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हिंदी के प्रचार व प्रसार की बातें... वादे... और फिर भी वर्षों से संघर्ष जारी...

हिंदी के प्रचार व प्रसार की बातें होती हैं वादे होते हैं र फिर अगले दिन से हिंदी का संघर्ष फिर से जारी जारी हो जाता है।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Sat, 14 Sep 2019 04:01 PM (IST)Updated: Sun, 15 Sep 2019 05:22 PM (IST)
हिंदी के प्रचार व प्रसार की बातें... वादे... और फिर भी वर्षों से संघर्ष जारी...
हिंदी के प्रचार व प्रसार की बातें... वादे... और फिर भी वर्षों से संघर्ष जारी...

जेएनएन, जालंधर। हमें राष्ट्रगान मिला। हमें राष्ट्रीय पक्षी मिला। राष्ट्रीय जानवर मिला, लेकिन आज आजादी के सात दशक बाद भी हम अपनी राष्ट्रभाषा से वंचित हैं। हमारी राष्ट्रभाषा बनने के लिए हिंदी का संघर्ष 72 साल से जारी है। हिंदी दिवस पर तमाम आयोजन होते हैं। हिंदी के प्रचार व प्रसार की बातें होती हैं, वादे होते हैं र फिर अगले दिन से हिंदी का संघर्ष फिर से जारी जारी हो जाता है। सालों से जारी इस संघर्ष में पंजाब के कुछ लेखको ने हिंदी की टिमटिमाती लौ को मशाल के रूप में जलाए रखा है।

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हिंदी के विद्वान इसे दुर्भाग्य ही मानते हैं कि हिंदी अभी तक हमारी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन पाई है। संविधान में अनुच्छेद 343 से लेकर 351 तक राज भाषा अधिनियम के तहत देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी भारत संघ की राजभाषा है। हम सब से बड़ी गलती यह हुई कि आजादी के बाद जब हमारा संविधान बनाया गया और उसे लागू किया गया तो हमने खुद स्वीकार कर लिया कि अनुच्छेद 343 के तहत 15 वर्ष तक हिंदी अंग्रेजी की सह भाषा के रूप में इस्तेमाल होगी। आज तक वह सफर पूरा नहीं हो पाया है। नतीजतन, राष्ट्रभाषा का दर्जा व मान्यता रखने वाली हिंदी आज भी आधिकारिक तौर पर राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई है।

हिंदी के प्रचार व प्रसार से लेकर हिंदी के उत्थान तक में पंजाब के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है। पंजाब से हिंदी के विद्वानों ने हिंदी के हित में अलख जलाकर रखी। रमेश कुंतल मेघ, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’, वीरेंद्र मेहंदीरत्ता, इंदु बाली, श्री जगदीश चंद्र, यशपाल, इंद्रनाथ मदान, वे नाम हैं जिन्होंने पंजाबी भाषी होने के बाद भी हिंदी की अलख जलाकर रखी और ताउम्र हिंदी को अपने शब्दों से सींचते रहे।

यही वजह है कि आज भी पंजाब में पंजाबी के साथ-साथ सबसे लोकप्रिय भाषाओं में हिंदी का स्थान आदर के साथ बना हुआ है। इसमें पंजाब की हिंदी पत्रकारिता के योगदान को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।पंजाब में जालंधर की भूमिका भी अहम रही है हिंदी के प्रचार-प्रसार में। यहां का प्रकाशन उद्योग हो या हिंदी साहित्यकारों की बात हिंदी को उन्होंने नई जन-जन तक पहुंचाने में मदद की है।

आज भी 250 से ज्यादा प्रकाशक हैं जालंधर में

जालंधर का प्रकाशन उद्योग हिंदी की ही देन है। यह अलग बात है कि समय के साथ जालंधर के प्रकाशन उद्योग ने विभिन्न विषयों में किताबों व अन्य साहित्यिक सामग्री का प्रकाशन शुरू कर दिया। इसके बाद भी जालंधर के प्रकाशन उद्योग में हिंदी की भूमिका को कभी भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। माई हीरा गेट कभी एशिया के प्रकाशन उद्योग में सबसे बड़े उद्योग के रूप में अपनी पहचान रखता था, लेकिन समय के साथ यहां से तमाम प्रकाशन दिल्ली व मेरठ में शिफ्ट हो गए। इसके बाद भी आज भी जालंधर में 250 से ज्यादा छोटे व बड़े प्रकाशकों का बाजार है। यहां पर किसी भी विषय में पठनीय सामग्री प्रकाशित करवाई जा सकती है। एक दौर था जब उपन्यास प्रकाशन के मामले में जालंधर ने मेरठ व दिल्ली को पीछे छोड़ दिया था।

मीडिया हब होने के कारण जालंधर की हिंदी के प्रचार में रही अहम भूमिका

जालंधर में छोटे, बड़े, दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षित तथा मासिक 112 से ज्यादा हिंदी समाचार पत्रों का प्रकाशन होता है। यही नहीं हिंदी की दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक तथा मासिक 27 से ज्यादा से पत्रिकाओं का प्रकाशन भी यहां होता है। साथ ही हिंदी खबरों के 16 से ज्यादा पोर्टल जालंधर की खबरें दे रहे हैं। साथ ही ओडियो विजुअल मीडिया भी यहां काफी अहम भूमिका निभा रहा है। रेडियो सिटी सहित विभिन्न रेडियो के पांच चैनल्स लोगों को हिंदी में सेवाएं दे रहे हैं। साथ ही जालंधर में स्थापित आल इंडिया रेडियो व दूरदर्शन की भूमिका भी हिंदी के प्रचार-प्रसार में अहम रही है।

हिंदी में पता लिखा तो लड़ने लगा था डाकिया

साहित्यकार मोहन सपरा का कहना है कि हिंदी मेरी जिंदगी का हिस्सा है। सन 1961 से हिंदी में हस्ताक्षर कर रहा हूं। पत्रों पर पता हिंदी में ही लिखता हूं। एक बार एक डाकिया मुझ से लड़ने लगा कि हिंदी के बजाय अंग्रेजी में पता लिखो। मैं भी जिद पर अड़ा रहा कि हिंदी में ही पता लिखूंगा। उसने कहा वह पत्र नहीं भेजेगा। तो मैंने कहा उसकी शिकायत विभाग से करूंगा। उसके बाद वह पत्र भेजने के लिए तैयार हो गया।

विज्ञान जैसे विषय भी हिंदी में पढ़ाए जाएं

कन्या महाविद्यालय की प्रिंसिपल डा. आतिमा शर्मा द्विवेदी का कहना है कन्या महा विद्यालय हमेशा से हिंदी के प्रचार व प्रसार में आगे रहा है। 1886 में महाविद्यालय में कई किताबें हिंदी में लिखी गईं। मेरा मानना है कि विज्ञान जैसे विषय भी हिंदी में ही पढ़ाए जाने चाहिए। हिंदी में प्रतियोगताएं व विभिन्न विषयों की पढ़ाई तथा सिलेबस में परिवर्तन करके किताबों को हिंदी में प्रकाशित करवाना चाहिए।

लेखकों को पेंशन मिलनी चाहिए

हिंदी विद्वान डॉ. बलविंदर कुमार का कहना है कि मुझे गर्व है कि मैं हिंदी हूं। मैं हिंदी ओढ़ता हूं, हिंदी बिछाता हूं। हिंदी खाता हूं और हिंदी से कमाता हूं। कुछ लोग हैं जो हिंदी के स्वरूप को बिगाड़ने में लगे हैं, लेकिन वह अपने मकसद में सफल नहीं होंगे। पंजाब में हिंदी एसोसिएशन की स्थापना होनी चाहिए। लेखकों को पेंशन मिलनी चाहिए। जिस भाषा से देश को नाम मिला ‘हिंदुस्तान’, उसका आदर जरूरी है।

मुंशी प्रेमचंद के कहने पर हिंदी लिखने लगे ‘अश्क’

जालंधर में जन्मे राजेंद्र नाथ ‘अश्क’ने प्रारम्भिक शिक्षा लेते समय 11 वर्ष की आयु से ही पंजाबी में तुकबंदियां करनी शुरू कर दी थीं। कला स्नातक होने के बाद लॉ की। कुछ वर्ष अध्यापन कार्य भी किया और आकाशवाणी से भी जुड़े रहे। अश्क जी ने अपना साहित्यक जीवन उर्दू लेखक के रूप में शुरू किया था किन्तु बाद में वे हिन्दी के लेखक के रूप में ही जाने गए। 1932 में मुंशी प्रेमचन्द की सलाह पर उन्होंने हिन्दी में लिखना आरम्भ किया।

1933 में उनका दूसरा कहानी संग्रह ‘औरत की फितरत’ प्रकाशित हुआ जिसकी भूमिका मुंशी प्रेमचन्द ने लिखी। उनका पहला काव्य संग्रह ‘प्रात: प्रदीप’ 1938 में प्रकाशित हुआ। मुंबई प्रवास में इन्होंने फिल्मों की कहानियां, पटकथाएं, संवाद और गीत लिखे, तीन फिल्मों में काम भी किया किन्तु चमक-दमक वाली जिन्दगी उन्हें रास नहीं आई। 19 जनवरी 1996 को अश्क जी चिर निद्रा में लीन हो गए। उनको 1972 के ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया।

‘हम सब हिंदी हैं’ व ‘हे राम’ लिख अमर हुए फाकिर

जालंधर के निवासी सुदर्शन फाकिर भले ही ‘वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी’ जैसी अनेक गजलों के लिए जाने जाते हैं लेकिन शायद कम ही लोग जानते हैं कि उन्होंने ही जगजीत सिंह द्वारा गाया गया भजन ‘हे राम-2, तू ही माता, तू ही पिता है’ भी लिखा था। उनकी पत्नी सुदेश फाकिर के अनुसार एनसीसी द्वारा गाया जाने वाला गीत ‘हम सब भारतीय हैं...’ भी सुदर्शन फाकिर के लिखे गीत ‘हम सब हिंदी हैं...’ का रुपांतर है।

सुदर्शन फाकिर जालंधर के रेडियो स्टेशन पर काम करते थे जब एक कार्यक्रम के दौरान उनकी मुलाकात बेगम अख्तर से हुई और वह फाकिर की लिखी गजल की मुरीद हो गईं। उन्होंने फाकिर को मुंबई आने का निमंत्रण दिया और वहीं से उनका फिल्मी सफर भी शुरू हुआ। हालांकि वहां संघर्ष भी कड़ा रहा लेकिन अनेक यादगार गीत फाकिर साहब ने लिखे जिनमें फिल्म ‘अर्थ’ का गीत तुम इतना जो मुसकुरा रहे हो..., ‘दूरियां’ का जिंदगी मेरे घर आना..., ‘इजाजत’ का मेरा कुछ सामां... आदि शामिल हैं।

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