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वक्त के साथ बदल रही लोहड़ी मनाने की परंपरा, ये है पर्व के पीछे की लोककथा

रवी की फसल की खुशी में मनाए जाने वाले लोहड़ी पर्व से दुल्ला भट्टी की लोककथा भी जुड़ी है। इस कहानी में किस्सेकारों ने कुछ बातों को अपने ढंग से डाला है।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Sat, 12 Jan 2019 05:00 PM (IST)Updated: Sun, 13 Jan 2019 09:00 AM (IST)
वक्त के साथ बदल रही लोहड़ी मनाने की परंपरा, ये है पर्व के पीछे की लोककथा
वक्त के साथ बदल रही लोहड़ी मनाने की परंपरा, ये है पर्व के पीछे की लोककथा

जालंधर [वंदना वालिया बाली]। एक समय था जब लोहड़ी से कुछ दिन पहले ही गांव के लड़के-लड़कियां अपनी-अपनी टोलियां बनाकर घर-घर जाकर लोहड़ी के गाने गाते हुए लोहड़ी मांगते थे। लोग उन्हें लोहड़ी के रूप में गुड़, रेवड़ी, मूंगफली, तिल या फिर पैसे भी देते हैं। ये टोलियां रात को अग्नि जलाने के लिए घरों से लकड़ियां, उपले (पाथियां) आदि भी इकट्ठा करती थीं।

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रात को गांव के लोग अपने मोहल्ले में आग जलाकर गीत गाते, भंगडा-गिद्धा करते, गुड़, मूंगफली, रेवड़ी खाते हुए लोहड़ी मनाते थे। अग्नि में तिल डालते हुए ‘ईसर आए दलिदर जाए, दलिदर दी जड़ चूल्हे पाए’ बोलते हुए अच्छे स्वास्थ्य व समृद्धि की कामना करते थे। आज आधुनिकता ने लोहड़ी मांगना तो सीमित कर दिया है, लेकिन शाम को अलाव जला कर उसमें तिल, मूंगफली व गुड़ से बनी सामग्री की आहुति लोग जरूर देते हैं।

लोहड़ी का बदलता स्वरूप

लोहड़ी का महत्व पहले बेटे के जन्म या बेटे की शादी वाले परिवार में ज्यादा रहा है। जिस घर में पुत्र जन्म लेता था, लोहड़ी के कुछ दिन पहले ही वे पूरे गांव में गुड़ बांट लोहड़ी का न्यौता देते थे। लोहड़ी की रात सभी उनके घर एकत्र होकर लकड़ियों, उपले आदि से अग्नि जलाते। सभी को गुड़, मूंगफली, रेवड़ी, आदि बांटे जाते हैं जिन्हें अग्नि में अर्पित किया जाता है और खाया भी जाता है।

आज कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ उठती आवाज तथा समाज में बेटे-बेटी के लिए बढ़ते समानता के भाव ने लोगों को बेटियों की लोहड़ी मनाने के भी प्रेरित किया है, लेकिन इस जश्न के साथ अत्यधिक खर्चीली पार्टियों का प्रचलन भी हो गया है। आज आलम यह है कि एक सप्ताह पहले ही लोहड़ी की पार्टियों का सिलसिला शुरू हो जाता है। नव विवाहित जोड़ी की लोहड़ी में पवित्र अग्नि में तिल आदि अर्पित कर के बुजुर्गों से आशीर्वाद लेती है। इन दिनों विभिन्न संस्थाओं और सोशल ग्रुप्स व क्लब्स द्वारा भी नाच-गा कर लोहड़ी की खुशियां मनाई जाती हैैं।

लोहड़ी का नायक दुल्ला भट्टी

रवी की फसल की खुशी में मनाए जाने वाले इस पर्व से दुल्ला भट्टी की लोककथा भी जुड़ी है। इस कहानी में किस्सेकारों ने कुछ बातों को अपने ढंग से डाला है, लेकिन उन पर इतिहासकारों की पड़ताल कहती है यह...

सुंदर-मुंदरिए, हो, तेरा कौन विचारा, हो

दुल्ला भट्टी वाला, हो, दुल्ले धी विआही, हो

सेर शक्कर पाई, हो, कुड़ी दे बोझे पाई, हो

कुड़ी दा लाल पटाका, हो

कुड़ी का सालू पाटा, हो

सालू कौन समेटे, हो, चाचे चूरी कुट्टी, हो

जिंमीदारां लुट्टी, हो, जिंमीदार सदाए, हो

गिण-गिण पौले लाए, हो

इक्क पौला रह गया, सिपाही फड़ के लै गया...

उक्त गीत लोहड़ी पर हर गली मोहल्ले में सुनाई देता है। गीत का नायक दुल्ला भट्टी पंजाबियों की अनख व गैरत के प्रतीक रहा है।

दुल्ला भट्टी की लोक कथा

सरकारी डिग्री कालेज के प्रिंसिपल प्रोफेसर असद सलीम शेख बताते हैं कि पंजाबी लोककथा के अनुसार पिंडी भट्टियां के नजदीकी गांव कोट नक्के के दुकानदार मूल चंद की एक पुत्री मुंदरी थी। (उल्लेखनीय है कि कुछ किस्सेकारों ने मूल चंद की दो पुत्रियां सुंदरी तथा मुंदरी भी लिखीं हैं, जबकि मुंदरी की सुंदरता के कारण उसे ‘सुंदर मुंदरी’ कहा गया है।) गांव का अधेड़ उम्र मुसलमान नंबरदार मुंदरी के सौंदर्य पर मुग्घ होकर उससे शादी करना चाहता था। उसने जब मूल चंद पर शादी का दिन नीयत करने के लिए दबाव डाला, तो वह रात के अंधेरे में अपनी बेटी को लेकर पिंडी भट्टियां (मौजूदा पाकिस्तान के जिला हाफिज़ाबाद का एक गांव) पहुंच गया।

दुल्ले ने पास के क्षेत्र सांगला हिल के अपने हिंदू मित्र साहूकार सुंदर दास के बेटे से उसका रिश्ता पक्का करके मूल चंद को कहा कि शादी वाले दिन वह नंबरदार को भी बारात लाने के लिए बोल दे। जब नियत दिन को नंबरदार बारात लेकर पहुंचा तो उसके साथियों के सामने ही दुल्ले ने उसकी खूब पिटाई की और खुद मुंदरी के पिता की भूमिका निभाते हुए उसका कन्यादान किया। इस घटना के बाद दुल्ला भट्टी की बहादुरी का यह प्रसंग लोहड़ी पर्व का हिस्सा बनकर लोक गीत के रूप में सदा के लिए अमर हो गया।

इसलिए बना वह बागी

वीर नायक दुल्ला भट्टी का जन्म मौजूदा पाकिस्तानी पंजाब के जिला हाफिज़ाबाद के बद्दर क्षेत्र के गांव चुचक में सन् 1547 में मां बीबी लद्दी व राजपूत फरीद भट्टी के घर में हुआ। हमायूं ने लगान न देने के जुर्म में फरीद खान तथा उसके पिता बिजली खान उर्फ सांदल भट्टी के सिर धड़ों से अलग कर उनकी लाशें लाहौर शाही किले के पिछले दरवाजे पर लटकवा दी थीं।

दुल्ला भट्टी बड़ा हुआ तो गांव की एक मरासन से उसे उक्त जानकारी मिली। यह सब सुनने के बाद उसने अपनी बार (जंगल का इलाका) के लड़कों की एक फौज तैयार की और मुगल दरबार के मनसबदारों और साहूकारों से धन, घोड़े और हथियार लूट कर बादशाह अकबर के विरुद्ध बगावत का एलान कर दिया। उसी दौरान दुल्ला एक परोपकारी राजा के रूप में अपने क्षेत्र की जनता के बीच लोकप्रिय हुआ।

एक प्रसंग, जिसे रिसर्च ने झुठलाया

प्रोफेसर असद के अनुसार कई किस्साकारों ने लिखा है कि अकबर के पुत्र शेखू यानी जहांगीर का जन्म हुआ तो उसे बलवान और न्यायपसंद बादशाह बनाने के लिए दरबार के विद्वानों ने बादशाह को सुझाया कि शेखू को ऐसी राजपूत औरत का दूध पिलाया जाए जिसने शहजादे के जन्म वाले दिन ही बच्चे को जन्म दिया हो। माई लद्दी को इसके लिए चुना गया। बादशाह के हुक्म के कारण उसने अपने बेटे दुल्ले के साथ-साथ शेखू को भी अपना दूध पिलाकर बड़ा किया।

किस्सेदारों ने दुल्ला भट्टी के साथ यह उक्त तथ्य जोड़कर बहुत बड़ी भूल की है। उन्हें पहले यह जान लेना चाहिए था कि शेखू को जन्म देने वाली उसकी मां हरखा बाई, जिसे कुछ लेखकों ने गलती से हीरा कुमारी या जोधा बाई लिखा है, खुद एक राजपूतानी थी, जिसे शादी के बाद मरियम ज़मानी नाम दिया गया। शेखू का जन्म 20 सितंबर 1569 को हुआ था, जबकि दुल्ला भट्टी का 1547 में। दोनों में 22 वर्ष का अन्तर था। वहीं माई लद्दी जैसी राजपूतानी अपने पति व ससुर के हत्यारे के वंशज को अपना दूध भला क्यों पिलाती?

यूं हुआ दुल्ले का अंत

बादशाह अकबर ने दुल्ले के बागियाना स्वभाव के कारण फौज के कमांडर निज़ामूदीन को हथियारों से लैस 12 हजार सिपाहियों के साथ उसे गिरफ्तार करके लाहौर लाने के लिए भेजा। लाहौर से 27 किलोमीटर दूर गांव ठिकरीवाला के पास शाही फौज और दुल्ले की फौज में हुए युद्ध के अंत में एक साजिश रचकर दुल्ले को जिंदा गिरफ्तार कर लिया गया। दस वर्ष मुगल फौज को नाकों चने चबवाने वाले दुल्ला भट्टी को 26 मार्च 1589 की जुम्मे रात लाहौर के मुहल्ला नखास चैंक में फांसी पर लटका दिया गया। भले ही दुल्ला भट्टी तब शहीद हुआ पर पंजाबी उसकी बहादुरी की गाथा को ‘सुंदर-मुंदरिए, हो’ के रूप में हमेशा याद रखेंगे।

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