अाखिर कब तक यह तोहमत झेलेगा पंजाब, पूरे उत्तर भारत की लगी उस पर नजर
पंजाब के लिए बड़ा सवाल है कि वह कब तक उत्तर भारत को गैस चैंबर बनाने की तोहमत झेलेगा। धान की कटाई का सीजन आते ही पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने का मुद्दा फिर गरम हो गया है।
चंडीगढ़/जालंधर, [इन्द्रप्रीत सिंह/आशा मेहता]। अाखिरकार पंजाब अब तक इस तोहमत को झेलेगा अौर दूसरे राज्यों के निशाने पर रहेगा। हम कब तक दूसरों को नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते रहेंगे। हम बात कर रहे हैं राज्य में पराली जलाए जाने की। अाज हालात यह हो गए हैं कि पंजाब एक तरह से गैस चैंबर में तब्दील हो गया है और इस कारण ठंड के समय में स्मॉग छाने के लिए भी उसे हरियाणा के साथ सबसे बड़ा जिम्मेदार माना जाता है।
पंजाब को बना गैस चैंबर, लेना होगा पराली नहीं जलाएंगे, पर्यावरण बचाएंगे का संकल्प
पहली अक्टूबर से पंजाब और हरियाणा में धान की खरीद शुरू हो गई है। इस बार धान की बंपर फसल का अनुमान है। ऐसे में साफ है कि पराली भी उसी अनुपात में ज्यादा आएगी। कृषि विशेषज्ञों के अनुसार पंजाब और हरियाणा में किसान मात्र 25 फीसद पराली संभाल पाते हैं, शेष जला देते हैं। हकीकत है कि यही पराली खुशहाली ला सकती है, अगर इसे जलाने के बजाय इस्तेमाल किया जा सके। लेकिन, जागरूकता के लाख प्रयास के बावजूद किसान इससे बाज आने को तैयार नहीं हैं।
30 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में धान की खेती होती है पंजाब में, 200 लाख टन पराली पैदा होती है हर साल
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल और सुप्रीम कोर्ट के डंडे के बाद केंद्र व पंजाब सरकार ने कई कदम तो उठाए हैं कि इस बार पराली जलाने से संकट पैदा न हो, लेकिन किसानों ने जिस तरह से मोर्चा खोल रखा है और मुक्तसर, तरनतारन आदि जिलों में पराली जलाना शुरू कर दिया है उससे लगता है कि इस साल भी पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचेगा। अगर सरकार ने अभी से नकेल नहीं कसी तो अगले दो माह बेहद कष्टकारी साबित होंगे। किसानों ने सरकारी आदेशों की अनदेखी जारी रखी तो उत्तर भारत को गैस चैंबर बनने से कोई नहीं रोक सकता।
जलती पराली की फोटो खींची तो डरा किसान खुद ही बुझाई। कार्रवाई की डर से किसान ने इसे खुद बुझाया।
इस साल लोगों को सांस लेना कितना आसान होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि सरकार कितना कारगर कदम उठा पाती है और किसान पराली न जलाने के प्रति कितना जागरूक होते हैं। पंजाब दोहरा संताप झेलता है, एक तो अपने खेतों में जलती पराली से फैलते प्रदूषण का और दूसरा दिल्ली समेत पूरे उत्तर भारत की तोहमत कि पंजाब की वजह से यह स्थिति झेलनी पड़ रही है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि जागरूकता, सख्ती व विकल्प सुझाने की सरकार की कवायद के बाद भी क्या यह संभव हो पाया है कि किसानों को बिना आर्थिक नुकसान हुए जलाई जाने वाली पराली को संभाला जा सके?
एक दशक से अधिक से जागरण लगातार पराली जलाने के खतरों से अवगत कराने से लेकर सरकार को जगाने तक का काम कर रहा है। हमारा अभियान यही है कि पराली न जले, किसानों को इसके लिए विकल्प मिलें, सरकारी मदद मिले, जो पराली अभिशाप बन चुकी है उसका उपयोग हो, उससे कमाई हो...और अंतत: यह खुशहाली लाए।
सेहत के लिए नुकसानदायक
धान के अवशेष जलने के बाद जो धुआं उठता है, वह बेहद नुकसानदायक होता है। इससे कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रिक ऑक्साइड जैसी गैसें पैदा होती हैं। धान की पराली बेहद धीमी गति से जलती है। इससे धुआं ज्यादा उठता है। हल्का पीला व सफेद रंग का धुआं आसमान में जमा हो जाता है। चारों तरफ धुंध सी महसूस होती है।
यह धुआं आंखों में जलन पैदा करता है। इसके अलावा सांस लेने में भी बहुत परेशानी होती है। पिछले साल पराली की वजह से पूरे उत्तर भारत में विकराल रूप से स्मॉग (स्मोक और फॉग) की समस्या खड़ी हो गई थी। दमे के मरीजों के अलावा आम लोगों के लिए भी यह स्थिति घातक साबित हो सकती है। इतना ही नहीं हर वर्ष पंजाब में पराली के धुएं के कारण सड़क हादसों में 10 से 12 फीसद तक बढ़ोतरी हो जाती है।
25 फीसद पराली यानी 50 लाख टन ही संभाल पाते हैं किसान, 150 लाख टन पराली जलाई जाती है हर साल
पंजाब में लगभग 30 लाख हेक्टेयर में धान की खेती की जाती है। इससे करीब 200 लाख टन पराली पैदा होती है। इसमें से 50 लाख टन पराली का ही प्रबंधन हो पाता है। शेष 150 लाख टन जला दी जाती है। किसान धान पकने के बाद फसल का ऊपरी हिस्सा काट लेते हैं और बाकी अवशेष छोड़ देते हैं। इसके बाद गेहूं की बिजाई के लिए उन्हें खेत खाली करने की जल्दी होती है। धान की कटाई कंबाइनों से होने के कारण पराली का बड़ा हिस्सा खेत में ही रह जाता है। यह गेहूं की बिजाई में रुकावट बनता है। मजबूरन किसान खेत में पराली को आग लगा देते हैं।
बर्बाद होता है 1.60 लाख टन नाइट्रोजन, सल्फर व कार्बन
पंजाब में पराली को आग लगाने की वजह से हर साल जमीन में 1.50 से 1.60 लाख टन नाइट्रोजन व सल्फर के अलावा कार्बन जलकर राख हो जाती है। नष्ट नाइट्रोजन व सल्फर का मूल्य करीब 160 से 170 करोड़ रुपये है। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के वैज्ञानिकों के शोध के अनुसार एक एकड़ की पराली में करीब 10-18 किलोग्राम नाइट्रोजन, 3.2-3.5 किलो फास्फोरस, 56-60 किलो पोटाश, 4-5 किलो सल्फर, 1150-1250 किलो कार्बन के साथ ही और भी दूसरे सूक्ष्म तत्व होते हैं। दूसरे शब्दों में समझें तो एक टन पराली जलाने से चार सौ किलो जैविक कार्बन, 5.5 किलो नाइट्रोजन, 2.3 किलो फास्फोरस, 25 किलो पोटाश, 1.2 किलो सल्फर व मिट्टी के सूक्ष्म तत्वों का नुकसान होता है।
दिवाली के समय बढ़ जाती है समस्या
इतनी ज्यादा मात्रा में पराली जलने से परेशानी होना तय है, लेकिन असली दिक्कत तब शुरू होती है, जब इन्हीं दिनों दिवाली के दौरान प्रदूषण का स्तर एकाएक बढ़ जाता है। पराली और पटाखों से निकलने वाले रासायनिक कण हवा में बहुत गहन हो जाते हैं। हवा न चलने और तापमान गिरने के कारण स्मॉग जमने लगता है।
पराली जलाने के बाद रासायनिक खाद पर जोर
पराली जलने से जमीन की उर्वरता कम हो जाती है, लिहाजा इसे बढ़ाने के लिए किसान ज्यादा से ज्यादा यूरिया और रासायनिक खाद का इस्तेमाल करते हैं। कीटों के प्रहार से बचने के लिए कीटनाशाक दवाओं का इस्तेमाल भी बढ़ जाता है। यानी दोनों को मिलाकर का 28 से 35 फीसद खर्च बढ़ जाता है।
क्या कहते हैं किसान...
प्रति एकड़ 1200 से 2000 रुपये बढ़ जाता है खर्च : राजेवाल
भारतीय किसान यूनियन के प्रधान बलबीर सिंह राजेवाल का कहना है कि पराली उचित तरीके से ठिकाने लगाने पर प्रति एकड़ खर्च लगभग 1200 से 2000 रुपये बढ़ जाता है। केंद्र सरकार केवल फसल पैदा करने का खर्च जोड़ती है, लेकिन इसके अवशेष संभालने का नहीं। धान की कटाई और गेहूं की बुआई में मात्र 20 दिन मिलते हैं।
उनका कहना है कि धान काटकर सुखाने, मंडियों में ले जाने, फिर पराली को संभालने, खेतों की नई फसल के लिए जुताई करके उसमें बुआई करने में अगर दो दिन की देरी हो जाए तो इसका असर गेहूं की पैदावार पर पड़ता है। केंद्र इसकी भरपाई नहीं करता। किसान पहले से ही कर्ज के बोझ के नीचे दबे हैं। उन पर और भार डालना उचित नहीं है। इसके लिए समाज को आगे आना चाहिए।