाला घंटाघर है बदहाल

कभी लुधियाना की पहचान समझा जाने वाला 98 सीढियों वाला घंटाघर अपने आप में इतिहास को समेटे हुए है। इसका उद्घाटन ब्रिटेन की क्वीन विक्टोरिया शासन के 25 साल पूरे होने पर 18 अक्टूबर 1906 को किया गया था। पंजाब के तत्कालीन गर्वंनर सर चार्ल्‍स मोंटगोमरी व लुधियाना के डिप्टी कमिश्नर दीवान टेकचंद ने इसका उद्घाटन किया था।

बाद में पंजाब के तज्‍कालीन मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने इसका नाम भगवान महावीर क्लॉक टावर रख दिया। 8 दिसंबर 2011 को पर्यटन विभाग ने घंटाघर की रेनोवेशन करवा इसकी कायाकल्प की। अब इसके रखरखाव का जिम्मा नगर निगम के पास है। घंटाघर का जब निर्माण हुआ तो इसकी 107 फुट की ऊंचाई के कारण आसपास की इमारते बौनी लगती थीं। कहा जाता है कि शहर तो छोड़िए दूर के इलाकों से भी घंटाघर नजर आ जाता था। इसी के चलते यह लुधियाना की पहचान बना। इस ऐतिहासिक निर्माण के 112 साल बाद अब आसपास की इमारतें व पुल ही इतनी ऊंचाई छू चूकी है कि उनके आगे घंटाघर अब छोटा नजर आने लगा है।

एक जमाना था कि घंटाघर की ऊंचाई इतनी अधिक व इसकी विशाल घड़ियों का समय इतना सटीक होता था कि कई किलोमीटर दूर से दिखने वाली इस धरोहर से लोग अपनी घड़ियों के समय का मिलान करते थे। आसपास की इमारतों ने अपनी ऊंचाई क्या बढ़ाई घंटाघर की घड़ियों की कार्यकुशलता पर भी ग्रहण लग गया। अब हालात ऐसे हैं कि कभी घड़ी की सुइयां पांच घंटे पहले का समय बताने लगती है तो कभी पांच घंटे बाद का। इसके रखरखाव का जिम्मा संभालने वाली नगर निगम की लाइट ब्रांच के कर्मचारी इसके रखरखाव के प्रति बेहद उदासीन है। उनकी लापरवाही अक्सर घंटाघर की घडिय़ों के जरिए बयां होती है।

यहां है पर्यटन विभाग का कार्यालय : गत चार वर्ष से पर्यटन विभाग का कार्यालय घंटाघर में बना है। आशा थी कि इसके बनने से कुछ बदलाव होगा लेकिन घंटाघर की हालत खस्ता ही है।

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फ्रांसीसी नमूने पर बना है फरीदकोट का घंटाघर

फरीदकोट रियासत के महाराजा बलबीर सिंह ने महारानी विक्टोरिया की याद में विक्टोरिया टावर (घंटा घर) का निर्माण सन 1902 में करवाया था। इसकी चार भुजी और ऊपर जाकर आठ भूजी बनती मीनार जैसी खूबसूरत इमारत है जिसे फ्रांसीसी नमूने के आधार पर तैयार किया गया था। इसकी ऊंचाई 115 फीट है और इसके शिखर पर लगी चार बड़ी घड़ियां स्विट्जरलैंड से मंगवाई गई थीं। इन घड़ियों को सप्ताह में एक बार चाबी भरनी पड़ती थी। इसमें लगी क्विंटल भर की कांसे की घंटी की हर घंटे बाद इतनी ऊंची आवाज में घंटा बजाती थीं कि समूचे शहर निवासियों को सुनता था।

आज जिला प्रशासन द्वारा घंटा घर के रखरखाव पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। घंटा घर की चारों घड़ियां लंबे समय से बंद हैं। इमारत में भी जगह-जगह दरारें पड़ चुकी हैं। कुछ साल पहले रियासती परिवार के महारावल खेवा जी ट्रस्ट द्वारा घंटा घर को पहले वाले रिवायती सफेद, पीले व हरे रंग से पेंट करवाया गया था। बदहाल स्थिति के बावजूद घंटा घर फरीदकोट शहर की शान है।

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फाजिल्का: 15 लाख रुपये से बदली थी नुहार

फाजिल्का का घंटाघर शहर के बीचों-बीच व्यस्त चौक की शान है, लेकिन अब यह खामोश पड़ा है। न तो इसका अलार्म बज रहा है और न ही घड़ी सही समय बता रही है।

80 साल पुराना है यह : जून 1939 में फाजिल्का के ऐतिहासिक घंटा घर का निर्माण पेड़ीवाल परिवार ने करवाया था। उस समय के फिरोजपुर डिवीजन के डिप्टी कमिश्नर एमआर सचदेव, जालंधर डिवीजन के कमिश्नर शीप शैंक्स अस्कवायर व नगर कौंसिल प्रधान शोपत राय पेड़ीवाल ने घंटाघर का उद्घाटन किया था। फिर 2008 में नगर कौंसिल के प्रधान अनिल कुमार ने घंटा घर की शान को बढ़ाते हुए 15 लाख रुपये की लागत से इसकी नुहार बदलनी शुरू की। विश्व स्तरीय रंग रोगन, फर्श पर मार्बल, आसपास शानदार फूलों की क्यारी बनाई गई और चार लाख रुपये की लागत के साथ चार इलैक्ट्रोनिक घड़ियां लगवाई।

आसमान से ब्रिटिश झंडे जैसी झलक : फाजिल्का और लायलपुर (मौजूदा समय में पाकिस्तान के फैसलाबाद के नाम से जाना जाता है) के घंटा घर शहर के बीचोबीच बने हैं, जहां शहर के चार से आठ रास्ते जुड़ते हैं। दोनों घंटा घर आसमान से देखने पर इंग्लैंड के राष्ट्रीय ध्वज जैसा नजारा दिखाते हैं। 1840-1880 के बीच दोनों शहर फाजिल्का और लायलपुर अस्तित्व में आए। इन शहरों के केंद्र का डिजाइन कैप्टन पोहम यंग ने तैयार किया था। इसमें उनके राष्ट्रीय ध्वज की झलक दिखती थी। लायलपुर का घंटा घर पंजाब के ब्रिटिश लेफ्टिनेंट गवर्नर सर चाल्र्स जेम्स लायल ने और फाजिल्का में राम नारायण पेलीवाल ने बनवाया था।

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होशियारपुर: 81 साल बाद चली थी इसकी घड़ी

सन 1936 में होशियारपुर गेट के रूप में इस क्लॉक टावर का निर्माण करवाया गया था। यहां लगी बड़ी घड़ी हर घंटे बाद अलार्म बजाती थी। अंग्रेजों के भारत से पलायन करने के बाद लंबे समय तक घड़ी की व्यवस्था न के बराबर थी। कुछ साल पहले होशियारपुर जब नगर परिषद था, तब एक बार फिर घड़ी की मरम्मत करवाई गई थी। इसके बाद भी यह ज्यादा समय तक नहीं चली। इसके बाद रोटरी क्लब ने सोनालिका के सहयोग से नगर निगम से इसके रख रखाव का प्रस्ताव पारित करके इसकी देखभाल की जिम्मेदारी उठाई। 4 अक्टूबर 2017 को पुन: घंटाघर में अंतरराष्ट्रीय ब्रांड की 8 लाख रुपये की घड़ी लगाई गई। लगभग 81 साल बाद घंटा घर की घड़ी चलनी शुरू हुई।  यह घंटा घर इसलिए भी मशहूर है क्योंकि यहां से चंद कदमों की दूरी पर ‘रेड रोड’ है। यह नाम एक लाठीचार्ज में वहां खून की धारा बहने के कारण दिया गया था।

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कपूरथला: कई बार बिगड़ी-संवरी घंटाघर की हालत

महारजा जगतजीत सिंह ने कपूरथला में 1901 में क्लॉक टावर बनवाया गया। इसके लिए विशेष तौर पर लंदन से 1893 में बेन्सन कलॉक मंगवाई गई थी। यह आज कपूरथला के सरकारी सीनियर सेकेंडरी गर्ल्‍स स्कूल में सुशोभित है। कभी हर 15 मिनट बाद बजने वाली इसकी घंटियों की अवाज दस किलोमीटर तक के क्षेत्र में सुनती थी। कहते हैं कि 1949 तक यह घड़ी लगातार चलती रही लेकिन महाराजा की मृत्यु के साथ ही यह बंद हो गई। फिर रख रखाव के अभाव में यह कई बार खराब हुई। हालांकि वर्तमान में यह चालू हालत में है। अब एक घंटे बाद इसकी घंटी बजती है।

2003 में तत्तकालीन डिप्टी कमिश्नर विवेक अग्रवाल ने क्लॉक को चालू करने के लिए कोलकात्ता से स्विस वॉच कंपनी के मकैनिक बुलवा साढ़े छह लाख रुपये खर्च किए तो 2007 में यह दोबारा बंद हो गई।

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संगरूर: 161 साल से चल रही घड़ी

पूर्व जींद रियासत की राजधानी संगरूर का घंटा घर आज भी अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं। पुराने समय में इसकी टन-टन की आवाज से ही संगरूर शहर सहित आसपास के गांवों तक के लोगों को समय का पता चलता था पर एक दशक से इसकी आवाज बंद है। हालांकि अब पुरातत्व विभाग ने घड़ी के खस्ताहाल पुर्जों को बदलना शुरू कर दिया गया है।

10 किमी तक सुनाई देती थी आवाज: वर्ष 1857 में संगरूर के तत्कालीन राजा ने शहर के बीचों बीच दीवानखाना रोड पर करीब 50 फीट ऊंचे इस घंटा घर का निर्माण करवाया। घंटा घर की चार मंजिला इमारत व एक मंजिला गुंबद बनाया गया। चारों दिशाओं में बसे लोगों के लिए चार बड़ी-बड़ी घड़ियां बनाई गई और विशाल टल (घंटा) लगाया गया, इसकी आवाज 10 किलोमीटर दूर स्थित गांव घाबदां में राजा के विश्रामघर तक सुनती थी।

आज भी चलती हैं ये घड़ियां : हालांकि इसकी घड़ियों को चलाने वाली मशीनरी के पुर्जे टूट चुके हैं, इसके बावजूद सभी दिशाओं की घड़ियां आज भी चालू हालत में हैं। रियासतों के खत्म होने के बाद से इसके पुर्जों की मरम्मत नहीं हो पाई है। जैसे-तैसे बांध कर मशीनरी को चलाया जा रहा है। घंटा घर बेहद पुराना होने के कारण कंपनियों ने पुर्जे बनाने बंद कर दिए हैं। अब विशेष आर्डर पर इन्हें लुधियाना से बनवाया जा रहा है। निर्माण के बाद से ही पीढ़ी दर पीढ़ी आहलुवालिया परिवार इसकी संभाल कर रहा है। पूवर्जों के बाद 1983 से इस काम में जुटे संपत राय आहलुवालिया बताते हैं कि सप्ताह में तीन बार दो क्विंटल भार रस्सों से खींच चारों घड़ियों में कर इनमें चाबी भरी जाती है।

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अमृतसर: बिना घड़ी हर घंटे बजता था घंटा

अमृतसर की ऐतिहासिक टाउन हाल इमारत का हिस्सा रहा घंटा घर आज खामोश है। ब्रिटिशकाल में यहां लगाया गया घंटा हर घंटे बाद बजता था और इस पर घड़ी नहीं लगाई गई थी। इसकी आवाज शहर के किसी भी कोने पर सुन सकते थे। खास बात यह थी कि घंटा घर की टन-टन गिन कर ही समय का पता लोग लगाते थे क्योंकि तब किसी विरले के पास ही घड़ी होती थी। दरअसल, 1862 में ब्रिटिश हुकूमत में एक्सीक्यूटिव इंजीनियर जॉन गॉर्डन ने टाउन हाल की इमारत पर बनाए घंटा घर में यह विशाल घंटा स्थापित किया था।

घंटाघर के निर्माण में उस समय पचास हजार रुपये खर्च हुए थे। 1937 में इस घंटा घर की गूंज थम गई। बेशक घंटा घर अब समय नहीं बताता, लेकिन ऐतिहासिक महत्व होने की वजह से इसे आज भी टाउन हाल की इमारत पर पहले की तरह ही लगाया गया है। टूरिज्म विभाग ने इस घंटा घर को पुन: शुरू करने की बात कही थी, पर यह सिरे नहीं चढ़ सकी।

 


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